संघ परिवार की रहस्यात्मक संरचना का पर्दाफाश!

अरुण माहेश्वरी।

जर्मनी के हैम्बर्ग में और लंदन के स्कूल आफ इकोनोमिक्स में राहुल गांधी के भाषणों ने भाजपाई हलके में कुछ ऐसी हड़कंप पैदा कर दी है जिसे राजनीति के साधारण मानदंडों से समझना कठिन है। वैसे ही एक अर्से से राहुल ने आत्ममुग्ध मोदी की नींद उड़ा रखी है। हाल में लोकसभा के मानसून अधिवेशन में राहुल की बार-बार की चुनौती के बावजूद मोदी उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे क्योंकि राफेल सौदे में हजारों करोड़ की दलाली का उनके पास इसके अलावा कोई जवाब नहीं था कि वे भारत के प्रधानमंत्री हैं, उन्हें इतना तो हक बनता ही है कि अपने संकट में पड़े एक मित्र को चालीस हजार करोड़ का लाभ दिला दें!

बहरहाल, जर्मनी और लंदन में राहुल के भाषण से तो लगता है कि मोदी कंपनी को और भी नागवार गुजर रहे हैं। मोदी में इतनी भी सलाहियत नहीं है कि वे देश के अंदर या बाहर, कहीं भी कायदे का एक संवाददाता सम्मेलन कर लें और कहने के लिए वे ‘विद्वान’ बनते हैं! इसके अतिरिक्त किसी भी जगह बुद्धिजीवियों से खुला संवाद तो उनके संघी प्रशिक्षण में एक असंभव चीज है। उनका प्रशिक्षण सिर्फ आम लोगों के बीच झूठी बातों को रटने, सांप्रदायिक बटवारे के लिए हुआ है,  जो वे बखूबी करते हैं। भेड़-बकरियों की तरह जुटा कर लाए गए लोगों से जयकारा लगवाते हैं!

लेकिन राहुल ने पूरी जिम्मेदारी के साथ राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मसलों पर इन दोनों जगहों पर जिस गंभीरता से भारत की राजनीति को आज के विश्व पटल पर समझने की कोशिश की, उसने उनमें एक बड़े राजनेता के उभरने के साफ संकेत दिए हैं।

सर्वप्रथम तो भाजपाई संबित पात्रा टाइप मोदी काल के कुकुरमुत्ता प्रवक्ताओं को राहुल का विदेश में मुंह खोलना ही मोदी के विशेषाधिकार के हनन की तरह लगा था। इसके अलावा वे और दो बातों पर बेजा ही उखड़ गए थे। इनमें पहली बात थी भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी की। राहुल ने इसकी विदेश में चर्चा क्यों कर दी ! कौन नहीं जानता कि बेरोजगारी कितने प्रकार की सामाजिक समस्याओं का कारण बनती है। इनमें आज की दुनिया की एक सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद भी है। सभी आतंकवादी संगठन बेरोजगार युवकों को ही आम तौर पर अपनी गतिविधियों के मोहरों के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

राहुल ने विदेश में भारत में बेरोजगारी की समस्या को उठा कर लगता है मोदी कंपनी की इस सबसे अधिक दुखती हुई रग पर हाथ रख दिया था। उस पर राहुल ने मोदी के नोटबंदी के पागलपन और जीएसटी की बदइंतजामी का जिक्र करके तो जैसे उनके जख्मों पर नमक छिड़कने के काम कर दिया। राहुल ने कहा कि मोदी ने आर्थिक विकास की दिशा में सकारात्मक तो एक भी कदम नहीं उठाया, लेकिन इन दो नकारात्मक कदमों से पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। और इसके साथ ही यह बिल्कुल सही कहा कि यही परिस्थिति तत्ववादी ताकतों के लिए जमीन तैयार करती है।

राजनीतिक-प्रशासनिक अराजकता से कैसे आतंकवादी ताकतें लाभ उठाती हैं,  इसी संदर्भ में राहुल ने अमेरिका की इराक नीति का भी जिक्र किया और कहा कि वहां सद्दाम हुसैन के शासन को खत्म करने में ज्यादा समय नहीं लगा था, लेकिन बाद में नई प्रशासनिक व्यवस्था में जिन लोगों को भी वंचित किया गया, उनसे ही आगे चल कर इराक से लेकर सीरिया तक में आइसिस की तरह के संगठन को अपनी जमीन तैयार करने की रसद मिली।

राहुल का बेरोजगारी और तत्ववाद, इन दो विषयों पर बात करना संघी तत्वों के लिए निषिद्ध विषयों पर बात करने के अपराध के समान था। इसीलिए राहुल के हैम्बर्ग के भाषण से ही उनके प्रवक्ता और चैनलों में बैठे मूर्ख ऐंकर और लगभग उसी स्तर के दूसरे भागीदारों ने चीखना चिल्लाना शुरू कर दिया। चैनलों पर राहुल को बचकाना कहने की एक होड़ शुरू हो गई। जो खुद पशुओं की तरह अपनी नाक के आगे नहीं देख पाते हैं, सोचते हैं ओसामा बिन लादेन आया और अल कायदा या आइसिस बन गया,  उनके लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद और सामाजिक विषमताओं को दुनिया में आतंकवाद के उत्स के रूप में देखने की बात एक भारी रहस्य की तरह थी। और जो उन्हें समझ में न आए, उनकी नजर में वही बचकाना होता है। लेकिन सच यही है कि इन चैनलों की बहसें पशुओं के बाड़ों के निरर्थक शोर से अधिक कोई मायने नहीं रखती हैं।

इसके बाद लंदन में राहुल ने और एक सबसे महत्वपूर्ण बात कह दी कि भारत में आरएसएस मिस्र के ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ का ही हिंदू प्रतिरूप है। आरएसएस की तुलना हम हिटलर की नाजी पार्टी से लेकर अफगानिस्तान के तालिबान तक से हमेशा करते रहे हैं, लेकिन इस संदर्भ में ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’  का जिक्र करके राहुल ने आज के संदर्भ में आरएसएस के और भी सटीक समानार्थी संगठन की शिनाख्त की है।

यह ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ क्या है?  इसकी ओर सारी दुनिया का ध्यान 2012 में खास तौर पर गया था जब 2011 की जनवरी में अरब बसंत क्रांति के बाद इसके राजनीतिक संगठन ने मिस्र का चुनाव जीत लिया था। लेकिन बहुत जल्द ही मिस्र में उसकी आतंकवादी गतिविधियां दुनिया के सामने आने लगीं और 2015 में ही उसकी सरकार को खत्म करके उसके सारे नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया और दुनिया के बहुत सारे देश उसे एक आतंकवादी संगठन मानते हैं।

‘सोसाइटी आफ द मुस्लिम ब्रदर्स’ (अल-लखवॉन अल-मुसलिमुन) के नाम से सन् 1928 में मिस्र में एक अखिल इस्लामिक संगठन के रूप में इसका निर्माण हुआ था । यह अस्पतालों और नाना प्रकार के धर्मादा कामों के जरिये पूरे इस्लामिक जगत में अपनी जड़े फैला रहा था। कुरान और सुन्ना के आदर्शों पर यह पूरे समाज, परिवार और व्यक्ति को ढालने के प्रचारमूलक काम में मुख्यतः लगा रहता था और पूरी अरब दुनिया में इसके अनेक समर्थक हो गए थे । धर्मादा कामों के जरिये अपने राजनीतिक उद्देश्यों को साधना ही इसका प्रमुख चरित्र रहा है और इसे एक समय में सऊदी अरब सहित कई इस्लामिक देशों का समर्थन मिला हुआ था। लेकिन आज सऊदी अरब में भी यह एक प्रतिबंधित संगठन है।

कहना न होगा,  तथाकथित सेवामूलक कामों के जरिये राजनीतिक उद्देश्यों को साधने वाला इस्लामिक दुनिया का यह एक ऐसा कट्टरपंथी और तत्ववादी संगठन है जिसकी भारत में सबसे उपयुक्त मिसाल हिंदू तत्ववादी आरएसएस ही हो सकती है। इसीलिये राहुल ने आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से करके बिल्कुल सही जगह पर उंगली रखी है।

जर्मनी और ब्रिटेन में राहुल के भाषणों पर भाजपाई प्रवक्ताओं के उन्माद के रूप को देख कर हम यह सोचने के लिए मजबूर हो रहे हैं कि आखिर उसमें ऐसा क्या था जिसने इन सबको इस प्रकार से आपे के बाहर कर दिया है ? सचमुच, राहुल के इस राजनीतिक विश्लेषण को हमें फ्रायडीय सिद्धांतों पर समझने की जरूरत महसूस होने लगी है जिसमें किसी भी स्वप्न का विश्लेषण (आरएसएस के मामले में उसके रहस्यमय रूप का विश्लेषण) उस स्वप्न के पीछे छिपे हुए मूल विचार के रहस्य के बजाय उसकी संरचना के पूरे स्वरूप के ही रहस्य को उजागर करके किया जाता है । लगता है, राहुल ने कुछ इसी प्रकार से, संघ संसार की पूरी स्वप्निल संरचना की रहस्यात्मकता को उन्मोचित करने का काम किया है और इसीलिए चैनलों में उनके भाषणों को लेकर इतनी भारी चीख-चिल्लाहट मची हुई है।

राहुल ने लंदन में अपने भाषण में 1984 के सिख-विरोधी दंगों और डोकलाम प्रसंग पर भी कुछ इतनी महत्वपूर्ण बातें कही है जिनसे भाजपाई और भी तिलमिला गए हैं । उन्होंने साफ कहा है कि कांग्रेस कोई कॉडर आधारित पार्टी नहीं है। उसने 1984 के दंगों में कोई बाकायदा हिस्सा नहीं लिया था। दंगों के एफआईआर में जिन लोगों के नाम हैं उनमें भाजपा के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। और, हाल के डोकलाम की सीमा पर हुए नाटक के बारे में भी उनकी टिप्पणी उतनी ही तीखी थी जिसमें उन्होंने कहा कि बिना किसी तैयारी और तयशुदा एजेंडा के राजनयिक वार्ताओं के नाटक किसी से करवाना हो तो उसमें नरेंद्र मोदी आपको सबसे आगे मिलेंगे । जब उन्होंने चीन के राष्ट्रपति के साथ झूला झूला उसके चंद रोज बाद ही डोकलाम में चीनी सेना पहुंच गई।

अराजक होती आजादी

या तो सरकार के मंत्री नाकारा हैं या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद सभी मंत्रालयों पर कुंडली मारकर बैठे रहना चाहते हैं। जिधर देखो, उधर मोदी। जिधर न देखो उधर भी मोदी। इस लफड़े में जो भी पड़ा, इससे जो भी लड़ा, सत्ता का तूफान उसे ले उड़ा। इसलिए-लड़ो मत पर दिखार्इ देते हुए सच को देखते वक़्त आंखों पर पट्टी तो न बांधो। लड़ना ही चाहते हो तो अपनी मानसिक गुलामी से लड़ो।

श्रीकांत सिंह।

देश को आजादी मिलने के 71 साल बाद भी आजादी की तलाश जारी है। कभी मीडिया को आजादी की जरूरत पड़ जाती है तो कभी हमारी अदालतें ही आजादी मांगने लग जाती हैं। कभी नेता अपनी पार्टी से आजादी मांग बैठता है तो कभी कर्मचारी अपनी पुरानी नौकरी से आजाद होने के सुख का अनुभव करने लगता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम खुद की चुनी सरकार से ही आजादी चाहने लगते हैं। कारण। सरकार हमारी इच्छा की कम, अपनी महत्वाकांक्षा की अधिक परवाह करने लगती है। वह जनहित की बातें भूलकर वोट का गणित लगाने लगती है। दरअसल, यह सब अवसर और अवसरवाद का खेल है। अवसरों के इसी मेले में हमारी निष्ठा भटकने लगी है। तभी तो हम उम्मीद निष्ठा की करते हैं और मिलती है खुदगर्जी। हम अपने आस पास की घटनाओं पर गौर करें तो यही पाएंगे कि हमारी आजादी अराजक हो उठी है।

हाल ही में पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी ने एक सवाल उठाया जिसने रिकॉर्ड लोकप्रियता हासिल की। उनके उसी सवाल को द वायर से साभार लेकर यथावत पेश किया जा रहा है। सवाल है-क्या ये संभव है कि आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम न लें। आप चाहे तो उनके मंत्रियों का नाम ले लीजिए। सरकार की नीतियों में जो भी गड़बड़ी दिखाना चाहते हैं, दिखा सकते है। मंत्रालय के हिसाब से मंत्री का नाम लीजिए, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज़िक्र कहीं न कीजिए।

लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद ही हर योजना का ऐलान करते हैं। हर मंत्रालय के कामकाज से ख़ुद को जोड़े हुए हैं और उनके मंत्री भी जब उनका ही नाम लेकर योजना या सरकारी नीतियों का ज़िक्र कर रहे हैं तो आप कैसे मोदी का नाम ही नहीं लेंगे।

अरे छोड़ दीजिए… कुछ दिनों तक देखते हैं क्या होता है। वैसे आप कर ठीक रहे हैं… पर अभी छोड़ दीजिए।

भारत के आनंद बाज़ार पत्रिका समूह के राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके साथ ये संवाद 14 जुलाई 2018 को हुआ।

यूं तो इस निर्देश को देने से पहले ख़ासी लंबी बातचीत खबरों को दिखाने,  उसके असर और चैनल को लेकर बदलती धारणाओं के साथ हो रहे लाभ पर भी हुई।

एडिटर-इन-चीफ ने माना कि ‘मास्टरस्ट्रोक’ प्रोग्राम ने चैनल की साख़ बढ़ा दी है। ख़ुद उनके शब्दों में कहें तो, ‘मास्टरस्ट्रोक में जिस तरह की रिसर्च होती है… जिस तरह खबरों को लेकर ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्टिंग होती है, रिपोर्ट के ज़रिये सरकार की नीतियों का पूरा खाका रखा जाता है, ग्राफिक्स और स्किप्ट जिस तरह लिखी जाती है,  वह चैनल के इतिहास में पहली बार उन्होंने भी देखा।’

तो चैनल के बदलते स्वरूप या खबरों को परोसने के अंदाज़ ने प्रोपराइटर व एडिटर-इन-चीफ को उत्साहित तो किया पर खबरों को दिखाने-बताने के अंदाज़ की तारीफ़ करते हुए भी लगातार वह ये कह भी रहे थे और बता भी रहे थे कि क्या सब कुछ चलता रहे और प्रधानमंत्री मोदी का नाम न हो तो कैसा रहेगा?

ख़ैर, एक लंबी चर्चा के बाद सामने निर्देश यही आया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम अब चैनल की स्क्रीन पर लेना ही नहीं है।

तमाम राजनीतिक ख़बरों के बीच या कहें सरकार की हर योजना के मद्देनज़र ये बेहद मुश्किल काम था कि भारत की बेरोज़गारी का ज़िक्र करते हुए कोई रिपोर्ट तैयार की जा रही हो और उसमें सरकार के रोज़गार पैदा करने के दावे जो कौशल विकास योजना या मुद्रा योजना से जुड़ी हो,  उन योजनाओं की ज़मीनी हक़ीक़त को बताने के बावजूद ये न लिख पाएं कि प्रधानमंत्री मोदी ने योजनाओं की सफलता को लेकर जो दावा किया वह है क्या?

यानी एक तरफ़ प्रधानमंत्री कहते हैं कि कौशल विकास योजना के ज़रिये जो स्किल डेवलपमेंट शुरू किया गया उसमें 2022 तक का टारगेट तो 40 करोड़ युवाओं को ट्रेनिंग देने का रखा गया है। पर 2018 में इनकी तादाद दो करोड़ भी छू नहीं पार्इ है।

और ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि जितनी जगहों पर कौशल विकास योजना के तहत केंद्र खोले गए उनमें से हर दस केंद्र में से 8 केंद्र पर कुछ नहीं होता। तो ग्राउंड रिपोर्ट दिखाते हुए क्यों प्रधानमंत्री का नाम आना ही नहीं चाहिए?

तो सवाल था मास्टरस्ट्रोक की पूरी टीम की कलम पर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शब्द ग़ायब हो जाना चाहिए पर अगला सवाल तो ये भी था कि मामला किसी अख़बार का नहीं बल्कि न्यूज़ चैनल का था।

यानी स्क्रिप्ट लिखते वक़्त कलम चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न लिखे लेकिन जब सरकार का मतलब ही बीते चार बरस में सिर्फ़ नरेंद्र मोदी है तो फिर सरकार का ज़िक्र करते हुए एडिटिंग मशीन ही नहीं बल्कि लाइब्रेरी में भी सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी के ही वीडियो होंगे।

और 26 मई 2014 से लेकर 26 जुलाई 2018 तक किसी भी एडिटिंग मशीन पर मोदी सरकार ही नहीं बल्कि मोदी सरकार की किसी भी योजना को लिखते ही जो वीडियो या तस्वीरों का कच्चा-चिट्ठा उभरता उसमें 80 फीसदी प्रधानमंत्री मोदी ही थे।

यानी किसी भी एडिटर के सामने जो तस्वीर स्क्रिप्ट के अनुरूप लगाने की ज़रूरत होती उसमें बिना मोदी के कोई वीडियो या कोई तस्वीर उभरती ही नहीं।

और हर मिनट जब काम एडिटर कर रहा है तो उसके सामने स्क्रिप्ट में लिखे, मौजूदा सरकार शब्द आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तस्वीर उभरती और आन एयर ‘मास्टरस्ट्रोक’ में चाहे कहीं भी प्रधानमंत्री मोदी शब्द बोला-सुना न जा रहा हो पर स्क्रीन पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर आ ही जाती।

तो ‘मास्टरस्ट्रोक’ में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर भी नहीं जानी चाहिए उसका फ़रमान भी 100 घंटे बीतने से पहले आ जाएगा ये सोचा तो नहीं गया पर सामने आ ही गया। और इस बार एडिटर-इन-चीफ के साथ जो चर्चा शुरू हुई वह इस बात से हुई कि क्या वाकई सरकार का मतलब प्रधानमंत्री मोदी ही है।

यानी हम कैसे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर दिखाए बिना कोई भी रिपोर्ट दिखा सकते है। उस पर हमारा सवाल था कि मोदी सरकार ने चार बरस के कार्यकाल के दौरान 106 योजनाओं का ऐलान किया है। संयोग से हर योजना का ऐलान ख़ुद प्रधानमंत्री ने ही किया है।

हर योजना के प्रचार-प्रसार की ज़िम्मेदारी चाहे अलग-अलग मंत्रालय पर हो। अलग-अलग मंत्री पर हो। लेकिन जब हर योजना के प्रचार-प्रसार में हर तरफ़ से ज़िक्र प्रधानमंत्री मोदी का ही हो रहा है तो योजना की सफलता-असफलता पर ग्राउंड रिपोर्ट में भी ज़िक्र प्रधानमंत्री का चाहे रिपोर्टर-एंकर ना लें लेकिन योजना से प्रभावित लोगों की ज़ुबां पर नाम तो प्रधानमंत्री मोदी का ही होगा और लगातार है भी।

चाहे किसान हो या गर्भवती महिला, बेरोज़गार हो या व्यापारी। जब उनसे फसल बीमा पर पूछे या मातृत्व वंदना योजना या जीएसटी पर पूछे या मुद्रा योजना पर पूछे या तो योजनाओं के दायरे में आने वाला हर कोई प्रधानमंत्री मोदी का नाम ज़रूर लेता। कोई लाभ नहीं मिल रहा है ये कहता तो उनकी बातों को कैसे एडिट किया जाए।

तो जवाब यही मिला कि कुछ भी हो पर ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर-वीडियो भी मास्टरस्ट्रोक में दिखायी नहीं देने चाहिए।’

वैसे ये सवाल अब भी अनसुलझा सा था कि आख़िर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर या उनका नाम भी जुबां पर ना आए तो उससे होगा क्या? क्योंकि जब 2014 में सत्ता में आई बीजेपी के लिए सरकार का मतलब नरेंद्र मोदी है। बीजेपी के स्टार प्रचारक के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ही हैं।

संघ के चेहरे के तौर पर भी प्रचारक रहे नरेंद्र मोदी हैं। दुनिया भर में भारत की विदेश नीति के ब्रांड अंबेसडर नरेंद्र मोदी हैं। देश की हर नीति के केंद्र में नरेंद्र मोदी हैं तो फिर दर्जन भर हिंदी राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की भीड़ में पांचवें-छठे नंबर के ऱाष्ट्रीय न्यूज़ चैनल एबीपी के प्राइम टाइम में सिर्फ घंटेभर के कार्यक्रम ‘मास्टरस्ट्रोक’ को लेकर सरकार के भीतर इतने सवाल क्यों हैं?

या कहें वह कौन सी मुश्किल है जिसे लेकर एबीपी न्यूज़ चैनल के मालिकों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह प्रधानमंत्री मोदी का नाम न लें या फिर तस्वीर भी न दिखाए।

दरअसल, मोदी सरकार में चार बरस तक जिस तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी को ही केंद्र में रखा गया और भारत जैसे देश में टीवी न्यूज़ चैनलों ने जिस तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनको ही दिखाया और धीरे-धीरे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर, उनका वीडियो, उनका भाषण किसी नशे की तरह न्यूज़ चैनलों को देखने वाले के भीतर समाता गया।

उसका असर ये हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी ही चैनलों की टीआरपी की ज़रूरत बन गए और प्रधानमंत्री के चेहरे का साथ सब कुछ अच्छा है या कहें अच्छे दिन की ही दिशा में देश बढ़ रहा है, ये बताया जाने लगा तो चैनलों के लिए भी यह नशा बन गया और ये नशा न उतरे इसके लिए बाकायदा मोदी सरकार के सूचना मंत्रालय ने 200 लोगों की एक मॉनिटरिंग टीम को लगा दिया गया।

बाकायदा पूरा काम सूचना मंत्रालय के एडिशनल डायरेक्टर जनरल के मातहत होने लगा। जो सीधी रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री को देते और जो 200 लोग देश के तमाम राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की मॉनिटरिंग करते हैं वह तीन स्तर पर होता।

150 लोगों की टीम सिर्फ़ मॉनिटरिंग करती है, 25 मॉनिटरिंग की गई रिपोर्ट को सरकार के अनुकूल एक शक्ल देती है और बाकी 25 फाइनल मॉनिटरिंग के कंटेंट की समीक्षा करते हैं।

उनकी इस रिपोर्ट पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तीन डिप्टी सचिव स्तर के अधिकारी रिपोर्ट तैयार करते और फाइनल रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री के पास भेजी जाती, जिनके ज़रिये पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी सक्रिय होते और न्यूज़ चैनलों के संपादकों को दिशा निर्देश देते रहते कि क्या करना है, कैसे करना है।

और कोई संपादक जब सिर्फ़ ख़बरों के लिहाज़ से चैनल को चलाने की बात कहता तो चैनल के प्रोपराइटर से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय या पीएमओ के अधिकारी संवाद कायम करते बनाते।

दवाब बनाने के लिए मॉनिटरिंग की रिपोर्ट को नत्थी कर फाइल भेजते और फाइल में इसका ज़िक्र होता कि आख़िर कैसे प्रधानमंत्री मोदी की 2014 में किए गए चुनावी वादे से लेकर नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक या जीएसटी को लागू करते वक़्त दावों भरे बयानों को दोबारा दिखाया जा सकता है।

या फिर कैसे मौजूदा दौर की किसी योजना पर होने वाली रिपोर्ट में प्रधानमंत्री के पुराने दावे का ज़िक्र किया जा सकता है।

दरअसल, मोदी सत्ता की सफलता का नज़रिया ही हर तरीके से रखा जाता रहा है। इसके लिए ख़ासतौर से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से लेकर पीएमओ के दर्जन भर अधिकारी पहले स्तर पर काम करते हैं।

दूसरे स्तर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्री का सुझाव होता है, जो एक तरह का निर्देश होता है और तीसरे स्तर पर बीजेपी का लहज़ा, जो कई स्तर पर काम करता है। मसलन अगर कोई चैनल सिर्फ़ मोदी सत्ता की सकारात्मकता को नहीं दिखाता है या कभी-कभी नकात्मक ख़बर करता है या फिर तथ्यों के सहारे मोदी सरकार के सच को झूठ क़रार देता है तो फिर बीजेपी के प्रवक्ताओं को चैनल में भेजने पर पाबंदी लग जाती है।

यानी न्यूज़ चैनल पर होने वाली राजनीतिक चर्चा में बीजेपी के प्रवक्ता नहीं आते हैं। एबीपी पर ये शुरुआत जून के आख़री हफ्ते से ही शुरू हो गई। यानी बीजेपी प्रवक्ताओं ने चर्चा में आना बंद कर दिया।

दो दिन बाद से बीजेपी नेताओं ने चैनल को बाईट देना बंद कर दिया और जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी के मन का बात का सच मास्टरस्ट्रोक में दिखाया गया उसके बाद से बीजेपी के साथ-साथ आरएसएस से जुड़े उनके विचारकों को भी एबीपी न्यूज़ चैनल पर आने से रोक दिया गया।

तो मन की बात के सच और उसके बाद के घटनाक्रम को समझ उससे पहले ये भी जान लें कि मोदी सत्ता पर कैसे बीजेपी का पैरेंट संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी निर्भर हो चला है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण 9 जुलाई 2018 को तब नज़र आया जब शाम चार बजे की चर्चा के एक कार्यक्रम के बीच में ही संघ के विचारक के तौर पर बैठे एक प्रोफेसर का मोबाइल बजा और उधर से कहा गया कि वह तुरंत स्टुडियो से बाहर निकल आएं और वह शख़्स आन एयर कार्यक्रम के बीच ही उठ कर चल पड़ा।

फोन आने के बाद उसके चेहरे का हावभाव ऐसा था मानो उसके कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है या कहें बेहद डरे हुए शख़्स का जो चेहरा हो सकता है वह उस वक़्त में नज़र आ गया।

पर बात इससे भी बनी नहीं क्योंकि इससे पहले जो लगातार ख़बरें चैनल पर दिखायी जा रही थीं उसका असर देखने वालों पर क्या हो रहा है और बीजेपी के प्रवक्ता चाहे चैनल पर न आ रहे हों पर ख़बरों को लेकर चैनल की टीआरपी बढ़ने लगी और इस दौर में टीआरपी की जो रिपोर्ट 5 और 12 जुलाई को आई उसमें एबीपी न्यूज़ देश के दूसरे नंबर का चैनल बन गया।

और ख़ास बात तो ये भी है कि इस दौर में ‘मास्टरस्ट्रोक’ में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट झारखंड के गोड्डा में लगने वाले थर्मल पावर प्रोजेक्ट पर की गई। चूंकि ये थर्मल पावर तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखकर ही नहीं बन रहा है बल्कि ये अडानी ग्रुप का है और पहली बार उन किसानों का दर्द इस रिपोर्ट के ज़रिये उभरा कि अडानी कैसे प्रधानमंत्री मोदी के क़रीब है तो झारखंड सरकार ने नियम बदल दिए और किसानों को धमकी दी जाने लगी कि अगर उन्होंने अपनी ज़मीन थर्मल पावर के लिए नहीं दी तो उनकी हत्या कर दी जाएगी।

एक किसान ने बाकायदा कैमरे पर कहा, ‘अडानी ग्रुप के अधिकारी ने धमकी दी है ज़मीन नहीं दोगे तो ज़मीन में गाड़ देंगे। पुलिस को शिकायत किए तो पुलिस बोली बेकार है शिकायत करना। ये बड़े लोग हैं। प्रधानमंत्री के क़रीबी हैं।’

इस दिन के कार्यक्रम की टीआरपी बाकी के औसत मास्टरस्ट्रोक से पांच पॉइंट ज़्यादा थी। यानी एबीपी के प्राइम टाइम (रात 9-10 बजे) में चलने वाले मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी जो 12 थी उस अडानी वाले कार्यक्रम वाले दिन 17 हो गई।

यानी तीन अगस्त को जब संसद में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने मीडिया पर बंदिश और एबीपी न्यूज़ को धमकाने और पत्रकारों को नौकरी से निकलवाने का ज़िक्र किया तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने कह दिया, ‘चैनल की टीआरपी ही मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम से नहीं आ रही थी और उसे कोई देखना ही नहीं चाहता था तो चैनल ने उसे बंद कर दिया।’

तो असल हालात यहीं से निकलते हैं क्योंकि एबीपी की टीआरपी अगर बढ़ रही थी, उसका कार्यक्रम मास्टरस्ट्रोक लोकप्रिय भी हो रहा था और पहले की तुलना में टीआरपी भी अच्छी-ख़ासी शुरुआती चार महीनों में ही देने लगा था (मास्टरस्ट्रोक से पहले ‘जन गण मन’ कार्यक्रम चला करता था जिसकी औसत टीआरपी 7 थी, मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी 12 हो गई)।

यानी मास्टर स्ट्रोक की ख़बरों का मिज़ाज़ मोदी सरकार की उन योजनाओं या कहें दावों को ही परखने वाला था जो देश के अलग-अलग क्षेत्रों से निकल कर रिपोर्टरों के ज़रिये आती थी और लगातार मास्टरस्ट्रोक के ज़रिये ये भी साफ़ हो रहा था कि सरकार के दावों के भीतर कितना खोखलापन है और इसके लिए बाकायदा सरकारी आंकड़ों के अंतर्विरोध को ही आधार बनाया जाता था।

तो सरकार के सामने ये संकट भी उभरा कि जब उनके दावों को परखते हुए उनके ख़िलाफ़ हो रही रिपोर्ट को भी जनता पसंद करने लगी है और चैनल की टीआरपी भी बढ़ रही है तो फिर आने वाले वक़्त में दूसरे चैनल क्या करेंगे?

क्योंकि भारत में न्यूज़ चैनलों के बिज़नेस का सबसे बड़ा आधार विज्ञापन है और विज्ञापन को मापने के लिए संस्था बार्क की टीआरपी रिपोर्ट है और अगर टीआरपी ये दिखलाने लगे कि मोदी सरकार की सफलता को ख़ारिज करती रिपोर्ट जनता पसंद कर रही है तो फिर वह न्यूज़ चैनल जो मोदी सरकार के गुणगान में खोये हुए हैं उनके सामने साख़ और बिज़नेस यानी विज्ञापन दोनों का संकट होगा।

तो बेहद समझदारी के साथ चैनल पर दबाव बढ़ाने के लिए दो कदम सत्ताधारी बीजेपी के तरफ़ से उठे। पहला देशभर में एबीपी न्यूज़ का बायकट हुआ और दूसरा एबीपी का जो भी सालाना कार्यक्रम होता है जिससे चैनल की साख़ भी बढ़ती है और विज्ञापन के ज़रिये कमाई भी होती है, मसलन एबीपी न्यूज़ चैनल के शिखर सम्मेलन कार्यक्रम में सत्ता विपक्ष के नेता-मंत्री पहुंचते और जनता के सवालों का जवाब देते तो उस कार्यक्रम से बीजेपी और मोदी सरकार दोनों ने हाथ पीछे कर लिए। यानी कार्यक्रम में कोई मंत्री नहीं जाएगा।

ज़ाहिर है जब सत्ता ही नहीं होगी तो सिर्फ़ विपक्ष के आसरे कोई कार्यक्रम कैसे हो सकता है। यानी हर न्यूज़ चैनल को साफ़ संदेश दे दिया गया कि विरोध करेंगे तो चैनल के बिज़नेस पर प्रभाव पड़ेगा।

यानी चाहे-अनचाहे मोदी सरकार ने साफ़ संकेत दिए कि सत्ता अपने आप में बिज़नेस है और चैनल भी बिना बिज़नेस ज़्यादा चल नहीं पाएगा। पर पहली बार एबीपी न्यूज़ चैनल पर असर डालने के लिए या कहें कहीं सारे चैनल मोदी सरकार के गुणगान को छोड़कर ग्राउंड ज़ीरो से ख़बरें दिखाने की दिशा में बढ़ न जाएं, उसके लिए शायद दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र का ही गला घोंटने की कार्यवाही सत्ता ने शुरू की।

यानी इमरजेंसी थी तब मीडिया को एहसास था कि संवैधानिक अधिकार समाप्त है। पर यहां तो लोकतंत्र का राग है और 20 जून को प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये किसान लाभार्थियों से की।

उस बातचीत में सबसे आगे छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले के कन्हारपुरी गांव में रहने वाली चंद्रमणि कौशिक थीं। उनसे जब प्रधानमंत्री ने कमाई के बारे में पूछा तो बेहद सरल तरीके से चंद्रमणि ने बताया कि उसकी आय कैसे दोगुनी हो गई। आय दुगुनी हो जाने की बात सुनकर प्रधानमंत्री खुश हो गए, खिलखिलाने लगे, क्योंकि किसानों की आय दोगुनी होने का लक्ष्य प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2022 में रखा है।

पर लाइव टेलीकास्ट में कोई किसान कहे कि उसकी आय दोगुनी हो गई तो प्रधानमंत्री का खुश होना तो बनता है। पर रिपोर्टर-संपादक के दृष्टिकोण से हमें ये सच पचा नहीं क्योंकि छत्तीसगढ़ यूं भी देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है फिर कांकेर ज़िला, जिसके बारे में सरकारी रिपोर्ट ही कहती है कि जो अब भी कांकरे के बारे में सरकारी वेबसाइट पर दर्ज है कि ये दुनिया के सबसे पिछड़े इलाके यानी अफ्रीका या अफगानिस्तान की तरह है।

ऐसे में यहां की कोई महिला किसान आय दोगुनी होने की बात कह रही है तो रिपोर्टर को ख़ासकर इसी रिपोर्ट के लिए वहां भेजा गया। 14 दिन बाद 6 जुलाई को जब ये रिपोर्ट दिखायी गई कि कैसे महिला को दिल्ली से गए अधिकारियों ने ट्रेनिंग दी कि उसे प्रधानमंत्री के सामने क्या बोलना है, कैसे बोलना है और कैसे आय दुगुनी होने की बात कहनी है।

इस रिपोर्ट को दिखाये जाने के बाद छत्तीसगढ़ में ही ये सवाल होने लगे कि कैसे चुनाव जीतने के लिए छत्तीसगढ़ की महिला को ट्रेनिंग दी गई। (छत्तीसगढ़ में पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव है) यानी इस रिपोर्ट ने तीन सवालों को जन्म दे दिया।

पहला, क्या अधिकारी प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए ये सब करते हैं। दूसरा, क्या प्रधानमंत्री चाहते हैं कि सिर्फ़ उनकी वाहवाही हो तो झूठ बोलने की ट्रेनिंग दी जाती है। तीसरा, क्या प्रचार प्रसार का यही तंत्र ही है जो चुनाव जीता सकता है।

हो जो भी पर इस रिपोर्ट से आहत मोदी सरकार ने एबीपी न्यूज़ चैनल पर सीधा हमला ये कहकर शुरू किया कि जानबूझकर ग़लत और झूठी रिपोर्ट दिखायी गई। और बाकायदा सूचना एवं प्रसारण मंत्री समेत तीन केंद्रीय मंत्रियों ने एक सरीखे ट्वीट किए और चैनल की साख़ पर ही सवाल उठा दिए। ज़ाहिर है ये दबाव था। सब समझ रहे थे।

ऐसे में तथ्यों के साथ दोबारा रिपोर्ट फाइल करने के लिए जब रिपोर्टर ज्ञानेंद्र तिवारी को भेजा गया तो गांव का नज़ारा ही कुछ अलग हो गया। मसलन, गांव में पुलिस पहुंच चुकी थी। राज्य सरकार के बड़े अधिकारी इस भरोसे के साथ भेजे गए थे कि रिपोर्टर दोबारा उस महिला तक पहुंच न सके।

पर रिपोर्टर की सक्रियता और भ्रष्टाचार को छिपाने पहुंचे अधिकारी या पुलिसकर्मियों में इतना नैतिक बल न था या वह इतने अनुशासन में रहने वाले नहीं थे कि रात तक डटे रहते. दिन के उजाले में खानापूर्ति कर लौट आए।

तो शाम ढलने से पहले ही गांव के लोगों ने और दोगुनी आय कहने वाली महिला समेत उनके साथ काम करने वाली 12 महिलाओं के समूह ने चुप्पी तोड़कर सच बता दिया कि हालत तो और खस्ता हो गई है।

9 जुलाई को इस रिपोर्ट के ‘सच’ शीर्षक के प्रसारण के बाद सत्ता-सरकार की खामोशी ने संकेत तो दिए कि वह कुछ करेगी और उसी रात सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाले न्यूज़ चैनल मॉनिटरिंग की टीम में से एक शख़्स ने फोन से जानकारी दी कि आपके मास्टरस्ट्रोक चलने के बाद से सरकार में हड़कंप मचा हुआ है।

बाकायदा एडीजी को सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने हड़काया है कि क्या आपको अंदेशा नहीं था कि एबीपी हमारे ट्वीट के बाद भी रिपोर्ट फाइल कर देता है। अगर ऐसा हो सकता है तो हम पहले ही नोटिस भेज देते जिससे रिपोर्ट के प्रसारण से पहले उन्हें हमें दिखाना पड़ता।

ज़ाहिर है जब ये सारी जानकारी नौ जुलाई को सरकारी मॉनिटरिंग करने वाले सीनियर मॉनिटरिंग का पद संभाले शख़्स ने दी तो मुझे पूछना पड़ा कि क्या आपको नौकरी का ख़तरा नहीं है जो आप हमें सारी जानकरी दे रहे हैं।

तो उस शख्स ने साफ़ तौर पर कहा कि 200 लोगों की टीम है, जिसकी भर्ती ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड करती है। छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर रखती है चाहे आपको कितने भी बरस काम करते हुए हों। छुट्टी की कोई सुविधा है नहीं। मॉनिटरिंग करने वालों को 28,635 रुपये मिलते हैं तो सीनियर मॉनिटरिंग करने वाले को 37,350 रुपये और कंटेट पर नज़र रखने वालों को 49,500 रुपये मिलते हैं। इतने वेतन की नौकरी जाए या रहे फ़र्क़ क्या पड़ता है।

पर सच तो यही है कि प्राइम टाइम के बुलेटिन पर नज़र रखने वालों को यही रिपोर्ट तैयार करनी होती है कितना वक़्त आपने प्रधानमंत्री मोदी को दिखाया। जो सबसे ज़्यादा दिखाता है उसे सबसे ज़्यादा अच्छा माना जाता है।

हम मास्टरस्ट्रोक में प्रधानमंत्री मोदी को तो ख़ूब दिखाते हैं इस पर लगभग हंसते हुए उस शख़्स ने कहा आपके कंटेंट पर अलग से एक रिपोर्ट तैयार होती है और आज जो आपने दिखाया है उसके बाद तो कुछ भी हो सकता है। बस सचेत रहिएगा।

यह कहकर उसने तो फोन काट दिया तो मैं भी इस बारे में सोचने लगा। इसकी चर्चा चैनल के भीतर हुई भी पर ये किसी ने नहीं सोचा था कि हमला तीन स्तर पर होगा और ऐसा हमला होगा कि लोकतंत्र टुकुर-टुकुर देखता रह जाएगा क्योंकि लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र का गला घोटा जाएगा।

अगले ही दिन से जैसे ही रात के नौ बजे एबीपी न्यूज़ चैनल का सैटेलाइट लिंक अटकने लगा और नौ बजे से लेकर रात दस बजे तक कुछ इस तरह से सैटेलाइट की डिस्टरबेंस रही कि कोई भी मास्टरस्ट्रोक देख ही न पाए या देखने वाला चैनल बदल ही ले और दस बजते ही चैनल फिर ठीक हो जाता।

ज़ाहिर है ये चैनल चलाने वालों के लिए किसी झटके से कम नहीं था। ऐसे में चैनल के प्रोपराइटर व एडिटर-इन-चीफ ने तमाम टेक्नीशियंस को लगाया कि ये क्यों हो रहा है। पर सेकेंड भर के लिए किसी टेलीपोर्ट से एबीपी सैटेलाइट लिंक पर फायर होता और जब तक एबीपी के टेक्नीशियन एबीपी का टेलीपोर्ट बंद कर पाते तब तक पता नहीं कहां से फायर हो रहा है तब तक उस टेलीपोर्ट के मूवमेंट होते और वह फिर चंद मिनट में सेकेंड भर के लिए दोबारा टेलीपोर्ट से फायर करता।

यानी औसतन 30 से 40 बार एबीपी के सैटेलाइट लिंक पर ही फायर कर डिस्टरबेंस पैदा की जाती और तीसरे दिन सहमति यही बनी कि दर्शकों को जानकारी दे दी जाए।

19 जुलाई को सुबह से ही चैनल पर ज़रूरी सूचना कहकर चलाना शुरू किया गया, ‘पिछले कुछ दिनों से आपने हमारे प्राइम टाइम प्रसारण के दौरान सिग्नल को लेकर कुछ रुकावटें देखी होंगी। हम अचानक आई इन दिक्कतों का पता लगा रहे हैं और उन्हें दूर करने की कोशिश में लगे हैं। तब तक आप एबीपी न्यूज़ से जुड़े रहें।’

ये सूचना प्रबंधन के मशविरे से आन एयर हुई पर इसे आन एयर करने के दो घंटे बाद ही यानी सुबह 11 बजते-बजते हटा लिया गया। हटाने का निर्णय भी प्रबंधन का ही रहा।

यानी दबाव सिर्फ़ ये नहीं कि चैनल डिस्टर्ब होगा बल्कि इसकी जानकारी भी बाहर नहीं जानी चाहिए यानी मैनेजमेंट कहीं साथ खड़ा ना हो।

और इसी के समानांतर कुछ विज्ञापनदाताओं ने विज्ञापन हटा लिए या कहें रोक लिए। मसलन सबसे बड़ा विज्ञापनदाता जो विदेशी ताकतों से स्वदेशी ब्रांड के नाम पर लड़ता है और अपने सामान को बेचता है उसका विज्ञापन झटके में चैनल के स्क्रीन से गायब हो गया।

फिर अगली जानकारी ये भी आने लगी कि विज्ञापनदाताओं को भी अदृश्य शक्तियां धमका रही हैं कि वे विज्ञापन देना बंद कर दें। यानी लगातार 15 दिन तक सैटेलेइट लिंक में दख़ल और सैटेलाइट लिंक में डिस्टरबेंस का मतलब सिर्फ़ एबीपी का राष्ट्रीय हिंदी न्यूज़ चैनल भर ही नहीं बल्कि चार क्षेत्रीय भाषा के चैनल भी डिस्टर्ब होने लगे और रात नौ से दस बजे कोई आपका चैनल न देख पाए तो मतलब है जिस वक़्त सबसे ज़्यादा लोग देखते हैं उसी वक़्त आपको कोई नहीं देखेगा।

यानी टीआरपी कम होगी ही। यानी मोदी सरकार के गुणगान करने वाले चैनलों के लिए राहत कि अगर वह सत्तानुकूल ख़बरों में खोए हुए हैं तो उनकी टीआरपी बनी रहेगी और जनता के लिए सत्ता ये मैसेज दे देगी कि लोग तो मोदी को मोदी के अंदाज़ में सफल देखना चाहते हैं।

जो सवाल खड़ा करते हैं उसे जनता देखना ही नहीं चाहती। यानी सूचना एवं प्रसारण मंत्री को भी पता है कि खेल क्या है तभी तो संसद में जवाब देते वक़्त वह टीआरपी का ज़िक्र करने से चूके पर स्क्रीन ब्लैक होने से पहले टीआरपी क्यों बढ़ रही थी इस पर कुछ नहीं बोले।

ख़ैर ये पूरी प्रक्रिया है जो चलती रही और इस दौर में कई बार ये सवाल भी उठे कि एबीपी को ये तमाम मुद्दे उठाने चाहिए। मास्टरस्ट्रोक के वक़्त अगर सैटेलाइट लिंक ख़राब किया जाता है तो कार्यक्रम को सुबह या रात में ही रिपीट टेलीकास्ट करना चाहिए।

पर हर रास्ता उसी दिशा में जा रहा था जहां सत्ता से टकराना है या नहीं और खामोशी हर सवाल का जवाब ख़ुद-ब-खुद दे रही थी। तो पूरी लंबी प्रक्रिया का अंत भी कम दिलचस्प नहीं है क्योंकि एडिटर-इन-चीफ यानी प्रोपराइटर या कहें प्रबंधन जब आपके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए कि बताइए करें क्या?

इन हालात में आप ख़ुद क्या कर सकते हैं… छुट्टी पर जा सकते हैं… इस्तीफ़ा दे सकते हैं। और कमाल तो ये है कि इस्तीफ़ा देकर निकले नहीं कि पतजंलि का विज्ञापन लौट आया।

मास्टरस्ट्रोक में भी विज्ञापन बढ़ गया। 15 मिनट का विज्ञापन जो घटते-घटते तीन मिनट पर आ गया था वह बढ़कर 20 मिनट हो गया। दो अगस्त को इस्तीफ़ा हुआ और दो अगस्त की रात सैटेलाइट भी संभल गया। और काम करने के दौर में जिस दिन संसद के सेंट्रल हाल में कुछ पत्रकारों के बीच एबीपी चैनल को मज़ा सिखाने की धमकी देते हुए पुण्य प्रसून ख़ुद को क्या समझता है कहा गया।

उससे दो दिन पहले का सच और एक दिन बाद का सच ये भी है कि रांची और पटना में बीजेपी का सोशल मीडिया संभालने वालों को बीजेपी अध्यक्ष निर्देश देकर आए थे कि पुण्य प्रसून को बख्शना नहीं है। सोशल मीडिया से निशाने पर रखे और यही बात जयपुर में भी सोशल मीडिया संभालने वालों को कही गई।

पर सत्ता की मुश्किल यह है कि धमकी, पैसे और ताक़त की बदौलत सत्ता से लोग जुड़ तो जाते है पर सत्ताधारी के इस अंदाज़ में ख़ुद को ढाल नहीं पाते तो रांची-पटना-जयपुर से बीजेपी के सोशल मीडिया वाले जानकारी देते रहे आपके ख़िलाफ़ अभी और ज़ोऱ-शोर से हमला होगा।

तो फिर आख़िरी सवाल जब खुले तौर पर सत्ता का खेल हो रहा है तो फिर किस एडिटर गिल्ड को लिखकर दें या किस पत्रकार संगठन से कहें संभल जाओ। सत्तानुकूल होकर मत कहो शिकायत तो करो फिर लड़ेंगे। जैसे एडिटर गिल्ड नहीं बल्कि सचिवालय है और संभालने वाले पत्रकार नहीं सरकारी बाबू हैं।

तो गुहार यही है, लड़ो मत पर दिखायी देते हुए सच को देखते वक़्त आंखों पर पट्टी तो न बांधो।