क्यों न काला दिवस के रूप में मनाया जाए प्रेस दिवस

फोर्थ पिलर टीम। हर वर्ष 16 नवंबर को मनाए जाने वाले राष्ट्रीय प्रेस दिवस को काला दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। मेरे कई साथी मीडिया समूह में मालिकान और संपादकों की चाटुकारिता में लगे हैं। वे निश्चित रूप से मीडिया की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रहे हैं। उनमें कुछ तो मुझे नकारात्मक सोच का व्यक्ति बताते हैं। मैं उनसे पूछता हूं कि प्रेस दिवस पर क्या लिखूं। क्या यह लिख दूं कि मीडिया घराने हर उस कसौटी पर खरे उतर रहे हैं, जिसके लिए उनका गठन किया गया था। नहीं न ?

तो फिर नकारात्मक तो लिखना ही पड़ेगा। प्रेस का गठन समाज की समस्याओं, बुराइयों को जनता के सामने लिए किया गया था। कमजोर, जरूरमंद की आवाज बनने के लिए किया गया था। नौकरशाह, पूंजीपतियों और राजनेताओं की निरंकुशता पर अंकुश रखने के लिए किया गया था। वही प्रेस आज नौकरशाह, पूंजपीतियों और राजनेताओं की रखैल की तरह काम कर रहा है।

कहने को तो देश में अनगिनत प्रेस क्लब हैं। प्रेस परिषद हैं। पर ये सब संगठन बस शाम को दारू पीकर बकवास करने तक सिमट गए हैं। पिछले दिनों मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई के लिए कई स्वाभिमानी मीडियाकर्मियों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पक्ष में मोर्चा खोला। उन कर्मियों में से कितने को टर्मिनेट कर दिया गया। कितनों के दूर दराज ट्रांसफर कर दिए गए। यही मीडियाकर्मी मीडिया घरानों के दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। मीडिया हाउसों में काम कर रहे मीडियाकर्मियों का शोषण किया जा रहा है।

कहां हैं प्रेस क्लब ? कहां है प्रेस परिषद ? कहां है प्रेस की जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही वाले लोग? कहना गलत न होगा कि देश में यदि कहीं पर सबसे अधिक शोषण, दमन और उत्पीड़न है तो वह प्रेस ही है। जो मीडियाकर्मी दूसरों पर हो रहे अत्याचार को सामने लाते हैं, वही अपने साथ हो रहे अत्याचार को मूक समर्थन दे रहे है। यही नहीं, वे मीडिया मालिकों के हित साधने के साधन मात्र बन कर रह गए हैं। शायद यही वजह है कि वे मीडिया की जिम्मेदारियों तिलांजलि दे रहे हैं।

प्रेस के गठन की बात करें तो प्रथम प्रेस आयोग ने हमारे देश में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एवं पत्रकारिता में उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से एक प्रेस परिषद की कल्पना की थी। परिणाम स्वरूप 4 जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई। उसने 16 नंवबर 1966 से अपना विधिवत कार्य शुरू किया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाता है।

विश्व में लगभग 50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिषद हैं। भारत में प्रेस को वाचडॉग एवं प्रेस परिषद इंडिया को मोरल वाचडॉग कहा गया है। क्या ये हैं ? मीडिया को समाज का दर्पण एवं दीपक माना जाता है। क्या है ? चाहे समाचारपत्र हों या समाचार चैनल, उन्हें मूलत: समाज का दर्पण माना जाता है। इस दर्पण का काम है समाज की हू-ब-हू तस्वीर पेश करे। क्या यह तस्वीर पेश हो रही है?

कहना गलत न होगा कि गलत कामों पर पर्दा डालकर गलत काम करने वालों का महिमामंडन करना प्रेस का काम हो गया है। खोजी पत्रकारिता के नाम पर पीली व नीली पत्रकारिता न जाने कितने पत्रकारों के गुलाबी जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। खुद भारतीय प्रेस परिषद ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में प्रेस ने ज्यादा गलतियां की हैं। अधिकारियों की तुलना में प्रेस के खिलाफ अधिक शिकायतें दर्ज हैं।

पत्रकारिता आजादी से पहले एक मिशन थी। आजादी के बाद यह एक व्यवसाय बन गई। इसमें मैनेजरों के रूप में काम करने वाले संपादकों, पत्रकारों का बहुत बड़ा योगदान है। यदि आपातकाल की बात छोड़ दें तो पत्रकारिता की ओर से भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई बड़ा अभियान नहीं छेड़ा गया। बल्कि पत्रकारिता खुद भ्रष्टाचार में लिप्त है। वजह जो भी हो, प्रेस अपनी जिम्मेदारियों और जवाबदेही से नहीं बच सकता।

पुलिस ही सुरक्षित नहीं तो आप…?

श्रीकांत सिंह। मीडिया संसार और प्रदूषण। मीडिया से कुछ लोग डरते हैं। लेकिन प्रदूषण मीडिया से नहीं डरा। बड़ी मुश्किल है। कोई किसी से डरता ही नहीं। यह अलग बात है कि दिल्ली में पुलिसवाले वकीलों से डर गए हैं। गैरकानूनी काम करने वालों को वकीलों से डरना ही चाहिए। लेकिन जितना पुलिसवाले डर गए हैं, उतना नहीं। मैंने अपने मुकदमे की पैरवी के लिए अभी कोई वकील नहीं किया है। पर अब पुनर्विचार करना होगा। वकील तो टू इन वन हैं। कानून के रक्षक भी, सहायक भी। वकीलों और पुलिस की झड़प के बाद प्रदूषण भी भयभीत लगता है।

दिल्ली में वकीलों और पुलिस की झड़प

जी हां। दिल्ली में वकीलों और पुलिस की झड़प से बवाल मच गया है। अब कानून के रक्षक और सहायक दोनों सुरक्षा मांग रहे हैं। आपको याद होगा कि इससे पहले मॉब लिंचिंग से कुछ खास लोग डर गए थे। उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह दी जा रही थी। यह बात मेरी समझ से बाहर है कि वकीलों और पुलिस को क्या सलाह दूं ? वकीलों को सलाह दे नहीं सकता, क्योंकि अपने मुकदमे में उनसे खुद सलाह ले रहा हूं। पुलिस मेरी सलाह मानती नहीं।

अपनी राम कहानी

इस संदर्भ में अपनी राम कहानी बताना जरूरी लगता है। बात 2015 की है। फरवरी में दैनिक जागरण के नोएडा कार्यालय डी 210, 211 सेक्टर 63 पर कंपनी के कुछ गुंडों ने मुझ पर हमला कर दिया था। मैंने 100 नंबर पर फोन करके पुलिस बुला ली। पुलिस मौके पर पहुंच भी गई। लेकिन मौके पर जब पुलिस को पता चला कि मामला दैनिक जागरण प्रबंधन के खिलाफ है तो वह बगले झांकने लगी।

एफआईआर तक दर्ज नहीं करती पुलिस

नियमानुसार 10 फरवरी 2015 को मैं पुलिस चौकी गया। मामला दर्ज नहीं किया गया। फिर नोएडा के फेस तीन थाने गया। मामला दर्ज नहीं किया गया। तत्कालीन सीओ टू श्रीमान डॉक्टर अनूप कुमार सिंह के पास गया। काम नहीं हुआ। फिर तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डॉक्टर प्रीतेंदर सिंह के पास गया। उन्होंने आखिर जांच शुरू करा दी। पुलिस ने मुझे और दैनिक जागरण के तत्कानीन एचआर प्रबंधक श्री रमेश कुमार कुमावत को बुला लिया। कुमावत जी सीधे और सरल इंसान ठहरे। उन्होंने पुलिस सच बता दिया। उस सच का आज तक मुझे कोई लाभ नहीं मिला। लेकिन कुमावत जी को सच की कीमत अपनी नौकरी गंवा कर जरूर चुकानी पड़ी। धीरे धीरे मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

जिलाधिकारी ने भी दे दी गोली

मैं चैन से कहां बैठने वाला था। पत्रकार जो ठहरा। मैंने गौतम बुद्ध नगर जिले के तत्कालीन जिलाधिकारी एनपी सिंह से बात की। उन्हें समझाने की कोशिश की कि जब शासन प्रशासन दैनिक जागरण जैसे शोषक, अत्याचारी, गुंडा मवालियों के समूह की सुरक्षा में लगा रहेगा, तो आम जनता को न्याय कैसे मिल पाएगा? खैर। उन्होंने भी मामले को डिप्लोमेटिक तरीके से टाल दिया। उस समय उत्तर प्रदेश में श्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी का शासन था। मुख्यमंत्री को कई पत्र लिखे, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। मैंने सोचा सरकार ही खराब है तो कुछ नहीं हो सकता।

काम न आया मृत्युंजय कुमार का रुतबा

वर्ष 2017 में भाजपा का डंका बजा। योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। इसी बीच मेरी मुलाकात श्री मृत्युंजय कुमार से हुई। बड़े ही सज्जन और क्रांतिकारी प्रेमी व्यक्ति। उनके रूप में मुझे पत्रकारिता का उज्ज्वल भविष्य नजर आने लगा। उन्होंने बेसहारा कर दिए गए पत्रकारों की बड़ी मदद की। शायद उनका पुण्य परिपक्व हो गया था। वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मीडिया सलाहकार बना दिए गए। अब मेरी उम्मीदों की कोई सीमा नहीं रह गई। बाद में पता चला कि हमने गलती क्या की थी? बागबां में अमिताभ बच्चन का संवाद याद आया। उम्मीद करनी ही नहीं चाहिए।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उम्मीद

लेकिन हमने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उम्मीद नहीं छोड़ी है। उनके जनसुनवाई उत्तर प्रदेश के पोर्टल पर लगातार अपनी शिकायत दर्ज करा रहा हूं। लेकिन पुलिसवाले लगातार झांसा भी दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के मुकाबले दिल्ली की जनसंख्या बहुत ही कम है। पुलिस पर बजट की बात करें तो दिल्ली कई गुना आगे है। आप गूगल करेंगे तो आंकड़ा मिल जाएगा। ऐसी दिल्ली की पुलिस जब सुरक्षा की गुहार लगा रही है तो उत्तर प्रदेश पुलिस का क्या हाल होगा।

सबसे बड़ा जनता का अभिशाप

उत्तर प्रदेश पुलिस मेरी सलाह माने न माने, उसकी मर्जी। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि नेशनल पुलिस कमीशन और प्रशासनिक सुधार आयोग के बारे में गूगल करके जरूर पढ़े। अगर पुलिस ऐसे ही अपने कर्म खराब करती रहेगी तो जनता के श्राप से बच नहीं पाएगी। जनता का अभिशाप बड़े बड़ों को धूल चटा देता है। अनायास ही डंडे से किसी निर्दोष का पिछवाड़ा लाल कर देने वाली पुलिस जब सुरक्षा की भीख मांगती है तो बहुत खूबसूरत नजर आती है।

अत्याचारियों पर कड़क हो पुलिस

लेकिन मेरी नजर में पुलिस की खूबसूरती कड़क होने में है। साहेब की चाय से भी ज्यादा कड़क। यह कड़क रवैया संजय गुप्ता जैसे अत्याचारियों पर शोभा देता है, किसी लाचार पर नहीं। इस आलेख में कोई ज्ञान नहीं है, दिल्ली पुलिस की हालत देखकर एक भावना जरूर उमड़ पड़ी है। आशा है मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी इस भावना को जरूर समझेंगे, क्योंकि वह योगी भी हैं।

सामने आया CCTV फुटेज-sabhar inkhabar

तो स्वार्थ सिद्धि कर रहा है मोदी विरोधी मीडिया भी

चरण सिंह राजपूत

नई दिल्ली। 17वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ लिया है। मोदी के पांच साल के शासन में संविधान और लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में पड़ गए हैं। इतना ही नहीं सामाजिक ताना-बाना भी बिखर रहा है। आर एस एस और भाजपा द्वारा बाकायदा मुहिम चला कर देश के अल्पसंख्यकों को डराया और अपमानित किया जा रहा है। मोदी सरकार बनते ही आरएसएस और सांप्रदायिक सोच के लोगों ने अपने एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया था। देश में मॉब लिंचिंग की कई घटनाएं हुईं।गोरक्षा के नाम पर हत्याएं हुईं। सरकार और सांप्रदायिक तत्वों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले कई लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी गई। यह माना जाता है कि जब देश पर गंभीर संकट होता है तो विपक्ष के साथ बुद्धिजीवी और मीडिया मिलकर उस सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं। उससे देश की साधारण जनता जागरूक होती है। लेकिन विपक्ष बिखरा हुआ है, बुद्धिजीवी गंभीर नहीं हैं और मीडिया बिका हुआ है। अपने को मोदी-विरोधी कहने वाला मीडिया भी ऐसा लगता है स्वार्थ सिद्धि में लगा हुआ है।

सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने कोई बड़ी मुहिम मोदी सरकार के खिलाफ नहीं चलाई। केजरीवाल ने तो यहाँ तक कह दिया कि मोदी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे दें तो वे लोकसभा चुनाव में मोदी का प्रचार करेंगे। कम्युनिस्ट केजरीवाल के साथ हैं। सामाजिक न्याय का दावा करने वाली पार्टियां भी सत्ता पर अपने परिवार का कब्ज़ा जमाए रखने की मुहिम में जुटी रहीं। इसका कारण है ये सभी पार्टियां और बुद्धिजीवी अपनी सत्ता की खिचड़ी नवउदारवाद की हांडी में पकाना चाहती हैं। संविधान की बात वे दिखावे के लिए करते हैं।   

पूरे देश में केवल सोशलिस्ट पार्टी ने मोदी शासन की अराजकता का निर्णायक विरोध किया इसमें दो राय नहीं कि सोशलिस्ट पार्टी को छोड़ कर पार्टी स्तर पर मोदी शासन की अराजकता का निर्णायक विरोध किसी पार्टी ने नहीं किया। क्योंकि वह विचारधारा के स्तर पर संविधान और समाजवाद की सच्ची समर्थक पार्टी है। नवउदारवादी नीतियों का पूर्ण रूप से विरोध करने वाली वह अकेली पार्टी है। समय-समय पर जारी सोशलिस्ट पार्टी के दस्तावेज और पूरे देश में चलने वाले कार्यक्रम इसका सबूत हैं। लेकिन कभीकभार हिंदी के कुछ अखबारों को छोड़ कर मुख्यधारा मीडिया सोशलिस्ट पार्टी के विचारों और गतिविधियों को कवर नहीं करते। अपने को मोदी-विरोधी बताने वाला मीडिया भी सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से आँख बंद किये रहता है।

सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष डॉ. प्रेम सिंह सरकार ने मॉब लिंचिंग के खिलाफ एक सप्ताह का  उपवास किया। जस्टिस राजेन्द्र सच्चर के आग्रह के बावजूद उन्होंने अपना उपवास नहीं तोड़ा। सोशलिस्ट पार्टी ने भारत छोड़ो दिवस 9 अगस्त को दिल्ली में मंडी हाउस से लेकर जंतर मंतर तक रैलियाँ निकालीं. जिनमें ‘संविधान विरोधी तत्व सत्ता छोड़ो’ और ‘शिक्षा और रोजगार दो वर्ना गद्दी छोड़ दो’ रैलियों में मैं शामिल था। दोनों रैलियाँ जबरदस्त थीं। शिक्षा के निजीकरण और भगवाकरण के खिलाफ यह पार्टी लगातार काम करती है। रेलवे के निजीकरण के विरोध में केवल सोशलिस्ट पार्टी ने दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में धरना-प्रदर्शन किया, ज्ञापन दिए। यह पार्टी हर साल 10 मई को 1857 के क्रांतिकारियों की याद में ‘कूचे-आज़ादी’ का आयोजन करती है। जहां दूसरे राजनीतिक दलों ने क्रांतिकारियों के बलिदान को भुला दिया है वहीं सोशलिस्ट पार्टी ने 1857  के स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हुए क्रांतिकारियों की याद में पिछले साल मेरठ से लेकर लालकिले तक यात्रा निकाली। यह पार्टी अपनी स्थापना के समय से हर साल राष्ट्रपति को ज्ञापन देकर बहादुरशाह ज़फर के अवशेष रंगून से भारत लाने की मांग करती है।

इस बारे में पार्टी के फॉउंडर सदस्य राजेन्द्र सच्चर और कुलदीप नैयर खुद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिले थे। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद सबसे पहले पहुंचकर पीड़ितों को ढांढस बंधाया। जब भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण की गिरफ्तारी हुई तो राजेन्द्र सच्चर ने उनकी पैरवी की पेशकश की। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के 10 साल होने पर केवल सोशलिस्ट पार्टी ने ही राष्ट्रीय संवाद का आवोजन किया। मतलब आज की तारीख में सोशलिस्ट पार्टी ही कारपोरेट पूंजीवाद का विकल्प समाजवादी विचारधारा को मान कर चलने वाली पार्टी है। बाकी सब पूंजीवाद की वकालत या मिलावट करने वाली पार्टियां हैं। लेकिन कोई अखबार या चैनल सोशलिस्ट पार्टी की गतिविधियों को कवर नहीं करता। पार्टी के अध्यक्ष डॉ. प्रेम सिंह का लेखन हम सबके सामने लगातार रहता ही है। प्रेम सिंह नवसाम्राज्यवादी शिकंजे की रग-रग के जानकार जनता के  बुद्धिजीवी हैं। मैंने कभी उन्हें किसी टीवी वार्ता में नहीं देखा। मुझे नहीं पता कि वे टीवी चेनलों पर खुद नहीं जाते या उन्हें बुलाया ही नहीं जाता?  

ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि गोदी मीडिया तो सोशलिस्ट पार्टी के कार्यक्रमों को तवज्जो नहीं देगा पर मोदी विरोधी मीडिया क्यों नहीं देता है? इसका कारण मेरे जैसे कार्यकर्ता और पत्रकार को यही लगता कि बड़ी पूँजी वाले मोदी-विरोधी मीडिया के भी अपने स्वार्थ हैं? कारपोरेट-कमुनल गठजोड़ की जगह समाजवाद की स्थापना करना उनका उद्देश्य नहीं है। मतलब देश और समाज पर जो संकट उससे उसका लेना देना नहीं है।

 मैंने कई बार मुस्लिम नेताओं को कहते सुना है कि जस्टिस राजेन्द्र सच्चर उनके लिए पैगम्बर साहब के बाद सबसे ज्यादा मान्य हैं। लेकिन मैंने कभी उन्हें सच्चर साहब की पार्टी को  समर्थन देते नहीं देखा? यह सब मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि सोशल एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों से लेकर मीडिया तक देश से विचार की राजनीति खत्म होने की बात करते हैं। चुनाव के समय लोगों को भी यह कहते सुना जा सकता है कि सभी दल लूटखसोट तक सिमट कर रह गए हैं।  मोदी सरकार बनने के बाद मीडिया पर सरकार की चाटूकारिता का आरोप सबसे ज्यादा लगा है। खुद मीडिया से जुड़े लोगों ने ये आरोप बड़ी स्पष्टता के साथ लगाए हैं। विपक्ष से लेकर मीडिया का एक तबका मोदी सरकार पर मॉब लिंचिंग, संविधान और लोकतंत्र को खत्म करने का आरोप लगातार लगाता रहा है। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को तहस नहस करने की बात की जा रही है।

मेरा अब तक का जो अध्ययन और अनुभव है उसके आधार पर कह सकता हूं कि हमारा संविधान और लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता पर निर्भर है और समाजवाद पर। यही वजह है कि मैं संविधान पर इतना जोर देता हूं ।

देख तेरे समाचार की हालत-1

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आपकी भावनाओं को भड़का कर कितना बड़ा खेल किया जा रहा है, इसका शायद आपको पता भी नहीं चलता होगा। इस खेल में सभी लगे हैं चाहे वे राजनीतिक दल हों या मीडिया वाले, बाजार के बाजीगर हों या उपभोक्ताओं की जमात। इसी खेल को समझने या समझाने के लिए हम फोर्थ पिलर पर नया कॉलम ‘देख तेरे समाचार’ की हालत शुरू कर रहे हैं।

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फोर्थपिलर टीम

आज हम जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले की चर्चा करेंगे। इस सिलसिले में पहली बात गौरतलब यह है कि खुफिया विभाग ने 8 फरवरी को ही अलर्ट जारी कर दिया था। बावजूद इसके, बटालियनों की टुकड़ी वहां से बिना जांच के गुजरी। इसे घोर लापरवाही कहा जाए या चुनावी राजनीति की साजिश, यह आपको तय करना है। हमारा काम तथ्यों का विश्लेशण करना है।

दूसरी बात यह कि बाजार की आपाधापी हमें किस प्रकार कुचल रही है, उसका सबसे बड़ा उदाहरण टीवी न्यूज चैनल हैं। वे अपनी टीआरपी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले पर तो इन टीवी चैनलों ने हद ही कर दी। वे लोगों की भावनाओं को कुछ इस तरह भड़काने लगे कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को एडवाइजरी जारी करनी पड़ी और चैनलों से सावधानी बरतने को कहना पड़ा।

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का कहना है कि ऐसी सामग्री से परहेज किया जाना चाहिए जो हिंसा भड़का सकती हो या राष्ट्रविरोधी भावना को बढ़ावा दे सकती हो। मंत्रालय की ओर से जारी एडवाइजरी में चैनलों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है कि ऐसी कोई भी सामग्री प्रसारित न हो जिससे केबल टेलीविजन नेटव‌र्क्स (रेगुलेशन) एक्ट के तहत निर्धारित प्रोग्राम एंड एडवर्टाइजिंग कोड का उल्लंघन होता हो। एडवाइजरी में सभी निजी चैनलों से इसका सख्ती से पालन सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया है।

आप जो प्रतिदिन न्यूज चैनल देखते हैं, उस पर गौर करें तो आपको पता चलेगा कि ये समाचार चैनल सिर्फ आपका समय बर्बाद करते हैं, उनसे आपको कोर्इ खास जानकारी नहीं मिलती। हां, आपकी भावनाओं को भड़का कर वे अपनी टीआरपी जरूर बढ़ा लेते हैं। इनके यहां न तो ढंग की पत्रकारिता होती है और न ही ढंग का स्टाफ रखा जाता है। अपना धंधा चमकाने के लिए किसी एक को मोटा पैसा देकर चैनल मालिक अयोग्य और सस्ते पत्रकारों की फौज खड़ी कर लेते हैं। इस फौज से स्वस्थ पत्रकारिता की उम्मीद करना बेमानी है।

इसी तरह की टीआरपी दौड़ का परिणाम है अरनब गोस्वामी का हिंदी न्यूज चैनल रिपब्लिक भारत उर्फ आर भारत। लांच होते ही टीआरपी दौड़ में छठें नंबर पर आ गया। हिंदू-मुस्लिम एजेंडे पर पत्रकारिता करते हुए जी न्यूज और सुदर्शन न्यूज चैनल को मात देने वाले आर भारत चैनल ने लगातार कांट्रोवर्सियल मुद्दे उठाए या खुद कांट्रोवर्सी क्रिएट की।

इससे हुआ ये कि दर्शक हिंदू या मुस्लिम में बंटकर इस चैनल को सराहते या गरियाते हुए देखता रहा। माना जा रहा है कि अगर लांच होते ही यह चैनल सातवें नंबर पर है तो जल्द ही यह कहीं नंबर एक या दो पर न नज़र आने लगे।

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार इसी सिलसिले में बार बार चेताते हैं कि-चैनल देखने की आदत लगाता है फार्मेट। आप कटेंट पर ज़ोर देकर लत छुड़ाएं… फार्मेट और कटेंट में अंतर होता है। फार्मेट होता है बक्सा, जो किसी खास म्यूज़िक और नाम से शुरू होता है। एंकर ऐसे आता है जैसे कोई मसीहा आ रहा हो। स्लो मोशन में। आने का रौब ऐसा कि जैसे महान लोकतंत्र अब अपने घुटनों से खड़ा होकर परचम बन जाएगा।

चुनाव आते ही या चुनाव के बग़ैर ही चैनलों की दुनिया में आप इस तरह के फार्मेट देखेंगे। कंटेंट एक ही है सबके पास। उसी कटेंट को अलग अलग फार्मेट में पेश किया जाता है ताकि आपको लगे कि आप कुछ नया और अलग देख रहे हैं। नया और अलग देखने की अति-चाहत आपको जंक फूड की तरफ ले जाती है। आप कब बर्गर गटक जाते हैं और कब फ्रेंचफ्राई तब तक पता नहीं चलता जब इससे होने वाली बीमारियां आपको नाज़ुक मोड़ पर पहुंचा देती हैं।

चैनलों में कटेंट ख़त्म हो गया है। फार्मेट भी ख़त्म हो गया है मगर फिर भी इसमें थोड़ा फर्क होता है। जैसे डिबेट आप स्टुडियो में करते हैं। वही चार फालतू लोग होते हैं। फिर स्टुडियो के दूसरे फार्मेट में होता है उसमें वही फालतू चार लोग बुलाए गए नौजवान वक्ताओं से घिरे होते हैं। घटिया किस्म के पत्रकारिता संस्थानों के मासूम बच्चों को ठगने के लिए वहां भेजा जाता है ताकि वे भविष्य में वैसा बनने की चाह में कुछ और पैसों को दांव पर लगा सकें। भ्रम पाल सके कि पत्रकार बन रहे हैं और भविष्य चुन रहे हैं।

आप जो भी न्यूज़ चैनल देखते हैं, जिसे भी पसंद करते हैं, आपका वक्त और पैसा लगता है। आप इन सवालों के साथ इन कार्यक्रमों को देखिए, सोचिए। चैनल बेशक चाहते हैं कि आप एक दर्शक के तौर पर उत्तेजित बातों के जाल में फंस जाएं ताकि आप मूल प्रश्न या गंभीर प्रश्न से कट जाएं। आपका सतही होना बहुत ज़रूरत है। इसलिए ये संघर्ष आपका है कि आप सतही होने से ख़ुद को बचाएं।

अब आप सोचिए। फालतू चार प्रवक्ताओं को लेकर हर घंटे एक नए एंकर के साथ एक नया शो करने से क्या यह बेहतर नहीं होता कि दो कार्यक्रम रिकार्ड कर लो और वही दिन भर दिखाते रहो। क्यों हर घंटे नए होने का झांसा दिया जाता है और आप झांसे में हर घंटे आते हैं?

(फिर कभी किसी समाचार के आचार पर विचार करेंगे)

मजीठिया : नई दुनिया जागरण को फिर भारी पड़ी चालाकी

अब श्रम न्यायालय ने लगाई पांच-पांच सौ की कॉस्ट

रतन भूषण की फेसबुक वाल से साभार।

हमने आपको पहले ही बताया था कि मध्यप्रदेश में श्रम न्यायालयों मे चल रहे मजीठिया के मामलों में नईदुनिया जागरण प्रबंधन की हर चाल उलटी पड़ रही है। इसका एक ओर ताजा मामला सामने आया है।
जानकारी के मुताबिक ग्वालियर श्रम न्यायालय में चल रहे मामले कूट परीक्षण तक पहुंच गए हैं, लेकिन प्रबंधन बार-बार बहाना बनाकर मामलों को लटकाना चाहता है। प्रबंधन के वकील लेबर कोर्ट में बहाना बनाकर भागते हैं।

पूर्व में जहां ग्वालियर हाईकोर्ट ने मामले में प्रबंधन को पांच-पांच हजार की कॉस्ट लगाई थी। इसमें सभी कर्मचारियों का प्रबंधन ने 09 अप्रैल को पांच-पांच हजार का नकद भुगतान कर दिया था। लेकिन 09 अप्रैल को राज्य अधिवक्ता संघ की हड़ताल के कारण मामले में कूट परीक्षण नहीं हो सका था और अगली तिथि 18 अप्रैल की निर्धारित हुई थी।

18 अप्रैल को कर्मचारी और उनके वकील पूरी तैयारी के साथ कूट परीक्षण के लिए श्रम न्यायालय पहुंचे थे। लेकिन प्रबंधन की ओर से एक जूनियर वकील कोर्ट में उपस्थित हुए और कूट परीक्षण के लिए अगली तारीख की मांग की।कर्मचारियों के वकील ने इस पर आपत्ति ली और माननीय न्यायाधीश महोदय को प्रबंधन की धूर्तता से अवगत कराया।

इस पर प्रबंधन के जूनियर वकील ने तर्क दिया कि उनके सीनियर वकील के यहां कोई कार्यक्रम है, इसलिए उन्हें अवसर दिया जाए। माननीय न्यायाधीश महोदय ने कर्मचारियों क े वकील की आपत्ति सुनने के बाद प्रबंधन के वकील से स्पष्ट पूछा कि वे केवल हां या न में ये बताएं कि आज कूट परीक्षण करेंगे या नहीं। इस पर प्रबंधन का वकील बगले झांकने लगा। बात बिगड़ती देख बाहर आकर उसने अपने आकाओं को कोर्ट के रुख से अवगत कराया।

इसके बाद सीनियर वकील भागे-भागे कोर्ट पहुंचे और उन्होंने भी तारीख देने की मांग की। इसके बाद पुन: न्यायाधीश महोदय ने कहा कि केवल अपना उत्तर हां या न में दें। इसके बाद जब प्रबंधन के वकील ने असमर्थता जताई तो माननीय न्यायाधीश महोदय ने प्रत्येक प्रकरण में 500-500 रुपए कॉस्ट लगा दी। साथ ही माननीय न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रकरण में माननीय उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों में सुनवाई हो रही है। इसलिए मामलों को तय समय में निपटाने के लिए अब डे टू डे सुनवाई की जाएगी। इसके बाद सभी प्रकरणों में दो दिन बाद की तारीख दे दी गई है।

सुप्रीम कोर्ट के कठघरे को है ‘जागरण’ के मालिकों का इंतजार!

दैनिक जागरण की ‘गुड़गोबर’ पत्रकारिता : आरोपमुक्त को लिखा ‘आतंकी वासिफ़’

MediaVigil से साभार।

लगता है कि दैनिक जागरण की तिजोरी के साथ ही उसके पापों का भी घड़ा भर गया है। उसने अपने कर्मठ कर्मचारियों के साथ जो अत्‍याचार किए हैं, उनका हिसाब बराबर करने का समय आ गया है। मालिक संजय गुप्‍ता के खाते में अच्‍छे दिनों का डिपाजिट सूख चुका है। एक अदृश्‍य कंगाली का शिकंजा उन पर कसने लगा है।

हिंदी का नंबर एक अख़बार दैनिक जागरण बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बारे में लिखते हुए कभी ‘क़ातिल’ ‘रंगदार’ या ‘तड़ीपार’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल नहीं करता, जबकि उन पर क़त्ल, फ़िरौती वसूलने से लेकर एक लड़की की अवैध जासूसी कराने तक के अरोप लगे थे। जागरण बिलकुल ठीक करता है क्योंकि अमित शाह को अदालत से ‘बरी’ कर दिया गया है।

लेकिन जब नाम अमित की जगह ‘वासिफ़’ हो तो जागरण पत्रकारिता के इस सामान्य सिद्धांत को ताक पर रख देता है। वरना अदालत से बरी कर दिए जाने के बावजूद वह कानपुर के वासिफ़ हैदर को बार-बार आतंकी न लिखता। उसे इसमें कुछ ग़लत नहीं लगा। लेकिन इस एक नंबरी अख़बार से मोर्चा लेने की वासिफ़ की ज़िद की वजह से आपराधिक मानहानि का एक अहम मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया। 3 अप्रैल को जस्टिस चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इसे गंभीर मसला मानते हुए शीघ्र सुनवाई के आदेश दिए।

जागरण के संपादक और प्रकाशक कठघरे में हैं। अदालत का रुख बता रहा है कि यह मामला बाक़ी मीडिया के लिए भी एक नज़ीर बन सकता है। वासिफ़ हैदर की कहानी भी सुन लीजिए। कानपुर निवासी वासिफ़ मेडिकल उपकरणों की सप्लाई करने वाली एक अमेरिकी मल्टीनेशनल, बैक्टन डिकिन्सन कंपनी में क्षेत्रीय बिक्री प्रबंधक के रूप में काम कर रहे थे जब 31 जुलाई 2001 को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी), दिल्ली पुलिस, स्पेशल सेल और स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) की टीमों ने उनका ‘अपहरण’ कर लिया। बम विस्फोट कराने से लेकर अवैध हथियारों तक के मामलों को कबूलने के लिए उन्हें ‘थर्ड डिग्री’ दी गई और ‘कबूलनामे’ का वीडियो भी बना लिया गया। इनमें एक मामला दिल्ली का भी था। ज़ाहिर है, चार बेटियों वाले वासिफ़ के परिवार पर कहर टूट पड़ा। पड़ोस ही नहीं पूरे कानपुर में उनके परिवार की थू-थू हुई।

लंबी जद्दोजहद के बाद अदालत से वे सभी मामलों में बरी हो गए। पूरी तरह निर्दोष साबित होने के बाद वे 12 अगस्त 2009 को जेल से बाहर आए। यानी बेगुनाह वासिफ़ की ज़िंदगी के आठ से ज़्यादा साल जेल की सलाखों के पीछे बीते।

जेल से निकलकर ज़िंदगी को पटरी पर लाना आसान नहीं था। बहरहाल, अदालत से मिला ‘निर्दोष होने’ का प्रमाणपत्र काम आया और धीर-धीरे वे समाज में स्वीकार किए जाने लगे। लेकिन करीब साल भर बाद जब 2010 में बनारस के घाट पर बम विस्फोट हुआ तो दैनिक जागरण ने एक ख़बर में इसका तार कानपुर से जोड़ते हुए लिखा कि ‘आतंकी वासिफ़’ पर नज़र रखी जा रही है। पता लगाने की कोशिश हो रही है कि वह किससे मिलता है, उसका ख़र्चा कैसे चलता है…वग़ैरह-वग़ैरह..।

जागरण कानपुर से ही शुरू हुआ अख़बार है और आज भी यह शहर उसका गढ़ है। ज़ाहिर है, इस अख़बार में ‘आतंकी’ लिखा जाना वासिफ़ के लिए सिर पर बम फूटने जैसा था। वे कहते रह गए कि अदालत ने उन्हें हर मामले में बरी कर दिया है, लेकिन अख़बार बार-बार उन्हें ‘आतंकी वासिफ़’ लिखता रहा। जो समाज थोड़ा क़रीब आया था, उसने फिर दूरी बना ली।

वासिफ़ के लिए यह आघात तो था, लेकिन उन्होंने भिड़ने की ठानी। उन्होंने 2011 में जागरण के ख़िलाफ़ स्पेशल सीजीएम कोर्ट में आपराधिक मानहानि का मुक़दमा दायर कर दिया। कोर्ट ने पुलिस को जाँच सौंपी तो पता चला कि वासिफ़ के आरोप सही हैं, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि इसके बाद अदालत तारीख़ पर तारीख़ देने लगी।

वासिफ़ ने तब हाईकोर्ट का रुख किया जहाँ मामले के जल्द निपटारे का निर्देश हुआ। इस पर मजिस्ट्रेट ने जागरण की यह दलील मानते हुए कि- वासिफ़ पर पहले आरोप थे और कुछ मुकदमे चल भी रहे हैं, लिहाज़ा आतंकी लिखकर कोई मानहानि नहीं की गई- याचिका को निरस्त कर दिया। जबकि हक़ीक़त यह थी कि वासिफ़ के ख़िलाफ़ कोई मामला दर्ज नहीं था और न ही कोई जाँच चल रही थी। वे सभी मामलों में बरी हो चुके थे।

वासिफ़ ने इसके ख़िलाफ़ पहले सेशन्स कोर्ट और फिर हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन हर जगह निराशा हाथ लगी। उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के पास भी अख़बार की शिकायत की थी लेकिन कुछ हल नहीं निकला। वासिफ़ ने मीडिया विजिल को बताया कि इसी निराशा के दौर में उनकी मुलाकात प्रशांत भूषण से हुई। उन्होंने मामले को समझा और केस दायर कर दिया। सुप्रीमकोर्ट ने 30 मार्च 2015 को जागरण के एडिटर संजय गुप्त, मैनेजिंग एडिटर महेंद्र गुप्त और प्रकाशक कृष्ण कुमार विश्नोई के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस मामले में नोटिस जारी कर दिया।

3 अप्रैल 2018 को इस मामले में एक बड़ा मोड़ आया जब जस्टिस चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने मामले को गंभीर माना। अदालत ने कहा कि इस मामले में क़ानून का बड़ा सवाल है, इसलिए इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता है।

अंग्रेज़ी वेबसाइट LIVELAW.IN  में छपी ख़बर के अनुसार वकील प्रशांत भूषण ने अदालत के सामने तर्क दिया कि यह मुद्दा सिर्फ किसी एक के निर्दोष होने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मामला कई मामलों में दोहराया गया एक बना बनाया पैटर्न है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। इसलिए अदालत को इस पर समग्र रूप से विचार करना चाहिए।

प्रशांत भूषण की टीम के सदस्य एडवोकेट गोविंद ने कहा-  ‘सवाल यह है कि एक अखबार या मीडिया हाउस किसी व्यक्ति विशेष को एक आतंकवादी के रूप में कैसे प्रचारित कर सकता है, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस व्यक्ति पर एक दफा आतंकवाद का झूठा आरोप लग चुका था। इस मसले पर कानून की धारा 499 और 500 से स्पष्ट है।’

अदालत ने मामले को गंभीर माना है। अगली सुनवाई जुलाई में होगी। उम्मीद है कि अदालत कुछ ऐसा आदेश ज़रूर देगी जिससे मीडिया आरोपितों और दोषियों में फ़र्क करने की तमीज़ वापस हासिल करने को मजबूर हो। बात निकली है तो दूर तलक जाने में ही सबकी भलाई है।

उन्‍हें नहीं दिखते दैनिक जागरण के दूसरे पाप

श्रीकांत सिंह।

ऐसे नेताओं को आप क्‍या कहेंगे, जिन्‍हें दैनिक जागरण के दूसरे पाप नहीं दिखते। ये नेता हैं- दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन और केजरीवाल की दुलत्‍ती खाकर बागी हुए कपिल मिश्रा। इन्‍हें पत्रकारिता पर उस समय संकट नहीं दिखा जब दैनिक जागरण अपने असहाय कर्मचारियों पर अत्‍याचार किए जा रहा था और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए आज भी पत्रकारों का हक मजीठिया वेज बोर्ड लागू नहीं कर रहा है। इस संदर्भ में दैनिक जागरण ने अपने 11 अप्रैल 2018 के अंक में एक खबर भी प्रकाशित की है, जिसकी कटिंग यहां संलग्‍न है।

जब आम आदमी पार्टी की सरकार के विधायकों ने दिल्ली विधानसभा में दैनिक जागरण में प्रकाशित कुछ खबरों पर आपत्ति जताई और मामले को विधानसभा की विशेषाधिकार समिति को सौंपने की मांग की तो उक्‍त सभी नेताओं को पत्रकारिता पर संकट नजर आने लगा। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष ने उनकी मांग को गंभीरता से लिया और मामले को विशेषाधिकार समिति को सौंप दिया है।

दैनिक जागरण में कार्यरत एक कर्मचारी ने नोएडा स्थित कार्यालय का पूरा सीन हमारे साथ शेयर किया जो इस प्रकार है-सुधीर मिश्रा एक चपरासी समेत दो लोगों को साथ लेकर 11 अप्रैल को ही कार्यालय में रातभर जमे रहे और सुबह नौ बजे तक कुछ कागजात की फोटो कॉपी निकालते रहे। लीगल स्‍टाफ के सदस्‍य मनोज दुबे और राजेंद्र दुबे अपने वकीलों के साथ नोएडा यूनिट के मीटिंग हाल में कंपनी के कई दिग्‍गजों मालिक संजय गुप्‍ता, मुख्‍य महाप्रबंधक नीतेंद्र श्रीवास्‍तव, राजनीतिक संपादक प्रशांत मिश्रा के साथ 12 अप्रैल को मीटिंग हाल में माथापच्‍ची करते रहे।

भयभीत मुद्रा बनाए स्‍थानीय संपादक विष्‍णु त्रिपाठी ने तो मीटिंग हाल में पहले ही पहुंच कर अपना स्‍थान ग्रहण कर लिया था। एसी चालू होने के बावजूद सभी के चेहरे पर पसीने की कुछ बूंदें नजर आ रही थीं। सभी इस बात से चिंतित थे कि कहीं दिल्‍ली विधानसभा की विशेषाधिकार समिति मालिक संजय गुप्‍ता को तलब न कर ले। हालत यह हो गई कि लेबर आफिस में 12 अप्रैल के एक मामले की सुनवाई में भी दैनिक जागरण से कोई नहीं पहुंचा।

विपक्षी पार्टियों का सर्वनाश इसलिए हो रहा है, क्‍योंकि उन्‍हें विरोध करने के लिए जनहित के मुद्दे नहीं मिलते और वे अपना राजनीतिक उल्‍लू सीधा करने में लगी रहती हैं। तभी उन्‍हें सिर्फ इस मामले में लोकतंत्र की हत्या नजर आ रही है।

कपिल मिश्रा ने तो विधानसभा अध्यक्ष को पत्र भी लिखा था, लेकिन मजीठिया लागू कराने के लिए उन्‍होंने कभी भी कोई पत्र नहीं लिखा। उन्‍होंने कहा कि दैनिक जागरण अखबार के खिलाफ दिल्ली विधानसभा में अवमानना का प्रस्ताव जायज नहीं है। तो क्‍या दैनिक जागरण का सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताना जायज है… वाह रे कपिल‍ मिश्रा…तू भी क्रांतिकारी बनने के लिए मार करता है। शेम शेम…।

दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता ने कहा कि यह लोकतंत्र की हत्या है। यह सरकार प्रेस की आजादी पर हमला कर रही है। दिल्ली में आपातकाल की तरह हालात हैं। गुप्‍ताजी, आप भी जाति के आधार पर फिसल रहे हैं। दैनिक जागरण के मालिक संजय गुप्‍ता ने पत्रकारिता को जिस तरह आपातकाल के हवाले कर दिया है, काश आपको भी उसका अहसास होता।

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने भी इसे लोकतंत्र पर हमला बताया है। मनोज जी, आप हर दिल अजीज गायक हैं, लेकिन आपकी संवेदना कभी भी लाचार पत्रकारों के पक्ष में व्‍यक्‍त नहीं हुई। उनके दुख दर्द पर एक गाना भी गा देते तो हम मान लेते कि आप पत्रकारों और पत्रकारिता का सम्‍मान करते हैं। जिनके बल पर आप राजनीति में उतरे हो, वही मां सरस्‍वती आपको कभी माफ नहीं करेंगी।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने भी इस मामले को लेकर केजरीवाल सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि दिल्ली सरकार में बैठे लोग अखबारों में अपने मन माफिक खबरें छपवाना चाहते हैं। सरकार ने प्रेस की आजादी पर हमला किया है। हम इसके खिलाफ एडिटर्स गिल्ड और कोर्ट में भी जाएंगे। माकन जी, आपकी ही पार्टी की सरकार की ओर से जारी मजीठिया वेतनमान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्‍बल, सलमान खुर्शीद और अभिषेक मनु सिंघवी लगातार मालिकों के शोषण के पैरोकार बने रहे। क्‍या यह सब आपको याद दिलाने की जरूरत है… इन नेताओं के दोहरे चरित्र को समझना होगा और चुनावों में इन्‍हें माकूल जवाब दिए जाने की जरूरत है।

सरकारीपना का रोग

श्रीकांत सिंह।

कुछ लोग पत्रकारिता में तारीफ को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, लेकिन जब इसकी वकालत कुछ पत्रकार साथी भी करने लगते हैं तो ऐसा लगता है कि पत्रकारिता को सरकारीपना का रोग लग गया है। अरे भइया, पत्रकारिता में सरकार की तारीफ से ठीक उसी प्रकार परहेज करना चाहिए जैसे शुगर के मरीज को मीठा से परहेज करना होता है।

तारीफ के लिए सरकार के पास पूरा बजट होता है और वह उस पर खर्च भी करती है। मुफ्त में साहेब की तारीफ करने के लिए डॉक्‍टर ने बताया है क्‍या… आपको कोई भक्‍त पत्रकार कह देगा तो बुरा मान जाएंगे। यदि आप चारण बने रहना चाहते हैं और पत्रकार कहलाने का शौक भी चर्राया रहता है तो यह आपकी समस्‍या हो सकती है, पत्रकारिता की नहीं। वैसे, जनहित में सरकार की किसी कल्‍याणकारी योजना का विश्‍लेषण किया जा सकता है।

चोटी वाले तेरा जवाब नहीं…

फोर्थपिलर टीम।

चुरकी सोंटा हो जाना-यानी डर जाना। यह मुहावरा या कहावत गांव में बहुत प्रचलित थी। क्‍योंकि डर की कई वजहें थीं। स्‍कूल में अध्‍यापक का डर सबसे बड़ा डर हुआ करता था। खैर। चुरकी का मतलब होता है-चोटी। और सोंटा हो जाने का तात्‍पर्य यह है कि दंड के समान हो जाना। सब टीवी के एक लोकप्रिय धारवाहिक में आप तेनालीरामा की चुरकी सोंटा होते देख सकते हैं। उनकी चुरकी यानी चोटी तो बात भी करती है।

अभी पिछले दिनों अफवाह फैली थी कि दैनिक जागरण की नोएडा यूनिट के एक चोटी के संपादक की चोटी कट गई है। उनकी चोटी को किसी चोटी कटवा ने नहीं काटा, उन्‍होंने खुद कटवाया है। कारण। लोग कहने लगे थे कि सुप्रीम कोर्ट का टाइम बाउंड आदेश आते ही उनकी चुरकी सोंटा हो गई थी। इसलिए उन्‍होंने चोटी ही कटवा दी। न रहेगी चोटी और न होगी सोंटा। लेकिन बाद में पता चला कि उनके चोटी रखने के कार्य को पाखंड बताया जाने लगा था। इसलिए उन्‍होंने चोटी को छिपाने के लिए उसे तेल से सराबोर कर दिया और उसे अपने बालों में छिपा लिया था, जिससे लोग भ्रमित होने लगे थे।

पिछले आलेखों में इनके बारे में बताया जा चुका है कि ये भ्रष्‍टाचार का डंका बजाने के लिए ब्राह्मणवाद का नारा दिया करते थे। लेकिन जब इन्‍होंने एक झटके में 200 ब्राह्मणों की नौकरी खा ली तो लोग इन्‍हें रावण की उपाधि से विभूषित करने लगे, जिसने अपने भाई को ही राज्‍य से निकाल दिया।

गोस्‍वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस में राम जी के मुखारविंद से कहलवा दिया था-मोहि न सोहाइ ब्रह्म कुल द्रोही। यानी मुझे ब्राह्मण कुल के द्रोही पसंद नहीं हैं। लेकिन ये तो खुद ब्राह्मण हैं। राम जी इनका क्‍या करेंगे। अब संजय गुप्‍ता भले ही इन्‍हें पसंद करें, लेकिन राम जी तो इनका वही हश्र करेंगे, जो रावण का किया था।

पता चला है कि ये चोटी वाले संपादक महोदय आजकल बहुत फ्रस्‍टेट रहते हैं। कर्मचारी मजीठिया के लक्ष्‍य के काफी करीब पहुंच चुके हैं। क्‍लेम लगाए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के प्रकाश में लेबर कोर्ट भी सतर्क है। कम अवधि की डेट दे रहा है। आज नहीं तो कल इनसे संजय गुप्‍ता साहब पूछेंगे ही-तेरा क्‍या होगा चोटी वाले।

ऐसे लिखें एक संपूर्ण समाचार

पत्रकारिता सीखें-भाग एक

श्रीकांत सिंह।

पत्रकारिता यानी समाचार लिखने की कला। वैसे तो यह कला काफी कुछ कुदरत की देन होती है। तमाम बड़े पत्रकार अपनी कुदरती प्रतिभा के बल पर ही नाम रोशन कर सके हैं, क्‍योंकि उनके जमाने में इस क्षेत्र में प्रशिक्षण की व्‍यवस्‍था ही नहीं थी। लेकिन आज पत्रकारिता सिखाने वाले संस्‍थानों की बाढ़ सी आ गई है फिर भी बड़े पत्रकार नहीं पैदा हो रहे हैं। हम इस आलेखमाला के जरिये कुछ ऐसे प्रमुख विंदुओं की चर्चा करेंगे जो समाचार लेखन में मददगार होते हैं।

अच्‍छा समाचार लिखने के लिए पत्रकारीय दृष्टि का होना अतिआवश्‍यक होता है। निरंतर अभ्‍यास से ही यह दृष्टि पैदा हो पाती है। पत्रकारीय दृष्टि का आशय है कि किसी भी घटना की रिपोर्टिंग करते समय ऐसी बातों पर नजर रखना, जिन पर आम आदमी का ध्‍यान नहीं जाता। मसलन, किसी भवन में आग लगने की घटना घटी है तो क्‍या उस भवन में अग्नि सुरक्षा के पर्याप्‍त उपाय किए गए हैं या नहीं। भवन निर्माण के मानकों का पालन हुआ है या नहीं। वहां जो उद्योग चलाया जा रहा है, उसकी स्‍थानीय प्रशासन से अनुमति है या नहीं।

इसके बाद नंबर आता है समाचार के तत्‍वों का। सामान्‍य तौर पर समाचार के तत्‍वों को 5 डब्‍ल्‍यू और 1 एच के जरिये समझा जाता है। पहला डब्‍ल्‍यू है-ह्वाट यानी क्‍या हुआ। दूसरा डब्‍ल्‍यू है-ह्वेयर यानी कहां की घटना है। तीसरा डब्‍ल्‍यू है-ह्वैन यानी कब की घटना है। चौथा डब्‍ल्‍यू है-ह्वाई यानी घटना क्‍यों घटित हुई। पांचवां डब्‍ल्‍यू है-हू यानी घटना के पीछे कौन है। एच का मतलब है हाऊ यानी घटना कैसे घटी। समाचार लेखन के इन छह तत्‍वों पर ध्‍यान दिया जाए तो एक संपूर्ण समाचार लिखा जा सकता है।

आमतौर पर देखा जाता है कि पत्रकारिता का अधकचरापन इतना बढ़ गया है कि अनगिनत पत्रकारिता संस्‍थानों से पास होकर निकले अधिकांश पत्रकारों के समाचार में इन बुनियादी तत्‍वों का अभाव रहता है। इन बुनियादी बातों के अलावा समाचार को सजाने और उसे जानकारी से लैस करने के और भी टिप्‍स हैं जो एक सफल पत्रकार बनाने में सहायक होते हैं। उन पर चर्चा फिर कभी…।