फोर्थ पिलर टीम। हर वर्ष 16 नवंबर को मनाए जाने वाले राष्ट्रीय प्रेस दिवस को काला दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। मेरे कई साथी मीडिया समूह में मालिकान और संपादकों की चाटुकारिता में लगे हैं। वे निश्चित रूप से मीडिया की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रहे हैं। उनमें कुछ तो मुझे नकारात्मक सोच का व्यक्ति बताते हैं। मैं उनसे पूछता हूं कि प्रेस दिवस पर क्या लिखूं। क्या यह लिख दूं कि मीडिया घराने हर उस कसौटी पर खरे उतर रहे हैं, जिसके लिए उनका गठन किया गया था। नहीं न ?
तो फिर नकारात्मक तो लिखना ही पड़ेगा। प्रेस का गठन समाज की समस्याओं, बुराइयों को जनता के सामने लिए किया गया था। कमजोर, जरूरमंद की आवाज बनने के लिए किया गया था। नौकरशाह, पूंजीपतियों और राजनेताओं की निरंकुशता पर अंकुश रखने के लिए किया गया था। वही प्रेस आज नौकरशाह, पूंजपीतियों और राजनेताओं की रखैल की तरह काम कर रहा है।
कहने को तो देश में अनगिनत प्रेस क्लब हैं। प्रेस परिषद हैं। पर ये सब संगठन बस शाम को दारू पीकर बकवास करने तक सिमट गए हैं। पिछले दिनों मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई के लिए कई स्वाभिमानी मीडियाकर्मियों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पक्ष में मोर्चा खोला। उन कर्मियों में से कितने को टर्मिनेट कर दिया गया। कितनों के दूर दराज ट्रांसफर कर दिए गए। यही मीडियाकर्मी मीडिया घरानों के दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। मीडिया हाउसों में काम कर रहे मीडियाकर्मियों का शोषण किया जा रहा है।
कहां हैं प्रेस क्लब ? कहां है प्रेस परिषद ? कहां है प्रेस की जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही वाले लोग? कहना गलत न होगा कि देश में यदि कहीं पर सबसे अधिक शोषण, दमन और उत्पीड़न है तो वह प्रेस ही है। जो मीडियाकर्मी दूसरों पर हो रहे अत्याचार को सामने लाते हैं, वही अपने साथ हो रहे अत्याचार को मूक समर्थन दे रहे है। यही नहीं, वे मीडिया मालिकों के हित साधने के साधन मात्र बन कर रह गए हैं। शायद यही वजह है कि वे मीडिया की जिम्मेदारियों तिलांजलि दे रहे हैं।
प्रेस के गठन की बात करें तो प्रथम प्रेस आयोग ने हमारे देश में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एवं पत्रकारिता में उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से एक प्रेस परिषद की कल्पना की थी। परिणाम स्वरूप 4 जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई। उसने 16 नंवबर 1966 से अपना विधिवत कार्य शुरू किया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाता है।
विश्व में लगभग 50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिषद हैं। भारत में प्रेस को वाचडॉग एवं प्रेस परिषद इंडिया को मोरल वाचडॉग कहा गया है। क्या ये हैं ? मीडिया को समाज का दर्पण एवं दीपक माना जाता है। क्या है ? चाहे समाचारपत्र हों या समाचार चैनल, उन्हें मूलत: समाज का दर्पण माना जाता है। इस दर्पण का काम है समाज की हू-ब-हू तस्वीर पेश करे। क्या यह तस्वीर पेश हो रही है?
कहना गलत न होगा कि गलत कामों पर पर्दा डालकर गलत काम करने वालों का महिमामंडन करना प्रेस का काम हो गया है। खोजी पत्रकारिता के नाम पर पीली व नीली पत्रकारिता न जाने कितने पत्रकारों के गुलाबी जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। खुद भारतीय प्रेस परिषद ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में प्रेस ने ज्यादा गलतियां की हैं। अधिकारियों की तुलना में प्रेस के खिलाफ अधिक शिकायतें दर्ज हैं।
पत्रकारिता आजादी से पहले एक मिशन थी। आजादी के बाद यह एक व्यवसाय बन गई। इसमें मैनेजरों के रूप में काम करने वाले संपादकों, पत्रकारों का बहुत बड़ा योगदान है। यदि आपातकाल की बात छोड़ दें तो पत्रकारिता की ओर से भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई बड़ा अभियान नहीं छेड़ा गया। बल्कि पत्रकारिता खुद भ्रष्टाचार में लिप्त है। वजह जो भी हो, प्रेस अपनी जिम्मेदारियों और जवाबदेही से नहीं बच सकता।