हैदराबाद एनकाउंटर

सीएस राजपूत
हैदराबाद एनकाउंटर पर खुशी मनाने वाले नेता अपनी विफलता को नहीं समझ पा रहे हैं। इस एनकाउंटर पर जनता का जश्न मनाना उन्हीं की विफलता का प्रतीक है। महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में अधिकतर नेता ही शामिल होते हैं। उनमें बड़े स्तर पर जनप्रतिनिधि हैं। कहा जा सकता है कि इस एनकाउंटर पर जिस तरह से लोगों ने खुशी जाहिर की है, उससे यह तो साबित हो चुका है कि अब सत्ता और कानून से लोगों का विश्वास उठ चुका है।

हैदराबाद: कौन करेगा इनका एनकाउंटर ?

Politics: महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन के लिए कांग्रेस जिम्मेदार!

सी.एस. राजपूत। महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की जो सिफारिश की थी उसे राष्ट्रपति ने मान लिया है। राज्यपाल इस मामले में थोड़े सख्त जरूर रहे पर उन्होंने न केवल भाजपा, शिवसेना बल्कि एनसीपी को भी सरकार बनाने का मौका दिया। हां राज्यपाल ने शिवसेना और एनसीपी को अतिरिक्त समय नहीं दिया, जिसका आरोप उन पर लग रहा है। शिवसेना सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुकी है।

Politics: महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन के लिए कांग्रेस जिम्मेदार!

दुकानदारों का राज, राम भरोसे देश और समाज

चरण सिंह राजपूत

दिल्ली तीस हजारी कोर्ट से शुरू हुए विवाद में पुलिस और वकीलों की ओर से ताकत का प्रदर्शन कर दिया गया है। पहले वकीलों ने हड़ताल कर अपनी पॉवर दिखाई तो बाद में पुलिस वालों ने भी मोर्चा संभाल लिया। दिल्ली में 5 नवंबर को पुलिस वालों ने मांगें मान लेने पर भले ही अपना आंदोलन खत्म कर दिया हो पर यह विवाद और बढ़ रहा है। दिल्ली में पुलिस और वकीलों में पैदा हुई खटास का असर साफ दिखाई दिया। अदालतों में पुलिस वाले गायब रहे तो वकीलों ने पांच अदालतों में कामकाज ठप्प रखा।

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खुदकुशी की कोशिश

रोहिणी कोर्ट में तो एक वकील ने बिल्डिंग की छत पर चढ़कर खुदकुशी करने की कोशिश की। तीस हजारी कोर्ट विवाद के बाद वकीलों ने जो उत्पात मचाया, पुलिस ने अपने ही अधिकारियों के खिलाफ जो मोर्चा खोला, वह पूरे देश ने देखा। देश की राजधानी दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में यही हाल है। न किसी को कानून पर विश्वास रहा है और न ही कानून के रखवाले कानून के प्रति गंभीर हैं। दिल्ली देश की राजधानी है तो वकीलों का विवाद पूरा देश देख रहा है। दिल्ली से ज्यादा खराब हालत बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब की है। कहना गलत न होगा कि पूरा देश अराजकता से जूझ रहा है।

अराजकता संभालने नहीं आए मोदी शाह

गजब स्थिति है देश में। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास विदेशों में होने वाले विभिन्न समारोह के लिए समय है। अपने महिमामंडन में समारोह करवाकर अपनी उपलब्धियों का बखान करने का समय है पर देश में जब भी कहीं कोई अराजकता फैलती है तो वह कहीं नहीं दिखाई देते। यही हाल उनके सारथी गृहमंत्री अमित शाह का है। आजकल वह हर कार्यक्रम में पाकिस्तान और 370 पर बोलते दिखाई देते हैं। देश की राजधानी में पुलिस व वकीलों के बीच इतना बड़ा तांडव हुआ वह कहीं नहीं दिखाई दिए, जबकि वह पुलिस के संरक्षक माने जाते हैं।

केजरीवाल भी चुप

बात-बात पर ट्वीट करने वाले अरविंद केजरीवाल भी चुप्पी साधे बैठे हैं। सबको वोटबैंक चाहिए। हां मामला वोटबैंक का होता तो देखते कि कैसे इनकी आवाज में गर्मी आ जाती। भले ही देश में अराजकता का माहौल हो। रोजी-रोटी का बड़ा संकट लोगों के सामने खड़ा हो गया हो पर देश के कर्णधार इस समय देश समाज नहीं बल्कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की चिंता कर रहे हैं। पुलिस वाले पिटे पर उनको अपनी ड्यूटी करनी है। जिन अदालतों में खुद कानून नहीं बचा है भला वे क्या कानून की रक्षा करेंगी। जो वकील खुद कानून को नहीं मान रहे हैं भला वे किसी को क्या न्याय दिलाएंगे ? जिस पुलिस का खुद का विश्वास कानून से उठ रहा है वह भला किसी को कानून का क्या विश्वास दिलाएगी? देश की राजधानी ही नहीं बल्कि पूरा देश राम भरोसे है। वह बात दूसरी है कि भगवाधारी लोग इन राम को भी अयोध्या के राम से जोड़कर राम मंदिर निर्माण से जोड़ दें।

लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं

कहना गलत न होगा कि देश में लोकतंत्र नाम की कोई चीज रह नहीं है। हमारे देश में पुलिस और वकील को कानून का रखवाला माना जाता है। कानून के ये दोनों ही रखवाले सड़कों पर जमकर कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि लोकतंत्र के चार मजबूत स्तंभ माने जाने वाले न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया तमाशबीन बने हुए हैं। जरा-जरा सी बात ट्वीट करने करने वाले राजनेता चुप्पी साधे बैठे हैं। राजनेताओं को देश व समाज से ज्यादा चिंता महाराष्ट्र में सरकार बनाने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की है।

गुस्सा उतारने की व्यवस्था

गजब स्थिति पैदा हो गई है देश में हिन्दू को मुसलमान से लड़ा दिया जाता है। दलित और पिछड़ों को सवर्णों से लड़ा दिया जाता है। गरीब को अमीर से लड़ा दिया जाता है। पुलिस को वकीलों से लड़ा दिया गया है। पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं। रिश्तेदार से रिश्तेदार लड़ रहा है। भाई से भाई लड़ रहा है। नजदीकी रिश्तों में बड़े स्तर पर खटास देखी जा रही है। जो युवा अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहना चाहिए वह जाति-धर्म और पेशों के नाम पर लड़ रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि लोगों में इस व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा नहीं है। देश के सियासतदारों ने एक रणनीति के तहत इस गुस्से को आपस में उतरने की व्यवस्था पैदा कर दी है।

माहौल वोटबैंक के लिए

वोटबैंक के लिए राजनीतिक दलों ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि हर कोई निरंकुश नजर आ रहा है। यह सब सत्ताधारी नेताओं, ब्यूरोक्रेट के गैर जिम्मेदाराना रवैये और पूंजीपतियों की निरंकुशलता के चलते हो रहा है। हर कोई कानून को हाथ में लिए घूम रहा है। इन सब बातों के लिए कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। यह व्यवस्था के खिलाफ एक प्रकार का गुस्सा है जो एक-दूसरे पर उतर रहा है। लोग सब देख रहे हैं कि केंद्र सरकार ने संवैधानिक संस्थाओं को कैसे अपनी कठपुतली बना रखा है। विधायिका सत्ता की लोभी हो गई है। न्यायापालिका जजों के रिटायर्ड होने पर किसी आयोग के चेयरमैन बनने के लालच के नाम पर प्रभावित हो रही है। कार्यपालिका में भ्रष्टाचार चरम पर है।

मीडिया के काले कारनामे

मीडिया को चलाने वाले अधिकतर लोग काले काम करने वाले हैं। ऐसे में अराजकता नहीं फैलेगी तो फिर क्या होगा ? तीस हजारी कोर्ट में हुए विवाद के लिए कितने लोग वकीलों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं पर दिल्ली के अलावा भाजपा शासित प्रदेशों में पुलिस कितनी निरंकुशता के साथ काम कर रही है, यह किसी से छुपा है क्या ? दूसरों को कानून का पाठ पढ़ाने वाले खुद ही सड़कों पर अपने कार्यालयों में कानून से खेलते दिखाई देते हैं। ट्रैफिक व्यवस्था के नाम पर पुलिस ने देश में आम आदमी के साथ जो ज्यादती की, किसी से छिपी है क्या ? पुलिस की निरंकुशलता के चलते ही आम आदमी उससे पंगा लेने से बचता है। क्योंकि वकील कानून की सभी पेचीदगियां जानते हैं तो उन्होंने पुलिस से मोर्चा ले लिया है।

चल गई है भाजपा की दुकान

इन सबके बीच यह बात निकलकर आती है कि जहां वोटबैंक की बात आती है तो राजनीतिक दल अपनी नाक घुसेड़ देते हैं। यदि बात देश और समाज की हो तो चुप्पी साध लेते हैं। जैसे पुलिस और वकीलों के मामले पर साध रखी है। यह देश की विडंबना ही है कि जो गुस्सा एकजुट होकर देश के राजनेताओं, ब्यूरोक्रेट और लूटखसोट करने वाले पूंजीपतियों के खिलाफ उतरना चाहिए वह आपस में उतर जा रहा है। हां यह बात जरूर है कि देश की व्यवस्था न सुधरी। देश के जिम्मेदार लोगों के जनतार को बेवकूफ बनाने के रवैये में बदलाव न आया तो वह दिन दूर नहीं कि हमारी देश की स्थिति भी पाकिस्तान जैसी हो जाए। देश पर राज कर रही भाजपा का तो एक ही लक्ष्य है कि देश में जितना धर्म और जाति के नाम, पेशों के नाम पर विवाद होगा, जितना देश में अंधविश्वास और पाखंड बढ़ेगा उतनी ही उनकी दुकान आगे बढ़ेगी।

देश में अराजकता बढ़ने का बहुत बड़ा कारण घरो में सियासत को घुसेड़ देना है। जरा-जरा सी बात पर विवाद हो जाना, एक-दूसरे से नफरत करना तो जैसे आम बात हो गई है। इसके लिए न केवल सत्ताधारी और विपक्ष के नेता जिम्मेदार हैं बल्कि निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर भागी चली जा रही जनता भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है।

पुलिस ही सुरक्षित नहीं तो आप…?

श्रीकांत सिंह। मीडिया संसार और प्रदूषण। मीडिया से कुछ लोग डरते हैं। लेकिन प्रदूषण मीडिया से नहीं डरा। बड़ी मुश्किल है। कोई किसी से डरता ही नहीं। यह अलग बात है कि दिल्ली में पुलिसवाले वकीलों से डर गए हैं। गैरकानूनी काम करने वालों को वकीलों से डरना ही चाहिए। लेकिन जितना पुलिसवाले डर गए हैं, उतना नहीं। मैंने अपने मुकदमे की पैरवी के लिए अभी कोई वकील नहीं किया है। पर अब पुनर्विचार करना होगा। वकील तो टू इन वन हैं। कानून के रक्षक भी, सहायक भी। वकीलों और पुलिस की झड़प के बाद प्रदूषण भी भयभीत लगता है।

दिल्ली में वकीलों और पुलिस की झड़प

जी हां। दिल्ली में वकीलों और पुलिस की झड़प से बवाल मच गया है। अब कानून के रक्षक और सहायक दोनों सुरक्षा मांग रहे हैं। आपको याद होगा कि इससे पहले मॉब लिंचिंग से कुछ खास लोग डर गए थे। उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह दी जा रही थी। यह बात मेरी समझ से बाहर है कि वकीलों और पुलिस को क्या सलाह दूं ? वकीलों को सलाह दे नहीं सकता, क्योंकि अपने मुकदमे में उनसे खुद सलाह ले रहा हूं। पुलिस मेरी सलाह मानती नहीं।

अपनी राम कहानी

इस संदर्भ में अपनी राम कहानी बताना जरूरी लगता है। बात 2015 की है। फरवरी में दैनिक जागरण के नोएडा कार्यालय डी 210, 211 सेक्टर 63 पर कंपनी के कुछ गुंडों ने मुझ पर हमला कर दिया था। मैंने 100 नंबर पर फोन करके पुलिस बुला ली। पुलिस मौके पर पहुंच भी गई। लेकिन मौके पर जब पुलिस को पता चला कि मामला दैनिक जागरण प्रबंधन के खिलाफ है तो वह बगले झांकने लगी।

एफआईआर तक दर्ज नहीं करती पुलिस

नियमानुसार 10 फरवरी 2015 को मैं पुलिस चौकी गया। मामला दर्ज नहीं किया गया। फिर नोएडा के फेस तीन थाने गया। मामला दर्ज नहीं किया गया। तत्कालीन सीओ टू श्रीमान डॉक्टर अनूप कुमार सिंह के पास गया। काम नहीं हुआ। फिर तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डॉक्टर प्रीतेंदर सिंह के पास गया। उन्होंने आखिर जांच शुरू करा दी। पुलिस ने मुझे और दैनिक जागरण के तत्कानीन एचआर प्रबंधक श्री रमेश कुमार कुमावत को बुला लिया। कुमावत जी सीधे और सरल इंसान ठहरे। उन्होंने पुलिस सच बता दिया। उस सच का आज तक मुझे कोई लाभ नहीं मिला। लेकिन कुमावत जी को सच की कीमत अपनी नौकरी गंवा कर जरूर चुकानी पड़ी। धीरे धीरे मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

जिलाधिकारी ने भी दे दी गोली

मैं चैन से कहां बैठने वाला था। पत्रकार जो ठहरा। मैंने गौतम बुद्ध नगर जिले के तत्कालीन जिलाधिकारी एनपी सिंह से बात की। उन्हें समझाने की कोशिश की कि जब शासन प्रशासन दैनिक जागरण जैसे शोषक, अत्याचारी, गुंडा मवालियों के समूह की सुरक्षा में लगा रहेगा, तो आम जनता को न्याय कैसे मिल पाएगा? खैर। उन्होंने भी मामले को डिप्लोमेटिक तरीके से टाल दिया। उस समय उत्तर प्रदेश में श्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी का शासन था। मुख्यमंत्री को कई पत्र लिखे, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। मैंने सोचा सरकार ही खराब है तो कुछ नहीं हो सकता।

काम न आया मृत्युंजय कुमार का रुतबा

वर्ष 2017 में भाजपा का डंका बजा। योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। इसी बीच मेरी मुलाकात श्री मृत्युंजय कुमार से हुई। बड़े ही सज्जन और क्रांतिकारी प्रेमी व्यक्ति। उनके रूप में मुझे पत्रकारिता का उज्ज्वल भविष्य नजर आने लगा। उन्होंने बेसहारा कर दिए गए पत्रकारों की बड़ी मदद की। शायद उनका पुण्य परिपक्व हो गया था। वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मीडिया सलाहकार बना दिए गए। अब मेरी उम्मीदों की कोई सीमा नहीं रह गई। बाद में पता चला कि हमने गलती क्या की थी? बागबां में अमिताभ बच्चन का संवाद याद आया। उम्मीद करनी ही नहीं चाहिए।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उम्मीद

लेकिन हमने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उम्मीद नहीं छोड़ी है। उनके जनसुनवाई उत्तर प्रदेश के पोर्टल पर लगातार अपनी शिकायत दर्ज करा रहा हूं। लेकिन पुलिसवाले लगातार झांसा भी दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के मुकाबले दिल्ली की जनसंख्या बहुत ही कम है। पुलिस पर बजट की बात करें तो दिल्ली कई गुना आगे है। आप गूगल करेंगे तो आंकड़ा मिल जाएगा। ऐसी दिल्ली की पुलिस जब सुरक्षा की गुहार लगा रही है तो उत्तर प्रदेश पुलिस का क्या हाल होगा।

सबसे बड़ा जनता का अभिशाप

उत्तर प्रदेश पुलिस मेरी सलाह माने न माने, उसकी मर्जी। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि नेशनल पुलिस कमीशन और प्रशासनिक सुधार आयोग के बारे में गूगल करके जरूर पढ़े। अगर पुलिस ऐसे ही अपने कर्म खराब करती रहेगी तो जनता के श्राप से बच नहीं पाएगी। जनता का अभिशाप बड़े बड़ों को धूल चटा देता है। अनायास ही डंडे से किसी निर्दोष का पिछवाड़ा लाल कर देने वाली पुलिस जब सुरक्षा की भीख मांगती है तो बहुत खूबसूरत नजर आती है।

अत्याचारियों पर कड़क हो पुलिस

लेकिन मेरी नजर में पुलिस की खूबसूरती कड़क होने में है। साहेब की चाय से भी ज्यादा कड़क। यह कड़क रवैया संजय गुप्ता जैसे अत्याचारियों पर शोभा देता है, किसी लाचार पर नहीं। इस आलेख में कोई ज्ञान नहीं है, दिल्ली पुलिस की हालत देखकर एक भावना जरूर उमड़ पड़ी है। आशा है मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी इस भावना को जरूर समझेंगे, क्योंकि वह योगी भी हैं।

सामने आया CCTV फुटेज-sabhar inkhabar

निर्लज्ज सरकार, कमजोर विपक्ष और बेबस जनता

चरण सिंह राजपूत

भाजपा आतंकवाद को मुस्लमानों से जोड़कर हिंदुओं का वोट हासिल करना चाहती है। भुखमरी, बेरोजगारी से बड़ा कोई मुद्दा नहीं है पर भाजपा के एजेंडे में यह दूर दूर तक नहीं दिखाई दे रहा है। विपक्ष के कमजोर पड़ने पर भाजपा के भावनात्मक मुद्दे जनता पर हावी हो जा रहे हैं।

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श्रीलंका में आतंकी हमले के बाद वहां के रक्षामंत्री ने अपनी जवाबदेही निर्धारित करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। यह होता है सरकार का आचरण। हमारे यहां की सरकार की निर्लज्जता देखिये कि पुलवामा आतंकी हमले के बाद उल्टे सेना द्वारा की गई एयर स्ट्राइक को अपने से जोड़ दिया। प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा का छोटे से छोटा कार्यकर्ता लोकसभा चुनाव में भुनाने में लग गए। अपनी विफलता को भूलकर पाकिस्तान औऱ मुसलमानों पर उंगली उठाने लगे।
ऐसा भी नहीं है कि भाजपा ने आतंकवाद को रोकने के लिये कोई कारगर कदम न उठाए हों। दरअसल, भाजपा आतंकवाद को मुस्लमानों से जोड़कर हिंदुओं का वोट हासिल करना चाहती है। इस मामले में भाजपा काफी हद तक सफल भी हो रही है। देश में भुखमरी, बेरोजगारी से बड़ा कोई मुद्दा नहीं है पर भाजपा के एजेंडे में यह दूर दूर तक नही दिखाई दे रहा है। विपक्ष के कमजोर पड़ने पर भाजपा के भवनात्मक मुद्दे जनता पर हावी हो जा रहे हैं।
यही वज़ह है कि लोग भी जमीनी मुद्दों से भटक रहे हैं। लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि सत्ता की ये राजनीति देश को विघटन की ओर ले जा रही है। इन दिनों में जाति धर्म के नाम पर लोगों के मन में इतनी नफरत पैदा कर दी गई है कि सरकार किसी की भी बने माहौल बिगड़ने की पूरी आशंका है। इसके लिए मोदी सरकार के साथ ही विपक्ष भी पूरी तरह से जिम्मेदार है।
राजनीतिक दलों ने जाति और और धर्म के नाम पर संगठन बनवा दिए हैं, जो एक दूसरे के खिलाफ़ आग उगलते रहे हैं। मोदी सरकार के पांच साल में इन संगठनों ने समाज में इतनी नफरत पैदा कर दी है कि चुनाव के बाद हार जीत को लेकर जातीय संघर्ष होने की पूरी आशंका है। वैसे भी मोदी सरकार में रिकार्डतोड़ बेरोजगारी बढ़ी है। मोदी सरकार बनने पर हिन्दू संगठनों हावी होने का प्रयास करेंगे तो विपक्ष की सरकार बनने पर दलित और मुस्लिम। मुस्लिमों के आक्रामक होने के आसार मोदी सरकार बनने पर भी हैं। उनके आक्रोश का शिकार कुछ सेकुलर नेता भी ही जाए तो आश्चर्य न होगा।
देश में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि राजनीतिक दलों के साथ ही जनता भी भावनात्मक मुद्दों की ओर भाग रही है। यही वजह है कि लगातार किसानों की गेहुं की फसल जलने की खबरें सामने आ रही हैं और राजनीतिक दल प्रधानमंत्री की जाति पर ऊर्जा खर्च कर रहे हैं। करें भी क्यों न। गत लोकसभा चुनाव में मोदी ने अपने को छोटी जाति का बताते हुए दलितों और पिछड़ों के वोट जो हासिल कर लिए थे। अब दलितों औऱ पिछड़ों को अपना बंधुआ वोटबैंक समझने वाले मायावती तेजस्वी यादव और प्रियंका गांधी मोदी की जाति पर मुखर हैं।
ये है आज की राजनीति। जिस सत्तारूढ़ पार्टी ने पुलवाला आतंकी हमले में शहीद हुए सैनिकों के परिजनों की कोई खैर खबर लेनी उचित नहीं समझी। वह उनकी शहादत को सत्ता के लिए जरूर भुनाने लगी। ऐसा ही हाल दलित और पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वालों का है। ये लोग इनके लिए बस वोटबैंक तक सीमित हैं। इनके जीवन स्तर सुधार से इन्हें कुछ लेना देना नहीं है।
सबसे बुरा हाल तो मुस्लिमों का कर रखा है। भाजपा के एजेंडे में तो मुस्लिम है ही नहीं पर अपने को सेकुलर कहकर मुस्लिमों का वोट हासिल करने वाली सपा, राजद, कांग्रेस और दूसरे ने मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए कुछ खास नहीं किया। शिक्षा के मामले में तो ये लोग बहुत पिछड़े हुए हैं। देश में आरक्षण को लेकर मारामरो होती है पर मुस्लिमों की याद किसी को नहीं आती। यहां तक कि मुस्लिमों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई गई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर राजनीतिक दलों ने चर्चा करना ही बंद कर दिया है। इसके लिए काफी हद तक मुस्लिम समाज भी जिम्मेदार है। ये लोग मौलवियों और नेताओं के चक्कर में आ जाते हैं। और अपने हक की बात नहीं करते।
दिलचस्प बात यह है कि लोग फिर से उन मुद्दों पर भाजपा के झांसे में आ जा रहे हैं, जिन पर वह कुछ कर ही नहीं सकती। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और धारा 370 जैसे मुद्दों पर भाजपा फिर से हिंदुओं को विश्वास में लेती प्रतीत हो रही है।
इन लोगों की समझ में यह नहीं आ रहा है कि जब भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार में ये काम नहीं कर पाई तो आगे कैसे करेगी। राम मंदिर मामले पर तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन होने की बात कहकर पल्ला झाड़ चुके हैं।रही बात 370 धारा की तो जहाँ जम्मू कश्मीर में यह धारा हटनी है वहां तो भाजपा के पोस्टर और बैनर भी हरे रंग के दिखाई दे रहे हैं। यदि भाजपा वास्तव में धारा 370 हटाना चाहती है तो जम्मू कश्मीर में रैली कर वहां इसे हटाने की बात करे। करेंगे कैसे वहां मुस्लिमों का वोट चाहिए।
इसमें दो राय नहीं कि देश का विपक्ष बहुत कमजोर और नाकारा है पर जो जिस व्यक्ति ने प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिराई है। देश को विघटन की ओर धकेला है। बेरोजगारी चरम पर पहुंचा दी है लोग फिर से उसमें कोई चमत्कार ढूंढ रहे हैं। जोकर में हीरो की छवि ढूंढ रहे हैं। किसान भूल रहे हैं कि राज्यसभा में भाजपा का बहुमत होता तो भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन कर उनकी जमीन पूंजीपतियों को सौंप दी जाती। मजदूर भूल रहे हैं कि श्रम कानून में संशोधन कर उन्हें उनकी ही कंपनी में बंधुआ बना दिया जाता। लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि मोदी गिने चुने पूंजीपतियों की गोद में खेल रहे हैं। इनके भले के लिए वे आम आदमी की ही बलि चढ़ाएंगे।

विपक्ष ही कमजोर कर रहा है सत्ता परिवर्तन की लड़ाई

एक सशक्त विपक्ष के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जरूरत महसूस की जा रही है। कांग्रेस ने भले ही जनता को न्याय दिलाने का भारी भरकम विज्ञापन टीवी चैनलों पर चला रखा हो पर उसकी रणनीति से ऐसा लग रहा है कि जैसे वह 2019 के लिए नहीं 2024 के लिए लड़ रही है। इसी मुद्दे का विश्लेषण कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार चरण सिंह राजपूत।

लोकसभा चुनाव का परिणाम तो 23 तारोख को आएगा पर विपक्ष के प्रदर्शन से ऐसा लग रहा है कि उसने मतगणना से पहले ही अपनी हार मान ली है। कांग्रेस ने भले ही जनता को न्याय दिलाने का भारी भरकम विज्ञापन टीवी चैनलों पर चला रखा हो पर उसकी रणनीति से ऐसा लग रहा है कि जैसे वह 2019 के लिए नहीं 2024 के लिए लड़ रही है।
सबसे प्रदेश प्रदेश उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन की लड़ाई भले ही भाजपा से हो पर गठबंधन के मुख्य नेता मायावती और अखिलेश यादव भाजपा से ज्यादा कांग्रेस को कोसते हुए प्रतीत हो रहे हैं। वह बात दूसरी है कि उत्तर प्रदेश पर लंबे समय तक सपा औऱ बसपा ने ही बारी बारी से राज किया है।
प्रधानमंत्री के खिलाफ सबसे अधिक मुखर रहने वाले आप संयोजक अरविंद केजरीवाल भी भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर आक्रामक हैं। सपा संरक्षक मुलायम सिंह ने फिर से ट्वीट के माध्यम मोदी के प्रधानमंत्री बनने की कामना कर दी है। एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के योग्य न बताते हुए ममता बनर्जी की पैरवी कर रहे हैं। चंद्रबाबू नायडू पहले भी एनडीए का हिस्सा रह चुके हैं। अब तक चुनाव प्रचार पर नजर डाले तो भाजपा सत्ता में रहकर भी विपक्ष से ज्यादा मेहनत करती दिखाई दे रही है। यदि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को छोड़ दें तो इस भीषण गर्मी में विपक्ष के अधिकतर नेताओं के चेहरे पर पसीना तक नहीं देखा गया है। कमरों, गाड़ियों यहां तक कि रैलियों में भी मंच पर वातानुकूलित माहौल देखा जा रहा है। वह बात दूसरी है कि जिनके वोटों से ये लोग सत्ता की मलाई चाटने को तैयार बैठे हैं वे धूप में तप रहे हैं।
चुनावी मुद्दों के मामलों में भी प्रधानमंत्री को घेरने वाले मुद्दों को न पकड़कर आपस में एक दूसरे को कमजोर करने वाले मुद्दों को पकड़ रहे हैं। जो मुद्दे विपक्ष को चुनाव पर प्रचार में उठाने चाहिए थे वे सुप्रीम कोर्ट को उठाने पड़ रहे हैं। जो डिफाल्टर पूंजीपति जनता का अरबो खरबो रुपये दबाये बैठे हैं। उनकी सूची उजागर करने को रिजर्व बैंक को सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ रहा है । सुप्रीम कोर्ट को प्रभावित करने के चंद अमीरों के मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट तो मजबूती से जनता के बीच ले जा रहा पर जिस विपक्ष को यह मुद्दा चुनावी मुद्दा बनाना चाहिए था उसे उठाने से विपक्ष बच रहा है। जेट एयरवेज मामला मुद्दा देश का इस समय बड़ा मुद्दा है पर विपक्ष की सूची में यह कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। इसे क्या माना जाए कि विपक्ष अपने गलत कारनामों की वजह से चुप है या फिर इसमें दम नहीं है।
अभिनेता अक्षय कुमार का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू को सोशल मीडिया तो पेड न्यूज बता रहा है पर विपक्ष जातिवाद और परिवार वाद में ही उलझा हुआ है। ऐसा लग रहा है कि विपक्ष चुनाव जीतने से ज्यादा अपना गला बचाने की रणनीति अपना रहा है। जनता भी इस नाकारे विपक्ष से चमत्कार की उम्मीद कर रही है।
निश्चित रूप से जनता अपनी पर आ जाये तो सत्ता परिवर्तन उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं। पर विपक्ष के उदासीन रवैये से जनता निराश नजर आ रही है। सोशल मीडिया पर भी भाजपा की आईटी टीम का कब्जा है। विपक्ष यहां भी नाकारा बना हुआ है। इसका फायदा मोदी लगातार उठा रहे हैं। उनका आत्मविश्वास आसमान पर पहुंच रहा है।
मोदी ने बड़ी चालाकी से चोरों को जेल के दरवाजे तक पहुंचाने की बात कर ऐसा माहौल बना दिया है कि मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद जैसे सब भ्रष्ट राजनेता, ब्यूरोक्रेट और पूंजीपति जेल की सलाखों के पीछे होंगे। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि मोदी तो इस सरकार में भी भ्रष्ट लोगों के संरक्षक रहे हैं और आगे भी होंगे। मायावती, अखिलेश यादव जैसे नेताओं पर भी इसलिए दबाव बनाया जा रहा है कि यदि सरकार बनाने में एनडीए की सीटें कम रह जाये तो इनका समर्थन लिया जा सके । जेल में भेजने का डर दिखाकर मोदी कथित चोरों को एनडीए का हिस्सा बनाएंगे। मतलब जिन लोगों के मोदी समर्थक जेल में जाने की सोच रहे हैं वे सत्ता की मलाई चाटते प्रतीत होंगे। मायावती के तो एनडीए में मिलने की चर्चा बहुत जोरों से चल रही है।
जनता फिर से ठगा महसूस करेंगी। जो लोग इस विपक्ष से कुछ उम्मीद लगाए बैठे हैं वे झटका झेलने के लिए तैयार रहें। जमीनी संघर्ष कर रहे लोगों को अभी से ही कड़े संघर्ष के लिए तैयार रहना है। यदि चाहते हो कि देश में सत्ता के साथ व्यवस्था का भी परिवर्तन हो तो देश को समर्पित लोगों को एक मंच पर लाकर एक वैकल्पिक व्यवस्था के लिए संघर्ष करना होगा। तभी तो बीच चुनाव में ही स्वराज इंडिया, सोशलिस्ट पार्टी भारत, किसान मजदूर पार्टी के साथ ही बड़े स्तर पर संगठन देश को वैकल्पिक व्यवस्था देने में जुट गए हैं।

हवा बनाने की कवायद और हवाबाज

प्रेम सिंह

इस लेख में मोदी की समस्त गलत बयानियों (जिनमें वैवाहिक स्टेटस से लेकर शैक्षिणक योग्यता तक की गईं गलतबयानियां शामिल हैं), मिथ्या कथनों, अज्ञान, अंधविश्वास और घृणा के सतत प्रदर्शन के बावजूद उनकी पात्रता का समर्थन करने वालों की पड़ताल की कोशिश है। देश-विदेश में फैले ये मोदी-समर्थक समाज के पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोग हैं या उस पथ पर अग्रसर हैं।

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नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पात्रता के पक्ष में विभिन्न कोनों/स्रोतों से लगातार स्वीकृति और समर्थन हासिल किया है। हालांकि पांच साल प्रधानमंत्री रह चुकने के बाद काफी लोग मोदी-मोह से बाहर आ चुके हैं। फिर भी यह हवा बनाई जा रही है कि अगले प्रधानमंत्री मोदी ही होंगे। ज्यादातर मतदाता इस हवा के साथ हैं या नहीं, इसका पता 23 मई को चुनाव नतीजे आने पर चलेगा। फिलहाल की सच्चाई यही है कि टीम मोदी, कारपोरेट घराने, आरएसएस/भाजपा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), मुख्यधारा मीडिया और ‘स्वतंत्र’ मोदी-समर्थक उनकी एकमात्र पात्रता के समर्थन में डटे हैं। नरेंद्र मोदी की पात्रता के कोरसगान में खुद नरेंद्र मोदी का स्वर सबसे ऊंचा रहता है। मोदी की पात्रता के प्रति यह जबरदस्त आग्रह अकारण नहीं हो सकता है। इस परिघटना के पीछे निहित जटिल कारणों को सुलझा कर रखना आसान नहीं है। फिर भी मुख्य कारणों का पता लगाने की कोशिश की जा सकती है।

उन कमजोर आत्माओं को इस विश्लेषण से अलग किया गया है, जो अभी भी मोदी को अवतार मानने के भावावेश में जीती हैं। साधारण मेहनतकश जनता को भी शामिल नहीं किया गया है, जो उसका शोषण करने वाले वर्ग द्वारा तैयार आख्यान का अनुकरण करने को अभिशप्त है। इस लेख में मोदी की समस्त गलत बयानियों (जिनमें वैवाहिक स्टेटस से लेकर शैक्षिणक योग्यता तक की गईं गलतबयानियां शामिल हैं), मिथ्या कथनों, अज्ञान, अंधविश्वास और घृणा के सतत प्रदर्शन के बावजूद उनकी पात्रता का समर्थन करने वालों की पड़ताल की कोशिश है। देश-विदेश में फैले ये मोदी-समर्थक समाज के पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोग हैं या उस पथ पर अग्रसर हैं।

पहले कोरपोरेट घरानों को लें। मोदी का अपने पिछले चुनाव प्रचार में कारपोरेट घरानों के अकूत धन का इस्तेमाल करना, बतौर प्रधानमंत्री अपनी छवि-निर्माण में अकूत सरकारी धन झोंकना, जियो सिम का विज्ञापन करना, नीरव मोदी का विश्व आर्थिक मंच के प्रतिनिधि मंडल में उनके साथ शामिल होना, विजय माल्या और मेहुल चौकसी का सरकारी मशीनरी की मदद से देश छोड़ कर भागना, राजनीतिक पार्टियों को मिलाने वाली कारपोरेट फंडिंग को गुप्त रखने का कानून बनाना, लघु व्यापारियों और छोटे किसानों की आर्थिक कमर तोड़ने के लिए नोटबंदी करना, महज कागज़ पर मौजूद रिलायंस जियो इंस्टिट्यूट को ‘एमिनेंट’ संस्थान का दर्ज़ा देना, विमान बनाने का 70 साल का अनुभव रखने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हिंदुस्तान एअरोनाटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के बजाय राफेल सौदे को हथियाने की नीयत से बनाई गई कागज़ी कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को फ़्रांसिसी कंपनी डसाल्ट का पार्टनर बनाना, विभिन्न सरकारी विभागों में संयुक्त सचिव के रैंक पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सीधी नियुक्ति करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों सहित प्रत्येक क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया को बेलगाम रफ़्तार देना … जैसी अनेक छवियां और निर्णय यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि कारपोरेट घरानों के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है।

आरएसएस/भाजपा की नज़र में मोदी की पात्रता के बारे में इतना देखना पर्याप्त है कि उनके किसी नेता ने मोदी की कारपोरेटपरस्त नीतियों का परोक्ष विरोध तक नहीं किया है, क्योंकि आरएसएस/भाजपा संतुष्ट हैं कि मोदी ने दिल्ली में एक हजार करोड़ की लागत वाला केंद्रीय कार्यालय बनवा दिया है, नागपुर मुख्यालय गुलज़ार है और बराबर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय खबरों में रहता है, वर्तमान और भविष्य की सुरक्षा के लिए अकूत दौलत का इंतजाम कर दिया है। आरएसएस विचारक मग्न हैं कि मोदी के राज में वे सरकारी पदों-पदवियों-पुरस्कारों के अकेले भोक्ता हैं। पूरे संघ परिवार ने स्वीकार कर लिया है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कमल मोदी के नेतृत्व में भ्रष्ट और अश्लील पूंजीवाद के कीचड़ में खिलता है। यह वही आरएसएस/भाजपा हैं जिन्होंने दिवंगत मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर बताने पर लालकृष्ण आडवाणी से पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा ले लिया था। लेकिन मोदी के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से बिना राजकीय कार्यक्रम के अचानक जाकर मिलने पर कोई एतराज नहीं उठाया, क्योंकि वे समझते हैं कि मोदी ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ के लिए नवाज़ शरीफ से मिलने नहीं गए थे। वे जरूर किन्हीं बड़े व्यापारियों का हित-साधन करने गए होंगे!

मोदी के समर्थक पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोगों को गहरा नशा है कि मोदी ने मुसलमानों को हमेशा के लिए ठीक कर दिया। जब मोदी पाकिस्तान और आतंकवादियों को ठिकाने लगा देने की बात करते हैं, तब उनके समर्थकों के जेहन में मोदी की तरह भारतीय मुसलमान ही होते हैं। उन्होंने मोदी से सीख ली है, जिसे वे दुर्भाग्य से अपने बच्चों में भी संक्रमित कर रहे हैं कि मुसलमानों से लगातार घृणा में जीना ही जीवन में ‘हिंदुत्व’ की उपलब्धि है और वही ‘सच्ची राष्ट्रभक्ति’ भी है। इन लोगों को मोदी की पात्रता का अंध-समर्थक होना ही है। यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि ‘कांग्रेसी राज’ में शिक्षा, रोजगार और व्यापार की सुविधाएं पाने वाला यह मध्यवर्गीय तबका नवउदारीकरण के दौर में काफी समृद्ध हो चुका है।

थोड़ी बात नरेंद्र मोदी की करें कि वे अपनी पात्रता के बारे में क्या सोचते हैं? इधर एक फिल्म एक्टर को दिए अपने इंटरव्यू में मोदी ने कहा बताते हैं कि वे कभी-कभी कुछ दिनों के लिए जंगल में निकल जाते थे। वहां जाकर वे केवल अपने आप से बातें करते थे। उनका जुमला ‘मेरा क्या है, जब चाहूं झोला उठा कर चल दूंगा’ काफी मशहूर हो चुका है। यानी वे इन बातों से अपने वजूद में वैराग्य भाव की मौजूदगी जताते हैं। भारत समेत पूरी दुनिया के चिंतन में वैराग्य की चर्चा मिलती है। शमशान घाट का वैराग्य मशहूर है। कुछ ख़ास मौकों और परिस्थितियों में जीवन की निस्सारता का बोध होने पर व्यक्ति में वैराग्य भाव जग जाता है। वैराग्य की भावदशा में व्यक्ति सांसारिकता से हट कर सच्ची आत्मोपलब्धि (रिकवरी ऑफ़ ट्रू सेल्फ) की ओर उन्मुख होता है। हालांकि वह जल्दी ही दुनियादारी में लौट आता है। लेकिन इस तरह का क्षणिक वैराग्य और उस दौरान आत्मोपलब्धि का प्रयास हमेशा निरर्थक नहीं जाता। व्यक्ति अपनी संकीर्णताओं और कमियों से ऊपर उठते हुए जीवन को नए सिरे से देखने और जीने की कोशिश करता है।

लगता यही है कि नरेंद्र मोदी के आत्मालाप ने उन्हें केवल आत्मव्यामोहित बनाया है। वरना सामान्यत: इंसान के मुंह से कोई गलत तथ्य, व्याख्या अथवा किसी के लिए कटु वचन निकल जाए तो वह बात उसे सालती रहती है। वह अपनी गलती के सुधार के लिए बेचैन बना रहता है। अवसर पाकर अपने ढंग से गलती का सुधार भी करता है। मोदी के साथ ऐसा नहीं है। वे एक अवसर पर अज्ञान, मिथ्यात्व और घृणा से भरी बातें करने के बाद उसी उत्साह से अगले अवसर के आयोजन में लग जाते हैं। ज़ाहिर है, वे अपनी नज़र में अपनी पात्रता को संदेह और सवाल से परे मानते हैं। इसीलिए उन पर संदेह और सवाल उठाने वालों पर उन्हें केवल क्रोध आता है। मोदी ने अपना यह ‘गुण’ अपने समर्थकों में भी भलीभांति संक्रमित कर दिया है। दोनों संदेह और सवाल उठाने वाले ‘खल’ पात्रों को ठिकाने लगाने में विश्वास करते हैं।

मोदी सबसे पहले खुद अपने गुण-ग्राहक हैं. उनकी कामयाबी यह है कि अपने ‘गुणों’ को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए वे अभी तक के सबसे बड़े इवेंट मैनेजर बन कर उभरे हैं. कहना न होगा कि अपने ‘गुणों’ को प्रचारित-प्रसारित करने का यह फन उनके कारपोरेटपरस्त चरित्र से अभिन्न है. मोदी आत्ममुग्धता में यह मान सकते हैं कि कारपोरेट घराने उनके खिलोने हैं. जबकि सच्चाई यही है कि वे खुद कारपोरेट घरानों के हाथ का खिलौना हैं. साहित्य, विशेषकर यूरोपीय उपन्यास में, आत्मव्यामोहित नायकों की खासी उपस्थिति मिलती है. अपनी समस्त आत्ममुग्धता के बावजूद वे वास्तव में यथास्थितिवाद का खिलौना मात्र होते हैं. इन नायकों की परिणति गहरे अवसाद और कई बार आत्महत्या में होती है. बहरहाल, जिस तरह कारपोरेट पूंजीवाद के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है, मोदी के लिए भी वैसा ही है – वे कारपोरेट पूंजीवाद के स्वयंसिद्ध सर्वश्रेष्ठ पात्र हैं.

मोदी की पात्रता की स्वीकृति का एक महत्वपूर्ण कोना/स्रोत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति का है. अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, चीन जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य दबदबे वाले देश दुनिया के सत्ता पक्ष और विपक्ष के महत्वपूर्ण नेताओं की पूरी जानकारी रखते हैं. ऐसा नहीं है कि ये देश मोदी के इतिहास और विज्ञान के ज्ञान के बारे में नहीं जानते हैं. मोदी के साम्प्रदायिक फासीवादी होने समेत उन्हें सब कुछ पता है. अमेरिका ने गुजरात के 2002 के साम्प्रदायिक दंगों को धार्मिक स्वतंत्रता का हनन बताते हुए 2005 में मोदी के अपने देश में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. ब्रिटेन ने 2002 के दंगों के बाद गुजरात की मोदी सरकार से 10 साल तक आधिकारिक सम्बन्ध तोड़ लिए थे. अन्य कई देशों ने दंगों के लिए नरेंद्र मोदी की तीखी भर्त्सना की थी.

लेकिन जैसे ही मनमोहन सिंह के बाद निगम पूंजीवाद के स्वाभाविक ताबेदार नेता की खोज शुरु हुई, उनकी नज़र मोदी पर गई जो पहले से गुजरात में नवउदारवाद की विशेष प्रयोगशाला चला रहे थे और इस नाते कुछ देशी कारपोरेट घरानों की पहली पसंद बन चुके थे. एक विदेशी प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मुलाकात की. प्रधानमंत्री बनने पर अमेरिका ने उनका वीजा बहाल कर दिया. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें कांग्रेस का संयुक्त अधिवेशन संबोधित करने के लिए बुलाया और अपने साथ प्राइवेट डिनर का मौका प्रदान किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर ओबामा भारत के गणतंत्र दिवस पर विशिष्ट अतिथि के रूप शामिल हुए. आगे की कहानी सबको मालूम है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में खुदरा से लेकर रक्षा क्षेत्र तक – सब कुछ सौ प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया. दरअसल, नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का एक एजेंडा भारत से साम्राज्यवाद विरोध की चेतना और विरासत को नष्ट करना है. ये शक्तियां जानती हैं आरएसएस और मोदी के सत्ता में रहने से यह काम ज्यादा आसानी और तेजी से हो सकता है. नवसाम्राज्यवादी शक्तियों की नज़र में मोदी की पात्रता का यह विशिष्ट आयाम गौरतलब है.

मोदी की पात्रता की पड़ताल करने वाली यह चर्चा अधूरी रहेगी अगर इसमें प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमे की भूमिका को अनदेखा किया जाए. इस विषय में विस्तार में जाए बगैर केवल इतना कहना है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) के तत्वावधान में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले सारा सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य गड्डमड्ड कर दिया था. उसकी पूरी तफसील ‘भ्रष्टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ’ (वाणी प्रकाशन, 2015) पुस्तक में दी गयी है. नवउदारवाद के वैकल्पिक प्रतिरोध को नष्ट करके उसे (नवउदारवाद को) मजबूती के साथ अगले चरण में पहुँचाने के लक्ष्य से चलाया गया वह आंदोलन नवउदारवाद के अगले चरण के नेता को भी ले आया. विचारधारात्मक नकारवाद के उस शोर में सरकारी कम्युनिस्टों ने केजरीवाल नाम के एनजीओ सरगना में लेनिन देख लिया था और उसे मोदी का विकल्प बनाने में जुट गए थे. (मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के आह्वान के पहले ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं ने अपनी तरफ से कांग्रेस का मृत्यु-लेख लिख दिया था.) इस तरह विकल्प का संघर्ष भी अगले चरण में प्रवेश कर गया! भारतीय राजनीति में हमेशा के लिए यह तय हो गया कि अब लड़ाई नवउदारवाद और नवउदारवाद के बीच है. अर्थात नवउदारवाद के साथ कोई लड़ाई नहीं है. जो भी झगड़ा है वह जाति, धर्म, क्षेत्र, परिवार और व्यक्ति को लेकर है. या फिर देश के संसाधनों और श्रम की नवउदारवादी लूट में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने को लेकर है. वही पूरे देश में हो रहा है. यह सही है कि मोदी भ्रष्ट और अश्लील पूंजीवाद का खिलौना भर हैं, लेकिन इस रूप में वे भारत के शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं)

कारपोरेट संस्कृति में रंगे राजनीतिक दल

हमारे राजनीतिक दल कारपोरेट कंपनियों की तरह काम कर रहे हैं। उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे से मतलब है। देश, समाज और जनहित से उनका लेना देना नहीं है। यही वजह है कि हमारा देश और समाज संकट में है। उनकी एक एक हरकत की निगरानी करता फाइट फॉर राइट के फाउंडर चरण सिंह राजपूत का आलेख।

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इसे देश की विडम्बना कहें या फिर संघर्ष पर लोगों की समझौतावादी सोच का हावी होना कि जो राजनीति कारपोरेट संस्कृति की घोर विरोधी थी वह आज की तारीख में खुद कारपोरेट संस्कृति में ढल गई है। राजनीतिक दल जनता की आवाज उठाने की बजाय कारपोरेट कंपनियों में तब्दील हो गए हैं। जैसे कंपनियों में वरिष्ठ कनिष्ठ को नोकरी डर दिखाकर उसका शोषण करता है ठीक वैसे ही राजनीतिक दलों में वरिष्ठ नेता कनिष्ठ नेता को उसका पद जाने का डर दिखाकर उसका शोषण करता है। जैसी कंपनियों में बाप के बाद बेटा या फिर बेटी या फिर करीब का कोई रिश्तेदार कंपनी संभालता है वैसे ही राजनीतिक दलों में भी होने लगा है। क्षेत्रीय दलों में तो लगभग सभी दल इस पैटर्न पर चल रहे हैं। चाहे सपा हो। बसपा हो। रालोद हो। राजद हो। अकाली दल हो। इनेलों हो। डीएमके हो एनसीपी हो या फिर शिव सेना। सभी का यह हाल है। सपा में मुलायम सिंह के बाद उनका बेटा अखिलेश यादव पार्टी संभाल रहे हैं तो राजद में लालूप्रसाद के बाद उनका बेटा तेजस्वी यादव।  बसपा में मायावती ने अपने भतीजे आकाश को लांच कर दिया है। शिवसेना में बाल ठाकरे के बाद उनका बेटा उद्धव ठाकरे पार्टी संभाल रहा है तो रालोद में चरण सिंह के बाद उनका बेटा अजित सिंह और पौत्र जयंत सिंह। लोजपा में रामविलास पासवान का बेटा चिराग पासवान। राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस में गांधी परिवार का वर्चस्व है। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी। राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी और उमके बाद उनका बेटा राहुल गांधी व बेटी प्रियंका गांधी।

भाजपा में संगठन स्तर पर तो अभी काफी धर भर है। पर कई परिवार जरूर कारपोरेट कंपनियां बन गए हैं। राजनाथ सिंह, वसुंधरा राजे, धूमल सिंह जैसे कई परिवार कंपनियों की तरह राजनीति कर रहे हैं। वैसे यह पार्टी तो पूरी तरह से कारपोरेट संस्कृति को अपना रही है। अडानी अम्बानी जैसे कारपोरेट घराने ही पार्टी को फंडिंग कर रहे हैं और पार्टी भी इन पूंजीपतियों के बल बुते सत्ता हथियाकर इनके लिए ही काम कर रही है। राजनीतिक दलों में घुसी कारपोरेट संस्कृति ने न केवल जमीनी कार्यकर्ता खत्म किये हैं बल्कि जनहित में उठने वाली आवाज को भी काफी हद तक दबा दिया है। आंदोलनों को सरकारों के स्तर पर मैनेज कर लिया जाता है। संघर्ष, बलिदान और जुझारूपन की जगह पैसे, ग्लैमर,  दलाली ने ले ली है।

देश की राजनीति कारपोरेट संस्कृति में रंगने की वजह समाज में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की जगह समझौता वादी प्रवत्ति लोगों के घर कर रही है। इससे शोषण और दमन तो बढ़ ही रहा है। साथ ही तमाम दबावों के चलते आदमी अंदर से कमजोर हो रहा है। राजनीतिक दलों में पूंजीपतियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। राजनीतिक दल सत्ता में जाकर पूंजीपतियों की कठपुतली होकर रह जा रहे हैं। क्योंकि पूंजीपतियों का फायदा सीधे जनता के नुकसान से जुड़ा है इसलिए जनता ठगी का शिकार हो रही है। धंधेबाज लोगों के विधानसभाओं और संसद में पहुंचने से सदन भी जनता की आवाज की जगह धंधे बाजों की शरणस्थली बन कर रह गया है। जैसे कारपोरेट कंपनियों में स्वाभिमानी, अन्याय का विरोध करने वालों की कोई जगह नहीं होती है ऐसे ही राजनीतिक दलों में चाटुकारों का वर्चस्व बढ़ा है। जब राजनीतिक दलों में धंधेबाज चाटुकारों की भरमार हो रही है तो देश में कैसे जनता की आवाज बुलंद होगी। कैसे जनता का भला होगा। राजनीतिक दलों का काम बस नेताओं, बिल्डरों, ठेकेदारों प्रॉपर्टी डीलरों और गुंडे बदमाशों को संरक्षण देना रह गया है।

जनता को तो ये बस चुनाव के ही समय याद करते हैं। बाकी समय में तो बस कीड़े मकौड़े है। देश के मुश्किल से 30-35 परिवारों का देश की राजनीति पर कब्जा है। इन लोगों ने राजनीतिक दलों के रूप में अपनी अपनी कंपनियां खोल रखी हैं। देश की गरीब जनता की कमाई इन्हीं कंपनियों में जा रही है। ये सब कंपनियां आपस में मिली हुई हैं। इन कंपनी रूपी परिवारों के अलावा कोई अन्य परिवार से कोई युवा राजनीतिक रूप से उभर कर आता है तो इन कंपनियों के सरगनाओं के आंखों की किरकिरी बनने लगता है। जैसे आजकल पश्चिमी उत्तर प्रदेश से चंदशेखर और बिहार से कन्हैया बने हुए हैं।

चंदशेखर मायावती को नहीं पच रहे हैं तो कन्हैया लालू प्रसाद को। क्योंकि चंदशेखर मायावतो के लिए खतरा बन सकता है तो कन्हैया तेजस्वी यादव के लिए। ये राजनीति रूपी कंपनियां ऐसी हैं जहां पर गरीबी, मजदूरी, बेबसी, किसानी, आरक्षण जैसे मुद्दों का सौदा होता है। वैसे तो ये कंपनियां, गरीबी, दलित, पिछड़ों और अगड़ों के नाम पर चल रही हैं पर इन कंपनियों में पूंजीपतियों की तरह हर ऐशोआराम और अय्याशी की व्यवस्था है। कहना गलत न होगा कि ये कंपनियां देश समाज नहीं बल्कि पूंजीपतियों, अपना व अपनों का भला देखती हैं। लोकसभा चुनाव में ही देख लीजिये। अधिकतर धंधेबाज, बाहुबली, गुंडे बदमाश चुनावी मैदान में हैं। सदन में पहुंचकर ये लोग क्या करेंगे बताने की जरूरत नहीं है। पैसे और प्रभाव के बल पर टिकट खरीदने और चुनाव लड़ने वालों इन प्रत्याशियों से जनता के भले की क्या उम्मीद की जा सकती है।

 ऐसे में जनता को ही सोचना होगा कि ये राजनीतिक दल अपना भला कर रहे हैं या जनता का। कुछ लोग तो किसान और मजदूर को हो मौज मस्ती लेने वाला बताने लगे हैं। वे लोग देश के नेताओं और ब्यूरोक्रेट का चेहरा देख लें या फिर किसान और मजदूर का समझ में आ जायेगा कौन मौज मस्ती मार रहा है। यदि मेरी राय की बात है तो देश में संपत्ति बंटवारे के बिना जनता का भला नहीं हो सकता है। ये जो ब्यूरोक्रेट, राजनेताओं और पूंजीपतियों ने जनता का हक मारकर अरबो खरबो रुपये इकठ्ठे कर रखे हैं वे जनता में बंटेंगे तो तब जाकर आएगा देश में समाजवाद।

भाजपा का स्वाद बिगाड़ेंगे गन्ना किसान

चरण सिंह राजपूत

गन्ना किसानों का बढ़ता बकाया भुगतान भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में तगड़ा झटका देने वाला है। वैसे तो गन्ना मीठा होता है पर भाजपा नेताओं के लिए इसका स्वाद कड़वा होगा। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की लगभग 70 सीटों पर गन्ना किसान बकाया भुगतान न होने से राज्य सरकारों के साथ ही केंद्र सरकार से भी बहुत नाराज हैं। चुनाव में सबक सिखाने के लिए तैयार बैठे हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हो रहे पहले चरण के ही चुनाव में 8 सीटें गन्ना किसानों से प्रभावित हो रही हैं। बिजनौर, नगीना, मुजफ्फरनगर, कैराना, शामली, सहारनपुर और मेरठ में गन्ने की फसल बहुतायत में होती है। इस क्षेत्र में गन्ने के बकाया भुगतान के लिए लगातार आंदोलन हो रहे हैं। बिजनौर में तो एक आंदोलनकारी शहीद भी हो गया। मुजफ्फरनगर में किसान नेता रहे महेंद्र सिंह टिकैत का परिवार रहता है। आजकल उनके बेटों नरेश टिकैत और राकेश टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन की कमान संभाल रखी है। पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने के बकाया भुगतान के लिए भकियू संघर्षरत है।

यह वह क्षेत्र है जिसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगों का हवाला देते हुए हिंदुओं के वोटबैंक को स्वाभिमान से जोड़ दिया था। दरअसल, बिजनौर लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी भारतेंद्र सिंह की चुनावी सभा में अमित शाह ने मुजफ्फरनगर दंगे की आड़ में हिंदुओं को मुस्लिमों के खिलाफ उकसा दिया था। उससे हिंदुओं का एकतरफा वोट भाजपा को मिला था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ली गई बढ़त के बल पर ही भाजपा ने पूरे देश में चुनाव जीता था।

यह मोदी सरकार की किसानों की उपेक्षा का ही परिणाम था कि भाजपा के हाथ से मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़ और कर्नाटक राज्य निकल गए। यही वजह रही कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार ने लघु एवं सीमांत किसानों को साधने के लिए 6,000 सालाना देने की घोषणा की। पर गन्ना किसानों के बकाया भुगतान के लिए कुछ न कर सके। इस वजह से गन्ना भुगतान कम होने के बजाय बढ़ता ही गया। स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 12 हजार करोड़ रुपये बकाया है। तमाम आंदोलनों के बावजूद किसानों को बकाया भुगतान न हो सका। योगी सरकार के 14 दिनों में गन्ने का भुगतान होने के वादा भी धरा रह गया। गन्ना मिलों पर पहुंचाने के कई महीनों बाद भी भुगतान नहीं हो पा रहा है।

इस माहौल को भांपकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेरठ की एक रैली में योगी सरकार का बचाव किया था। 28 मार्च को हुई इस रैली में मोदी ने अखिलेश सरकार पर 35 हजार करोड़ रुपये योगी सरकार के जिम्मे छोड़ देने का आरोप लगाया था।

माना जा रहा है कि देशभर की चीनी मिलों पर इस पेराई सत्र का बकाया 20 हजार करोड़ रुपये के पार कर चुका है, जिसमें सबसे बड़ा उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र और कर्नाटक का मामला है। उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में से 45 और महाराष्ट्र के 36 जिलों में से 24 में लोग गन्ने की खेती पर निर्भर हैं। किसान और मजदूर दोनों इसी खेती से अपने परिवार को पालते हैं।

पिछले पेराई सीजन 2017-18 में भी गन्ना किसानों को बकाया भुगतान में देरी हुई थी। जब उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के साथ ही केंद्र में भी भाजपा की सरकार है तो चालू पेराई सीजन में हालात सुधरने के बजाय और बिगड़े हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने गन्ना किसानों के बकाया भुगतान के नाम पर चीनी मिलों को ब्याज मुक्त कर्ज देने के साथ ही चीनी के न्यूनतम बिक्री भाव में भी बढ़ोतरी की थी।

यह किसानों का आक्रोश ही है कि उत्तर प्रदेश के अमरोहा और बिजनौर जिले के कई गांवों में भाजपा नेताओं की नो एंट्री के बोर्ड लगे हुए हैं। किसानों के लिए संघर्षरत किसान मजदूर संगठन के संयोजक और किसान मजदूर पार्टी बनाने वाले बीएम सिंह का कहना है कि उत्तर प्रदेश के करीब दो करोड़ गन्ना किसानों का बकाया चीनी मिलों पर है। इससे किसानों में रोष है जिसका खामियाजा भाजपा को लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ेगा। उन्होंने किसानों की दुर्दशा के लिए भाजपा के साथ ही कांग्रेस, सपा और बसपा को भी जिम्मेदार ठहराया। वोट के नाम पर वह किसानों के नोटा बटन दबाने की बात करते हैं।

भारतीय किसान यूनियन के नेता युधवीर सिंह ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा दिए गए पैकेज के बावजूद किसानों को उनका बकाया भुगतान क्यों नहीं किया गया। क्यों अभी भी बकाया पाने के लिए किसानों को संघर्ष करना पड़ रहा है। स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के नेता और लोकसभा सदस्य राजू शेट्टी का कहना है कि बकाया भुगतान न होने से महाराष्ट्र के गन्ना किसानों को दोहरी मार पड़ी है। सूखे के चलते राज्य के किसानों को पहले ही आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। इसलिए राज्य के किसान राज्य के साथ ही केंद्र सरकार से भी नाराज हैं।

क्यों हरे रंग में रंगी भगवा भाजपा ?

चरण सिंह राजपूत

केरल में राहुल गांधी की रैली में हरे झंडे दिखाई देने पर कांग्रेस को पाकिस्तान से जोड़ने वाली भाजपा ने मुस्लिम वोटों के लिए भगवा चोले को उतारकर हरा रंग अपना लिया है। जम्मू कश्मीर में भजपा के झंडे और बैनर हरे रंग के दिखाई दे रहे हैं। भगवा रंग पर इतराने वाले भाजपाइयों ने सत्ता के लिए उस रंग को अपना लिया जिसका हवाला देकर वे लोगों के दिलों में नफरत का जहर घोलते हैं।

हरे रंग का विरोध करना भाजपा नेताओं की फितरत रही है। जिस दल के झंडे में हरा रंग आ गया भाजपा ने उसे मुसलमानों से जोड़ते हुए पाकिस्तान का हमदर्द बता दिया। हरे रंग की वजह से भाजपा ने समाजवादी पार्टी पर सबसे ज्यादा हमला बोला है। मुलायम सिंह को तो ये लोग मुल्ला मुलायम कहकर पुकारते रहे हैं। भले ही पीडीपी की सरकार को भाजपा ने समर्थन दिया हो पर हरे रंग की वजह से न केवल पीडीपी बल्कि एनसीपी को भी भाजपा नेता पाकिस्तान समर्थक बताते रहे हैं।

भाजपा सत्ता के लिए हरे रंग का इस्तेमाल करे। पत्रकार वैदिक को कुख्यात आतंकवादी हाफिज सईद के पास भेजे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने बिना किसी कार्यक्रम के पहुंच जाएं। वह सब ठीक है। यदि किसी दूसरे दल के नेता ने कुछ बोल दिया तो वह देशद्रोही हो जाएगा। पुलवामा आतंकी हमले के बाद कांग्रेस नेता नवजोत सिद्धू ने जब पाक से बातचीत की बात कही तो वह गद्दार हो गए। देशद्रोही हो गए। और जब यही बात विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कही तो वह देशभक्त हो गईं।

मतलब साफ है भाजपा सत्ता के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है। आज मुस्लिम कह दें कि यदि भाजपा नेता मस्जिदों में जाकर नवाज अदा करने लगें तो वे भाजपा को वोट देने के लिए तैयार हैं। भाजपा नेता एक मिनट नहीं लगाएंगे टोपी पहनने में और नमाज अदा करने में। भाजपा के तीन तलाक के मुद्दे में भी मुस्लिम महिलाओं के भले की सोच कम वोटबैंक की ज्यादा है।

ये सब बातें भाजपा के अंधभक्त लोगों की आंखें खोलने के लिए लिखनी जरूरी हैं। इन लोगों को देखना चाहिए। जिन लोगों को लेकर ये नेता समाज में जहर घोलने का काम कर रहे हैं। वोट के लिए ये नेता तो उन्हें गले लगा रहे हैं। उनका रंग उनकी संस्कृति अपना रहे हैं। मतलब ये नेता जाति धर्म के नाम पर लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बना दे रहे हैं। जगह जगह अपने हिसाब से वोटों की फसल तैयार कर रहे हैं।

मतलब साफ है कि हिंदुओं के वोट के लिए हरे रंग का विरोध कर भगवा रंग को बढ़ावा देना है। मुस्लिम वोट के लिए भगवा रंग को पीछे कर हरे रंग को अपनाना है। क्योंकि जम्मू कश्मीर में भगवा रंग के वोट न के बराबर हैं। वहां मुस्लिम वोट हैं। मुस्लिमों का रंग हरा है तो भाजपा ने वहां हरा रंग अपना लिया। वोट के लिए ही तो हिन्दू राष्ट्र की बात करते हैं।

जैसे राम मंदिर, हिंदुत्व के नाम पर भगवा धारण कर हिंदुओं का वोट बटोरा है। ऐसे ही भजपा हरे रंग के नाम पर मुस्लिमों का वोट बटोरने की फिराक में हैं। भाजपा फारुख अब्दुल्ला के दो प्रधानमंत्री और मुफ़्ती महबूबा के 370 खत्म करने वाले बयान को तो बहुत तूल दे रही है पर अपने हरे रंग अपनाने पर कुछ नहीं बोल रही है।

जब भाजपा का जम्मू कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने का मुख्य एजेंडा है तो फिर वहां 370 हटाने के नाम पर वोट क्यों नहीं मांग रही है। जब उत्तर भारत में राम मंदिर और हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगती है तो फिर जम्मू कश्मीर में क्यों नहीं। मतलब जैसा देश वैसा भेष। वहां हिंदुओं नहीं मुस्लिमों का वोट चाहिए। वैसे मुस्लिम देशों से नफरत करना सिखाएंगे और अवार्ड भी मुस्लिम देशों से लेंगे। भाजपा का चेहरा अब तो पूरी तरह से बेनकाब हो चुका है। हां अभी भी भक्त संशय में हैं।