मजीठिया : सुप्रीम कोर्ट का आदेश 19 जून 2017

श्रीकांत सिंह।

मजीठिया अवमानना मामले पर सुप्रीम कोर्ट के 19 जून 2017 के आदेश को लेकर तरह तरह की आशंकाओं और भ्रम के कारण लोग इस दुविधा में हैं कि उनका हक मिलेगा भी या नहीं। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आपको आपका हक मिलेगा और जरूर मिलेगा, लेकिन थोड़ा संघर्ष तो करना ही होगा। आपको बता दें कि मजीठिया पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से मालिकान डरे हुए हैं। इस डर का ही परिणाम है कि जागरण प्रकाशन लिमिटेड का एक निवेशक निकल भागा है। शायद उसे शक है कि मजीठिया देना पड़ गया तो उसका नुकसान उसे भी होगा। यहां हम सुप्रीम कोर्ट का आदेश यथावत अपलोड कर रहे हैं और बाद में हिंदी वर्जन भी अपलोड करेंगे। आप उस आदेश को ठीक से पढ़ें और उसके अनुसार अपने क्षेत्र के उपश्रमायुक्‍त से कदम उठाने का अनुरोध करें।

न्‍याय व्‍यवस्‍था का काला अध्‍याय  

श्रीकांत सिंह।

अराजकता तभी आती है, जब न्‍याय व्‍यवस्‍था फेल हो जाती है। सबसे पहले सक्षम लोग अराजकता फैलाते हैं और शोषण पर टिकी व्‍यवस्‍था परवान चढने लगती है। अक्षम लोगों पर अत्‍याचार इतना बढ जाता है कि वे हथियार उठाने को बाध्‍य हो जाते हैं। नक्‍सल समस्‍या तो इसका एक उदाहरण भर है। भविष्‍य कितना भयावह होने जा रहा है, उसका अंदाजा लगाना भी कठिन है। मजीठिया अवमानना मामले में 19 जून 2017 को सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है, वह न्‍याय व्‍यवस्‍था के काले अध्‍यायों में दर्ज हो चुका है।

बडी मुश्किल से छोटे पत्रकारों की बडी टीम सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पहुंची। वर्षों तक केस को लटकाए रखा गया। अंत में फैसला वही ढाक के तीन पात। ताजा फैसले में कुछ भी नया नहीं है। अवमानना के केस का मतलब ही यही है कि अदालत के आदेश का उल्‍लंघन करने वालों को दंडित किया जाए, ताकि भविष्‍य में वे ऐसी जुर्रत न कर सकें।

तो दोषियों को दंडित कौन करेगा। न्‍याय पालिका ने तो पल्‍ला झाड लिया है। क्‍या इसका मतलब यही समझा जाए कि लोग खुद निपट लें। न्‍याय पालिका, पुलिस, प्रशासन आदि के अधिकारी क्‍या लोगों की गाढी कमाई से जुटाए गए राजस्‍व से केवल सैलरी उठाएंगे और कोई काम नहीं करेंगे। उन्‍हें कर्तव्‍य बोध कौन कराएगा।

हमारे नेता तो आते रहेंगे जाते रहेंगे। हर पांच साल बाद जुमले छोड कर आपको मूर्ख बनाएंगे और भारी बहुमत से जीत हासिल कर लेंगे। आखिर कब तक चलेगा यह सब। कौन है जो न्‍याय पालिका को पंगु बना रहा है। कौन है जो इस देश को अराजकता की आग में झोंकने की साजिश रच रहा है। उसे पहचानना और दंडित करना जरूरी हो गया है, क्‍योंकि यह देश हमारा है, उनका नहीं।

 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की कॉपी लेकर लग जाएं अधिकारियों के पीछे

श्रीकांत सिंह।

पिछले आलेख का संदर्भ लें तो हमने कहा था कि मायूस होने के बजाय सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठीक से पढने और समझने की जरूरत है। मैंने आज ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पूरा पढा और जो मेरी समझ में आया उसे आपके सामने रख रहा हूं। अगर आपको कहीं संदेह लगे तो आप भी आदेश को पढें और उस संदर्भ में मुझसे चर्चा कर सकते हैं। मेरा मेल आईडी-srikant06041961@gmail.com है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर जो आशंका जताई जा रही है वह यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने पुन: हमें श्रम आयुक्‍त या लेबर कोर्ट का रास्‍ता दिखा दिया है, जबकि कोर्ट का आदेश कहता है- Section 17 of the act deals with recovery of money due from an employer. As a core issue on the maintainability of the presrnt contempt cases centers around the remedy provided for by the aforesaid provision of the act, section 17 of the Act may be set out hereunder. यानी, सुप्रीम कोर्ट में दायर अवमानना मामलों को न्‍यायसंगत ढंग से निपटाने के लिए धारा 17 के तहत प्रावधान किए गए हैं, जिनका निस्‍तारण संबंधित अधिकारारियों द्वारा ही संभव है। इस बारे में धारा 17 के विभिन्‍न खंडों में विस्‍तार से जानकारी दी गई है। अब आप सोच रहे होंगे कि वे अधिकारी हमें टरकाने लगेंगे तो हम क्‍या करेंगे… उसके लिए आपको जीवटता तो दिखानी ही पडेगी। आपको अधिकारियों पर दबाव बनाने के लिए एकजुटता दिखानी होगी और संयुक्‍त रूप से अधिकारियों को घेरना होगा और सुप्रीम कोर्ट का आदेश दिखाकर उन्‍हें काम करने के लिए बाध्‍य करना होगा, क्‍योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उनके लिए स्‍पष्‍ट निर्देश दे रखा है। देखें-धारा 17-1, 17-2, 17-3।

इसी प्रकार कहा जा रहा है कि 20-जे के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कुछ स्‍पष्‍ट नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का आदेश पढें तो उसमें साउथ इंडिया इस्‍टेट लेबर रिलेशंस आर्गनाइजेशन बनाम स्‍टेट ऑफ मद्रास की नजीर देकर समझाया गया है कि सेवायोजकों की यह शिकायत नहीं सुनी जा सकती कि उनके कर्मचारी इस आधार पर कम वेतन पर काम करना चाहते हैं कि वे अत्‍यंत गरीब और असहाय हैं।

तबादला, निलंबन और प्रताडना मामलों के संदर्भ में भी कुछ इसी तरह की बात कही जा रही है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का आदेश कहता है कि ऐसे मामलों का निस्‍तारण उचित प्राधिकारी ही कर सकते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि संबंधित अधिकारी मनमानी करने के लिए स्‍वतंत्र हैं। उन अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट का आदेश दिखाकर उनसे काम कराया जा सकता है। ये अधिकारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना नहीं कर पाएंगे मगर आपको भी सख्‍ती दिखानी होगी।

पत्रकार भाई मायूस न हों, मजीठिया पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठीक से समझें

श्रीकांत सिंह।

लंबी प्रतीक्षा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 19 जून 2017 को मजीठिया अवमानना मामले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया तो खबरों का भवंरजाल कुछ इस तरह से फैला कि लोग भ्रमित होने लगे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर फैसले की कॉपी अपलोड हो गई है, लेकिन लोगों का भ्रम दूर नहीं हो रहा है। इस वजह से तमाम पत्रकार और गैर पत्रकार अखबार कर्मचारी मायूस होने लगे हैं। जबकि मायूस होने के उतने कारण नहीं हैं, जितने कि लोग मायूस होने लगे हैं। पहली बार मजीठिया मामले को इतनी बड़ी कवरेज मिली है और गूगल समाचार पर मजीठिया अवमानना मामले पर फैसले से संबंधित खबरें फ्लैश हो रही हैं।

मौखिक तौर भी तमाम भ्रामक बातें फैल रही हैं। कोई कह रहा है कि श्री अरुण जेटली ने श्री रंजन गोगोई से अखबार मालिकों की डील कराई है तो कोई कह रहा है कि 16 जून को केंद्र सरकार की ओर से बुलाई गई बैठक में ही सबकुछ सेट करा दिया गया था। खैर, सुप्रीम कोर्ट का आदेश अपनी जगह पर बरकरार है और बहुत सारी उलझनें भी सुलझा दी गई हैं। अब जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठीक से पढ़ा जाए और उसके अनुरूप अपने हक के लिए लड़ा जाए। किस समाचार माध्‍यम ने क्‍या लिखा है, उसे धन्‍यवाद और साभार ज्‍यों का त्‍यों हम यहां दे रहे हैं। उन समाचारों को पढ़ कर आपको काफी कुछ समझने में मदद मिलेगी। आपको जो समझ में न आए, उस बारे में हमारी मेल आईडी-srikant06041961@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।

बीबीसी हिंदी

मजीठिया वेज बोर्डः सुप्रीम कोर्ट का फैसला, कौन हारा कौन जीता?

संदीप राय बीबीसी संवाददाता, दिल्ली।

मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने अख़बार मालिकों को ‘विलफ़ुल डिफॉल्टर’ यानी जानबूझ कर अवमानना करने वाला नहीं माना. सोमवार को फैसला देते हुए कोर्ट ने कर्मचारियों की ओर से दायर अवमानना याचिका को खारिज कर दिया लेकिन साथ ही वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए अख़बार समूहों और समाचार एजेंसियों को एक और मौका दिया.

कर्मचारी इसे अपने हक़ में बड़ा फैसला मान रहे हैं जबकि इस मामले में पैरवी करने वाले दोनों पक्षों का वकील इसे संतुलित फैसला मान रहे हैं. आइए पांच बिंदुओं में जानते हैं कि ताज़ा फैसला क्या है और इसमें कर्मचारियों और अख़बार समूहों के मालिकों के लिए क्या आदेश दिए गए हैं.

कर्मचारियों के लिए क्या हैं मायने?

फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कांट्रैक्चुअल कर्मचारी, 20-जे और वैरिएबल पे को स्पष्ट करते हुए कहा है कि संस्थान में नियुक्त स्थायी और अस्थायी कर्मचारियों को समान रूप से नये वेतनमान का लाभ मिलना चाहिए. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों में 20-जे एक विवादास्पद धारा रही है जिसमें संस्थान और कर्मचारियों के समझौते पर आधारित वेतन देने की बात कही गई थी.

कर्मचारियों का कहना है कि इसकी आड़ में संस्थान नया वेतनमान लागू करने से बचते रहे हैं. कई संस्थानों ने इस बावत मौजूदा वेतन पर सहमति के हस्ताक्षर करवाकर सबूत के तौर पर कोर्ट में इसे पेश भी किया. लेकिन अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 20-जे के तहत केवल कर्मचारी को लाभ की स्थिति में ही समझौता मान्य होगा यानी कम वेतन पर समझौता मान्य नहीं होगा.

कोर्ट ने वैरियेबल पे (परिवर्तनीय वेतन) लागू करने का भी साफ़ निर्देश दिया है. इससे उन संस्थानों के कर्मचारियों को फ़ायदा होगा, जहां नया वेतनमान तो लागू हो गया है लेकिन वैरिएबल पे को छोड़ दिया गया है.

क्या कहते हैं कर्मचारी?

दैनिक जागरण समूह के ख़िलाफ़ कोर्ट में जाने वाले याचिकाकर्ताओं में से एक अशोक राणा ने बीबीसी से कहा, “इस फैसले से कर्मचारियों के एक बड़े हिस्से को फ़ायदा होने वाला है, लेकिन बहुत सारे कर्मचारी फिर से पुरानी स्थिति में आ गए हैं.”

अशोक राणा के अनुसार, ‘कोर्ट ने स्थायी और अनुबंध पर रखे गए पत्रकारों के बीच कोई भेद मानने से इनकार किया है. इससे उन कर्मचारियों को फ़ायदा होगा जहां वेतन सिफ़ारिशें लागू हुई हैं लेकिन अनुबंध के कर्मचारियों को इससे अलग रखा गया है, जैसे समाचार एजेंसी पीटीआई या इंडियन एक्सप्रेस समूह.’

वो इस फैसले को कर्मचारियों की आंशिक जीत मानते हैं, “कोर्ट ने भले ही मालिकों को विलफ़ुल डिफ़ाल्टर नहीं माना, हालांकि कोर्ट के सामने इसकी कई नज़ीर थी और अवमानना का मामला खारिज कर दिया.” दैनिक जागरण के कर्मचारियों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करने वाले जाने माने वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंजाल्विस ने इसे ‘कर्मचारियों के पक्ष में बड़ा फैसला’ बताया है. उन्होंने कहा, “कांट्रैक्चुअल कर्मचारियों, वैरिएबल पे और 20 जे- पर स्पष्ट आदेश कर्मचारियों के लिए बहुत बड़े फायदे की बात है.”

अख़बार समूहों पर क्या असर पड़ेगा?

 इस मामले में दैनिक जागरण और टाइम्स ग्रुप की ओर से पैरवी कर चुके सुप्रीम कोर्ट के वकील वीरेंद्र कुमार मिश्रा, इस फैसले को बहुत ‘संतुलित’ मानते हैं. उन्होंने बीबीसी से कहा, “माननीय कोर्ट का फैसला बहुत संतुलित है. इसमें एक तरफ़ कर्मचारियों की चिंताओं को दूर किया गया है तो दूसरी तरफ़ मालिकों को वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों को ईमानदारी से लागू करने का मौका दिया है.”

एडवोकेट वीरेंद्र मिश्रा के अनुसार, कोर्ट ने कहा है कि नियोक्ता के साथ आगे के किसी भी विवाद को एक प्रक्रिया के तहत श्रम आयुक्त, श्रमिक अदालत या संबंधित तंत्र के मार्फ़त हल किया जाय.

कुछ कर्मचारी क्यों हैं निराश?

दैनिक जागरण के ख़िलाफ़ मुख्य याचिकाकर्ता अभिषेक राजा फैसले के इस हिस्से को ‘निराशाजनक’ बताते हैं. राजा कहते हैं, “कोर्ट में क़रीब चार साल की लड़ाई का नतीजा ये है कि हम फिर से लेबर कोर्ट के चक्कर लगाएं.” उनके अनुसार, “ये फैसला फिर उसी जगह चला गया है, जब 7 फ़रवरी 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों को मानने का आदेश दिया था.”

अभिषेक राजा का कहना है कि ‘कर्मचारी बड़ी उम्मीद में थे कि अदालत वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें लागू करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित करेगी. लेकिन लगता है कर्मचारियों को अभी लंबी अदालती लड़ाई लड़नी पड़ेगी.’

इंडियन एक्स्प्रेस न्यूज पेपर्स वर्कर्स यूनियन के महासचिव पीयूष वाजपेयी कहते हैं, “वेज बोर्ड की सिफ़ारिशों को लागू करने की मांग करने वाले जिन कर्मचारियों की नौकरी चली गई, उनका ट्रांसफ़र हुआ, उस पर कोई दिशा निर्देश आने की उम्मीद की जा रही थी.” अभिषेक राजा के अनुसार, अकेले दैनिक जागरण समूह में 300 कर्मचारियों को निकाला गया था.

क्या है मामला?

पिछली यूपीए सरकार ने पत्रकारों के वेतन को पुनः निर्धारण के लिए मजीठिया वेज बोर्ड गठित किया था. बोर्ड पूरे देश भर के पत्रकारों और मीडिया कर्मियों से बातचीत कर सरकार को अपनी सिफ़ारिश भेजी थीं. तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने इन सिफ़ारिशों को मानते हुए, इसे लागू करने के लिए अधिसूचना जारी की थी.

लेकिन अख़बार मालिकों ने इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और फ़रवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे लागू करने के आदेश पर मुहर लगा दी. कोर्ट ने अप्रैल 2014 से एरियर और नए मानदंडों पर वेतन और एक साल के अंदर एरियर देने का आदेश दिया. लेकिन जब संस्थानों ने इसे लागू नहीं किया तो कर्मचारी अवमानना की याचिका लेकर फिर उसी अदालत में पहुंच गए.

इस मामले में विभिन्न अख़बारों और समाचार एजेंसियों के कर्मचारियों की ओर से कुल 83 याचिकाएं आईं, जिनमें क़रीब 10,000 कर्मचारी शामिल थे. सबसे पहले इंडियन एक्सप्रेस की यूनियन ने अगस्त 2014 में अवमानना याचिका दायर की थी. लेकिन मामले बढ़ते गए और अलग अलग सुनवाई कर पाना मुश्किल हो गया तो सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी मुकदमों को एक साथ नत्थी कर दिया और संयुक्त सुनवाई शुरू की थी.

————— 

एनडीटीवी इंडिया

मजीठिया केस : अखबार मालिक अवमानना के दोषी नहीं, कॉन्ट्रैक्चुअल कर्मियों को भी लाभ दें: सुप्रीम कोर्ट

मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू ना करने पर देश के बड़े अखबार समूहों के खिलाफ दाखिल अदालत की अवमानना के मामले में फैसला सुनाया है.

आशीष कुमार भार्गव की रिपोर्ट, नई दिल्ली।

सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू ना करने पर देश के बड़े अखबार समूहों के खिलाफ दाखिल अदालत की अवमानना के मामले में फैसला सुनाया है. कोर्ट ने कहा कि अखबार समूहों ने आदेश के बावजूद डिफॉल्ट किया लेकिन ये जानबूझकर नहीं किया इसलिए उनके खिलाफ अवमानना का मामला नहीं बनता. साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि वित्तीय घाटा वेज बोर्ड लागू न करने की कोई वजह नहीं. कोर्ट ने इसे लागू करने के लिए जो एक्ट में प्रावधान हैं उसी मशीनरी के तहत मामले का निपटारा करने के आदेश दिए.  मजीठिया आयोग की सिफारिशें सभी रेगुलर और कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मियों पर लागू होंगी.

तीन मई को कोर्ट ने सारी दलीलों की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी, 2014 को मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप पत्रकारों व गैर पत्रकार कर्मियों को वेतनमान, एरियर समेत अन्य वेतन परिलाभ देने के आदेश दिए थे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के अनुसार नवम्बर 2011 से एरियर और अन्य वेतन परिलाभ देने के आदेश दिए, लेकिन इस आदेश का पालन मीडिया संस्थानों ने नहीं किया.

देश के बड़े समाचार समूहों में वेजबोर्ड लागू नहीं किया गया. आरोप है कि मीडिया संस्थानों ने वेजबोर्ड देने से बचने के लिए मीडियाकर्मियों से जबरन हस्ताक्षर करवा लिए कि उन्हें मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतन परिलाभ से वंचित रखा. जिन कर्मचारियों ने इनकी बात नहीं मानी, उन्हें स्थानांतरण करके प्रताड़ि किया जा रहा है. कईयों को नौकरी से निकाल दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों, श्रम विभाग और सूचना व जन सम्पर्क निदेशालयों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए जिम्मेदारी तय की है, लेकिन वे इसकी पालना नहीं करवा रहे हैं. वेजबोर्ड लागू नहीं करने पर पत्रकारों व गैर पत्रकारों ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिकाएं दायर की. इसके बाद देशभर से सभी बड़े अखबारों के खिलाफ अवमानना याचिकाएं लगी.

———————–

 

नवभारत टाइम्‍स

शीर्ष अदालत ने मजीठिया वेजबोर्ड सिफारिशें लागू नहीं करने के मुद्दे पर अपना फैसला सुनाया

नयी दिल्ली, 19 जून (भाषा)।  

उच्चतम न्यायालय ने आज कहा कि कुछ अखबार संस्थानों द्वारा पत्रकारों एवं गैरपत्रकारों के वेतनमान पर मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों को पूरी तरह से लागू नहीं करना जानबूझाकर की गई ऐसी चूक नहीं है जो अवमानना मानी जाए।

शीर्ष अदालत ने कहा कि उसने सात फरवरी 2014 को अपने फैसले में वेजबोर्ड सिफारिशों को मंजूरी दी थी और इसलिए इन्हें पूरी तरह से लागू करना होगा।

शीर्ष अदालत ने वेजबोर्ड की सिफारिशों और उसके फैसले को लागू करने का एक और मौका दिया और कहा कि सिफारिशों को लागू नहीं करना या इनका कुछ हिस्सा लागू करना संबंधित अखबारी संस्थानों द्वारा खास तरीके से सिफारिशों को समझाने के कारण होता है। शीर्ष अदालत ने पत्रकारों, गैरपत्रकारों और संघों द्वारा दायर 83 अवमानना याचिकाओं का निपटारा करते हुए अपना फैसला सुनाया।

न्यायमूर्त रंजन गोगोई और न्यायमूर्त िनवीन सिन्हा की पीठ ने कहा कि कथित चूक :डिफाल्ट: इस अदालत द्वारा बरकरार रखी गईं सिफारिशों की गलत समझा के कारण हुई है। यह अदालत अवमानना अधिनियम 1971 की धारा 2 :बी: के तहत परिभाषित दीवानी अवमानना के दायित्व की तरफ जाने वाली इरादतन चूक नहीं मानी जाएगी।

पीठ ने कहा कि कथित चूक वैसे तो स्पष्ट रूप से हमारे लिए साक्ष्य है, इसे करने की इरादतन मंशा का अभाव किसी भी अखबारी संस्थान को अवमानना का भागी नहीं बना सकता। वहीं दूसरी ओर, जो कुछ हमने कहा उसके आलोक में, वे सिफारिशों को उनकी उचित भावना एवं प्रभाव में लागू करने के एक और अवसर के हकदार हैं।

पीठ ने कहा कि सिफारिशों का उपबंध 20 :जे: और श्रमजीवी पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र कर्मचारी :सेवा की स्थितियां: एवं विविध प्रावधान अधिनियम 1955 इसमें परिभाषित हर समाचारपत्र कर्मचारी को वेतन :वेज: प्राप्त करने का हकदार बनाता है, जैसी कि वेजबोर्ड ने सिफारिश की है और केन्द्र सरकार ने इसे मंजूरी दी है एवं अधिसूचित किया है।

————————————————-

इनाडू इंडिया

कांट्रैक्चुअल कर्मचारियों को भी देना होगा मजीठिया वेजबोर्ड का लाभ : सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली।

सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया संस्थानों में काम करनेवाले पत्रकारों और गैर पत्रकारों को लेकर जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशें लागू नहीं करने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करने पर आज फैसला सुना दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि किसी भी मीडिया संस्थान में काम करनेवाले कांट्रैक्चुअल कर्मचारियों को भी मजीठिया वेजबोर्ड का लाभ देना होगा।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने सात फरवरी 2014 को मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशें लागू करने के अपने फैसले पर मुहर लगाते हुए सभी मीडिया संस्थानों को इसे लागू करने का निर्देश दिया है। पिछले तीन मई को कई याचिकाओं पर सुनवाई पूरी होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।

————-

सत्‍याग्रह

मजीठिया वेज बोर्ड विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने कर्मचारियों के पक्ष में फैसला सुनाया

सुप्रीम कोर्ट ने अखबार मालिकों को वेज बोर्ड की सभी सिफारिशें लागू करने और कर्मचारियों के बकाया वेतन-भत्ते का तय समय में भुगतान करने का निर्देश दिया है

सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर पत्रकारों और अखबार मालिकों के बीच जारी विवाद में कर्मचारियों के पक्ष में फैसला सुनाया है. खबरों के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने सभी प्रिंट मीडिया समूहों को मजीठिया वेज बोर्ड की सभी सिफारिशें लागू करने का निर्देश दिया है. जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि ये समूह वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करते हुए नियमित और संविदा कर्मियों के बीच कोई अंतर नहीं करेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट की अवमानना याचिका पर यह फैसला सुनाया है. अदालत ने इस पर तीन मई को फैसला सुरक्षित रख लिया था.

समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि अखबारों को अपने कर्मचारियों को 11 नवंबर 2011 से मजीठिया वेज बोर्ड द्वारा तय वेतन और भत्तों का भुगतान करना होगा. इसके अलावा मार्च 2014 तक के बकाया वेतन-भत्तों का एक साल के भीतर चार किश्तों में भुगतान करना होगा. मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लेकर अखबारी समूहों की दलील थी कि ये सिफारिशें लागू करना उनकी आर्थिक क्षमता से बाहर है. उनका यह भी कहना था कि अगर इन्हें लागू करने में जोर-जबरदस्ती की गई तो अखबार आर्थिक समस्याओं में घिर सकते हैं.

प्रिंट मीडिया से जुड़े पत्रकारों और गैर-पत्रकारों के वेतन भत्तों की समीक्षा करने के लिए कांग्रेसनीत पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने 2007 में मजीठिया वेतन बोर्ड बनाया था. इसने चार साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, जिसे केंद्रीय कैबिनेट ने स्वीकार कर लिया था. इसे 11 नवंबर 2011 को अधिसूचित कर दिया गया था. लेकिन, अखबारी समूहों ने इसे मानने से इनकार करते हुए इसे अदालत में चुनौती दी थी. इसके बाद फरवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने वेज बोर्ड की सिफारिशों पर मुहर लगाते हुए इसे लागू करने का निर्देश दिया था.

———————————————————————-

जनप्रहरी एक्‍सप्रेस

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: उसे ही मिलेगा मजीठिया वेजबोर्ड, जो लेबर कोर्ट में लड़ेगा

जयपुर।

मजीठिया वेजबोर्ड लागू नहीं करने पर दायर अवमानना याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने आज सोमवार को फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश रंजन गोगोई व जस्टिस नवीन सिन्हा की खंडपीठ ने दोपहर तीन बजे यह फैसला सुनाते हुए कहा कि वेजबोर्ड से संबंधित मैटर संबंधित लेबर कोर्टों में सुने जाएंगे।

वेजबोर्ड में बन रहा पत्रकारों व गैर पत्रकारों का एरियर समेत व अन्य वेतन भत्ते संबंधित लेबर कोर्ट या अन्य कोर्ट में ही तय किए जाएं। संबंधित कोर्ट इन पर त्वरित फैसला करें। वेज बोर्ड में सबसे विवादित बिंदू 20-जे के संबंध में कोर्ट ने कहा कि 20-जे को लेकर एक्ट में कोई विशेष प्रावधान नहीं है। इसलिए इसका फैसला भी संबंधित कोर्ट ही तय करेगी। कोर्ट ने यह भी कहा कि अवार्ड को गलत समझने के चलते मीडिया संस्थानों पर कंटेम्प्ट नहीं बनती।

अवमानना याचिकाओं में दायर ट्रांसफर, टर्मिनेशन व अन्य प्रताडऩाओं के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कोई निर्देश नहीं दिए। सुप्रीम कोर्ट के 36 पेजों में दिए गए फैसले से साफ है कि कोर्ट ने मीडिया संस्थानों के खिलाफ कटेम्प्ट को नहीं माना लेकिन साफ कहा भी है कि कर्मचारियों को वेजबोर्ड दिया और वेजबोर्ड से संबंधित एरियर वेतन भत्ते कर्मचारियों की प्रताडऩा आदि से संबंधित मामलों की जिम्मेदारी लेबर कोर्ट पर डाली है। अब लेबर कोर्ट ही पत्रकारों व गैर पत्रकारों के मामले में फैसला देगा। इससे स्पष्ट है कि जिसे वेजबोर्ड चाहिए उसे लेबर कोर्ट ही जाना ही होगा।

गौरतलब है कि करीब ढाई साल से वेजबोर्ड के लिए देश के हजारों पत्रकार व गैर पत्रकार सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड की सिफ ारिशों को लागू नहीं करने पर देश के नामचीन मीडिया संस्थान राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, जागरण, अमर उजाला, पंजाब केसरी समेत कई मीडिया संस्थानों के खिलाफ पत्रकारों व गैर पत्रकारों ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका लगाई। दो साल सुनवाई के बाद पिछले महीने कोटज़् ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। पत्रकारों की ओर से सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंजालविस, परमानन्द पांडे ने पैरवी की, वहीं मीडिया संस्थानों की तरफ से देश के नामचीन वकील मौजूद रहे।

यह है मजीठिया वेजबोर्ड प्रकरण

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 7 फरवरी, 2014 को मजीठिया वेतन आयोग की सिफ सिफारिशों के अनुरुप पत्रकारों व गैर पत्रकार कमिज़्यों को वेतनमान, एरियर समेत अन्य वेतन परिलाभ देने के आदेश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के अनुरुप नवम्बर 2011 से एरियर और अन्य वेतन परिलाभ देने के आदेश दिए हैं, लेकिन समानता, अन्याय के खिलाफ लडऩे, सच्चाई और ईमानदारी का दंभ भरने वाले राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक नवज्योति, महानगर टाइम्स, राष्ट्रदूत, ईवनिंग पोस्ट, ईवनिंग प्लस, समाचार जगत, सांध्य ज्योति दपज़्ण आदि कई दैनिक समाचार पत्र है, जिन्होने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की पालना नहीं की।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उडाते हुए राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर जैसे बड़े समाचार पत्रों में तो वहां के प्रबंधन ने मानवीय पहलु और कानूनों को ताक में रखकर अपने कर्मचारियों से जबरन हस्ताक्षर करवा लिए, ताकि उन्हें मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतन परिलाभ नहीं दे पाए। हस्ताक्षर नहीं करने वाले कर्मचारियों को स्थानांतरण करके प्रताडि़त किया गया। सैकड़ों पत्रकारों व गैर पत्रकारों के दूरस्थ क्षेत्रों में तबादले कर दिए गए।

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों, श्रम विभाग और सूचना व जन सम्पर्क निदेशालयों को मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए जिम्मेदारी तय की है, लेकिन इन्होंने कोई पालना नहीं करवाई। जबकि मजीठिया वेजबोर्ड बनने के साथ ही केन्द्र सरकार ने समाचार-पत्रों पर वेतन-भत्तों का बोझ नहीं पड़े, इसके लिए विज्ञापन दरों में बढ़ोतरी समेत कई अन्य रियायतें प्रदान कर दी थी। वषज़् 2008 से देश-प्रदेश के समाचार पत्रों में सरकारी विज्ञापन बढ़ी दरों पर आ रहे हैं और दूसरी रियायतें भी उठा रहे हैं।

छह साल में विज्ञापनों से समाचार-पत्रों ने करोड़ों-अरबों रुपए कमाए, लेकिन इसके बावजूद समाचार-पत्र प्रबंधन अपने कमज़्चारियों को मजीठिया वेजबोर्ड के तहत वेतन परिलाभ नहीं दे रहे हैं। जब आदेशों की पालना नहीं हुई तो देश भर के पत्रकारों व गैर पत्रकारों ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिकाएं लगाकर मीडिया संस्थानों के खिलाफ मोर्चा खोला। यूपी, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, छत्तीसगढ़, बिहार आदि राज्यों से सवाज़्धिक अवमानना याचिकाएं लगी।

————————————————————–

सबगुरु न्‍यूज

बडी खबर : मीडिया मालिकों को करना पडेगा मजीठिया वेज बोर्ड के अनुरूप भुगतान

नई दिल्ली।

मजीठिया वेज बोर्ड अवमानना मामले में सोमवार को आखिरकार सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आ गया। फैसले इस फैसले से तय हो गया की प्रिंट मीडिया के कर्मचारियों को मजीठिया वेज बोर्ड का लाभ जरूर मिलेगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी मीडिया मालिक को अवमानना का दोषी नहीं माना साथ ही वेजबोर्ड के लिए लड़ने वाले पत्रकारों को लेबर कोर्ट जाने और रिकवरी इशू कराने की सलाह दी है। सुप्रीमकोट जजों ने फैसले में मीडिया मालिकों को अवमानना का दोषी न मानने के पक्ष में लंबी चौड़ी दलीलें पेश की हैं।

पत्रकारों के पक्ष में ये कहा

सुप्रीम कोर्ट ने अखबार मालिकों को वेज बोर्ड की सभी सिफारिशें लागू करने और कर्मचारियों के बकाया वेतन-भत्ते का तय समय में भुगतान करने का निर्देश दिया है। जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि ये समूह वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करते हुए नियमित और संविदा कर्मियों के बीच कोई अंतर नहीं करेंगे। बता दें कि अदालत ने इस पर तीन मई को फैसला सुरक्षित रख लिया था।

क्या है मजीठिया मामला

प्रिंट मीडिया से जुड़े पत्रकारों और गैर-पत्रकारों के वेतन भत्तों की समीक्षा करने के लिए कांग्रेसनीत पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने 2007 में मजीठिया वेतन बोर्ड बनाया था। इसने चार साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, जिसे केंद्रीय कैबिनेट ने स्वीकार कर लिया था।

इसे 11 नवंबर 2011 को अधिसूचित कर दिया गया था। लेकिन, अखबारी समूहों ने इसे मानने से इनकार करते हुए इसे अदालत में चुनौती दी थी। इसके बाद फरवरी 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने वेज बोर्ड की सिफारिशों पर मुहर लगाते हुए इसे लागू करने का निर्देश दिया था।

बता दें कि अखबारों में कार्यरत कर्मियों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को अप्रेल 2014 में सुप्रीमकोर्ट द्वारा वैध ठहराने के बावजूद भी मीडिया घरानों ने कर्मचारियों को उनका हक नहीं दिया। ऐसे में इस मामले में अवमानना याचिका दाखिल की गई। लंबी लडाई और उससे भी लम्बी सुप्रीमकोर्ट की सुनवाई के बाद सोमवार को फैसला आया।

जानकारों का कहना है

इस बीच कानून के कुछ जानकारों का कहना है कि कानूनी पेचीदगियों के बीच सुप्रीमकोर्ट का यह फैसला पत्रकारों को किसी तरह का नुकसान पहुंचाने वाला नहीं बल्कि राहत देने वाला है वह इसलिए कि मीडिया समूह मजीठिया की जिन धाराओं का गलत मतलब निकाल कर पैसा देने से बच रहे थे उनमें से अधिकतर पर सुप्रीमकोर्ट ने अपनी राय रख दी है, लेबर कोर्ट को इसी के अनुरूप काम करना होगा। राजस्थान से जुडे अधिकतर पत्रकार जो इस लडाई से जुडे हुए है वे पहले से ही व्यवस्थित तरीके से लेबर कोर्ट में जा चुके हैं।

यूं आसानी से समझें सुप्रीम कोर्ट का आदेश

  1. सभी अखबारों के लिए मजीठिया लागू करना जरूरी।
  2. धारा 20-j खारिज
  3. जो जो लोग भी मजीठिया लेना चाहते हैं उन सभी को लेबर कोर्ट में अप्लाई करना होगा।
  4. मजीठिया के लिए स्थाई और ठेके पर रखे गए लोग सभी हकदार है।
  5. एरियर की गणना लेबर कोर्ट करेगा।
  6. टर्मिनेशन और ट्रांसफर के केस भी केस टू केस लेबर कोर्ट ही सुनेगा।
  7. मजीठिया वेज बोर्ड को सही तरह से नही समझ पाने के कारण मालिको पर अवमानना नहीं होती है।
  8. लेबर कोर्ट के लिए कोई समय सीमा तय नहीं।
  9. सभी राज्य सरकारों और लेबर कोर्ट को मजीठिया लागू करने के निर्देश।
  10. लेबर कोर्ट से RCC कटवानी होगी।

—————————————-

खास खबर

अखबारों को मजीठिया बोर्ड की सिफारिशें पूरी लागू करनी होंगी : SC

नई दिल्ली।

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को निर्देश दिया कि समाचार पत्रों के कर्मचारियों के वेतनों पर मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करना होगा और प्रबंधन भुगतान से बचने के लिए फंड की कमी का हवाला नहीं दे सकता।

न्यायालय ने सोमवार को अपने फैसले में कहा कि जहां तक मजीठिया बोर्ड की सिफारिशों को लागू करने का सवाल है, तो पूर्णकालिक तथा ठेके के कर्मचारियों में कोई अंतर नहीं है। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ ने तीन मई को इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट सहित समाचार पत्र कर्मचारी संघों की अवमानना याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। न्यायालय ने सोमवार को कहा कि समाचार पत्रों ने अदालत के पहले के आदेशों की अवमानना जानबूझ कर नहीं की।

इससे पहले, कई समाचार पत्रों के वकीलों ने दलील दी कि वेतन बोर्ड की सिफारिशें उनके भुगतान करने की क्षमता से बाहर होंगी। प्रिंट मीडिया कंपनियों ने कहा कि भुगतान के लिए मजबूर किए जाने से समाचार पत्रों की वित्तीय व्यवस्था चरमरा जाएगी। समाचार पत्र संघों ने दलील दी कि समाचार पत्र भुगतान करने में सक्षम हैं, लेकिन वे ऎसा करने से बच रहे हैं।

————————————————————————-

भड़ास

एनडीटीवी ने मजीठिया मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भ्रामक खबर चलाई

यशवंत सिंह।

एनडीटीवी ने मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर केवल मीठी मीठी खबर ही अपने यहां चलाई ताकि मीडियाकर्मियों को फर्जी खुशी दी जा सके. भड़ास में जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सारांश प्रकाशित कर इसे एक तरह से मीडियाकर्मियों की हार और मीडिया मालिकों की जीत बताया गया तो देश भर के मीडियाकर्मी कनफ्यूज हो गए. वे चर्चा करने लगे कि किस खबर को सच मानें? एनडीटीवी की या भड़ास की? एनडीटीवी ने जोर शोर से टीवी पर दिखाया कि सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया लागू करने के निर्देश दिए हैं. कोई उनसे पूछे कि भइया मजीठिया लागू करने का निर्देश कोई नया थोड़े है और न ही यह नया है कि ठेके वालों को भी मजीठिया का लाभ दिया जाए.

(आज हुए फैसले पर एक वेबसाइट पर छपी मीठी-मीठी खबर)

(एनडीटीवी पर चली मीठी-मीठी पट्टी.)

कांग्रेस के जमाने वाले केंद्र सरकार की तरफ से पहले ही मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को कानून बनाकर नोटिफाई कर दिया गया था और इसके खिलाफ वर्षोंं चली सुनवाई के बाद मीडिया मालिकों की आपत्ति को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने के आदेश दे दिए थे. ये सब पुरानी बातें हैं. ताजा मामला सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी मजीठिया न देने के खिलाफ अवमानना याचिका का था. फिलहाल जो मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था वह यह था कि मीडिया मालिक मजीठिया वेज बोर्ड को लागू नहीं कर रहे हैं इसलिए उन्हें अवमानना का दोषी माना जाए और उनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए, संभव हो तो जेल भेजा जाए ताकि आगे से ऐसी हिमाकत न कर सकें.

सुप्रीम कोर्ट ने ताजा फैसले में मीडिया मालिकों को अवमानना का दोषी नहीं माना. दूसरा मामला यह था कि जिन हजारों मीडियाकर्मियों को मजीठिया वेज बोर्ड का लाभ उनके संस्थानों ने नहीं दिया, उनको लाभ दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट कई बड़ी पहल करे, आदेश करे. जैसे एक संभावना यह थी कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की तरह नेशनल मजीठिया ट्रिब्यूनल बना दिया जाए और यह ट्रिब्यूनल सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में डे टुडे सुनवाई करके सारे क्लेम को अंजाम तक पहुंचाकर मीडियाकर्मियों को न्याय दिलाए. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने सारी जिम्मेदारी लेबर कोर्टों पर डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली.

अरे भाई, लेबर कोर्ट तो पहले से ही मीडिया मालिकों से फिक्स थे और हैं. लेबर विभाग और कोर्ट मीडिया मालिकों के इशारे पर काम करते हैं, यह कोई नई बात नहीं है. कायदे से सुप्रीम कोर्ट को दोषी लेबर कमिश्नरों को टांगना चाहिए था जो इतने समय बाद भी मीडियाकर्मियों को उनका क्लेम नहीं दिलवा सके. एनडीटीवी की तरफ से फैसले के नतीजे को बताने की जगह मीडियाकर्मियों को फर्जी खुशी देने के लिए केवल मीठी मीठी बातें ही प्रकाशित प्रसारित की गई.

भड़ास का मानना है कि तथ्यों को सही तरीके से और पूरे सच के साथ रखना चाहिए ताकि हकीकत और हालात की पूरी तरह समीक्षा के बाद संबंधित पक्ष अपनी-अपनी अगली और रायलीस्टिक रणनीति तय कर सकें. जो मीडियाकर्मी सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे थे, उनके लिए रास्ते बंद नहीं हुए हैं. लेबर कोर्टोंं में सबको लड़ना है और अच्छे से लड़ना है, बड़े वकीलों द्वारा बनाई गई रणनीति (इस बारे में शीघ्र खबरें भड़ास पर प्रकाशित होंगी या सभी को मेल कर बता दिया जाए) के तहत लड़ना है और मीडिया मालिकों को हराकर अपना हक लेना है. अगर लेबर कोर्ट और लेबर डिपार्टमेंट दाएं बाएं करेंगे तो उनको टांगा जाएगा, उनकी कुंडली निकाली जाएगी और उन्हें नंगा किया जाएगा ताकि वह किसी भी प्रलोभन या दबाव में मीडिया मालिकों का पक्ष न लेकर पूरे मामले में सच और झूठ का फैसला कर न्याय करें.

———–

हम चाह लें तो मालिक अखबार नहीं निकाल सकते

प्‍यारे पत्रकार भाइयों,

सुप्रीम कोर्ट की शह मिल जाने के बाद अब लाला आपकी नाक में दम करने वाला है। कब तक डेस्‍क पर बैठे-बैठे जिंदगी तमाम कर दोगे। आज अखबार छप रहे हैं, यह आश्‍चर्य की बात है। किसानों ने अपनी सब्‍जी, दूध सब सडक पर फेंक दिया। संघर्ष में डट गए तो सरकार झुक गई। हमारे सामने अखबार मालिकों की कोई औकात नहीं है। हम चाहें तो उसे एक पल में झुका सकते हैं। बस यह संकल्‍प करने की देरी है। आप एक बार संकल्‍प कर लीजिए कि मजीठिया नहीं तो काम नहीं। हम चाह लें तो अखबार मालिक अखबार नहीं निकाल सकते हैं।

हमें एक ऐसी सेना का गठन करना होगा जो अखबार को मार्केट में जाने से रोकेगी। हम तब तक लाला का अखबार बीच चौराहे पर जलाते रहें, जब तक कि वह मजीठिया लागू नहीं कर देता। लाला का अखबार सेना और पुलिस के बल पर नहीं बेचा जा सकता। हम एक और अभियान चला सकते हैं। घर घर संपर्क करके मजीठिया के बारे में जानकारी दे सकते हैं और मजीठिया लागू न करने वाले अखबार का सब्‍सक्रिप्‍शन न लेने का अनुरोध कर सकते हैं।

हम चाह लें तो अखबार का लाला मार्केट में टिक नहीं पाएगा। अगर आप यह सोचते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की शह पाने के बाद लाला आपको आसानी से नौकरी करने देगा तो यह आपकी भूल है। जब आपकी नौकरी जानी तय है और यह भी तय है कि बिना लडे घर बैठे आपको मजीठिया नहीं मिलेगा तो आप संघर्ष के लिए क्‍यों नहीं निकल पडते। हमारे वश में आपको समझाना और स्थिति से अवगत कराना भर है। बाकी आप अपना अच्‍छा बुरा खुद सोच सकते हैं।

मजीठिया: रिकवरी लगाने वालों के लिए सुरक्षा कवच है 16A

साभार: प्रखर आवाज।

जी हां, साथियों जिन्‍होंने श्रम कार्यालय में एरियर की डिमांड करते हुए रिकवरी लगा रखी है उनके लिए वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट 1955 की धारा 16A एक मजबूत सुरक्षा कवच है। हमने अपने पिछले लेख ‘बर्खास्‍तगी की धमकी से ना डरे, ना दे जबरन इस्‍तीफा’ में जानकारी दी थी कि जबरन इस्‍तीफा सौंपने वाले साथी क्‍या खो रहे हैं और उन्‍हें आगे क्‍या करना चाहिए। इस लेख में हम बता रहे हैं कि धारा 16a क्‍या है और संस्‍थान से वेजबोर्ड के लाभ की मांग करने वाले या फिर रिकवरी लगाने वाले साथियों की कैसे रक्षा करता है।

[16A. Employer not to dismiss, discharge, etc., newspaper employees.- No employer in relation to a newspaper establishment shall, by reason of his liability for payment of wages to newspaper employees at the rates specified in an order of the Central Government under section 12, or under section 12 read with section 13AA or section 13DD, dismiss, discharge or retrench any newspaper employee.]

[धारा 16क. नियोजक द्वारा समाचारपत्र कर्मचारियों को पदच्‍युत, सेवोन्‍मुक्‍त, आदि न किया जाना- किसी समाचारपत्र स्‍थापन के संबंध में कोई नियोजक, धारा 12 के अधीन या धारा 13कक या धारा 13घ घ के साथ पठित धारा 12 के अधीन केंद्रीय सरकार के किसी आदेश में विनिर्दिष्‍ट समाचारपत्र कर्मचारियों को मजदूरी के संदाय के अपने दायित्‍व के कारण, किसी समाचारपत्र कर्मचारी को पदच्‍युत या सेवोन्‍मुक्‍त नहीं करेगा या उसकी छंटनी नहीं करेगा।]

साथियों, उपरोक्‍त धारा पढ़ कर आपको समझ तो आ ही गया होगा कि कोई भी संस्‍थान वेजबोर्ड के लाभों की मांग करने वाले किसी भी कर्मचारी की बर्खास्‍तगी या छंटनी आदि नहीं कर सकता। यदि संस्‍थान ऐसा कदम उठता है तो उस पर सक्षम प्राधिकरण या अदालत स्‍टे लगा सकती है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट द्वारा 16 दिसंबर 2016 को प्रभात खबर के मिथिलेश कुमार के स्‍थानांतरण पर रोक लगाना है। order- [The petitioner need not join in his new assignment until the said date.]

इस खबर का पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें या निम्‍न path का प्रयोग करें-

http://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2016/12/blog-post_24.html

दूसरा उदाहरण 3 फरवरी 2017 को मप्र की दिव्‍या सेंगर के मामले में भी सिविल कोर्ट द्वारा उनके स्‍थानांतरण पर रोक लगाना। जिसमें अदालत ने दिव्‍या सेंगर के स्‍थानांतरण के पीछे मजीठिया वेजबोर्ड की मांग को कारण माना है।

इस खबर का पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें या निम्‍न path का प्रयोग करें- http://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2017/02/blog-post_36.html

तीसरा उदाहरण 4 मार्च 2016 को नई दिल्‍ली स्थित श्रम कार्यालय द्वारा धारा 16a के तहत दैनिक जागरण कर्मचारियों की बर्खास्‍तगी पर रोक लगाने और यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया जाना। order- (You are hereby directed to file reply to the application by 08-03-2016 at 11.30 AM. and in the meantime services of the workmen be not terminated and maintain status quo.)

चौथा सबसे बड़ा उदाहरण लोकमत के अस्‍थाई कर्मचारी महेश साकुरे का है, जिनकी सेवाएं 30 जून 2001 को समाप्‍त कर दी गई थी। अदालती लड़ाई के बाद वे आज स्‍थायी कर्मचारी के रुप में लोकमत में ही काम कर रहे हैं और कंपनी से लाखों रुपये के एरियर का मुकदमा भी जीत चुके हैं।

इस खबर का पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें या निम्‍न path का प्रयोग करें- http://patrakarkiawaaz.blogspot.in/2016/10/blog-post_10.html

वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट 1955 की धारा 16a या आईडी एक्‍ट 1947 की धारा 33 ऐसे सभी कर्मचारियों की बर्खास्‍तगी आदि में ढाल बनती है जिनका वेतन संबंधी विवाद कंपनी के साथ चल रहा होता है। वेतन विवाद के चलते कंपनी यदि ऐसे कर्मचारियों को बर्खास्‍त या स्‍थानांतरण आदि कर भी देती है तो वे इसको उपयुक्‍त प्राधिकरण या अदालत में उसको चुनौती दे सकते हैं। और इन धाराओं के तहत बर्खास्‍तगी या स्‍थानांतरण आदि के मामलों में फैसला उनके पक्ष में आता है।

धमकी मिलने पर क्‍या करें-

कंपनी द्वारा नौकरी से निकालने जाने या स्‍थानांतरण की धमकी आदि मिलने पर तुरंत श्रम कार्यालय में रिकवरी लगाएं, जिससे कंपनी आपके खिलाफ कोई एक्‍शन ले भी ले तो धारा 16क की वजह से आप अपने केस में मजबूत स्थिति में होंगे।

अंत में, साथियों दो चार बड़े समाचार पत्रों के अलावा अन्‍य छोटे-बड़े अखबारों में यूनियनों के ना होने का फायदा अखबार मालिक उठा रहे हैं। यूनियनों के ना होने की वजह से ही हम में से 99 फीसदी साथी अपने कानूनी अधिकारों से अनजान है। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से प्रबंधन का दमन चक्र तेज हो गया है और कानूनी जानकारी के अभाव में हमारे बहुत से साथी अपनी नौकरियां गंवा रहे हैं। इसलिए हम आपकी मदद के लिए मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे कुछ साथियों के संपर्क नंबर दे रहे हैं। आप इनसे बेहिचक बात कर मदद मांग सकते हैं। साथ ही सोमवार को आने व़ाले ऐतिहासिक फैसले को पढ़ने और वकीलों से समझने के बाद ही इस जानकारी देने के क्रम को हम आगे बढ़ाएंगे।

Vinod Kohli ji – 09815551892

President, Chandigarh-Punjab Union of Journalists (CPUJ)

Indian Journalists Union

kohlichd@gmail.com

भूपेंद्र प्रतिबद्व जी (चंडीगढ़)

9417556066

रविंद्र अग्रवाल जी (हिमाचल प्रदेश)

9816103265

ravi76agg@gmail.com

राकेश वर्मा जी (राजस्‍थान)

9829266063

प्रदीप गौड़ जी (राजस्‍थान)

9928092537

शशिकांत सिंह जी (महाराष्‍ट्र)

पत्रकार और आर टी आई एक्टिविस्ट

9322411335

महेश साकुरे जी (महाराष्‍ट्र)

8275284645

महेश कुमार जी (दिल्‍ली)

9873029029

kmahesh0006@gmail.com

पुरुषोत्‍तम जी (दिल्‍ली)

9810718633

शारदा त्रिपाठी जी (कानपुर)

9452108610

मयंक जैन जी (भोपाल)

9300124476

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से ठीक पहले आयोजित इस बैठक के निकाले जा रहे हैं कई मायने

मजीठिया वेजबोर्ड मामले में प्रगति रिपोर्ट जानने के लिए आयोजित बैठक से पहले सौंपा ज्ञापन

नई दिल्‍ली, (शुक्रवार, 16 जून, 2017)।

श्रम शक्ति भवन नई दिल्‍ली में आज मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों को लेकर आहूत बैठक के मद्देनजर कर्मियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने ज्ञापन सौंपा। ज्ञापन में दैनिक जागरण, भास्‍कर, राजस्‍थान पत्रिका व अन्‍य अखबारों के प्रतिधिनियों को भी वार्ता में शामिल होने करने का अनुरोध किया गया। जिससे उत्‍पीड़न के शिकार हजारों अखबार कर्मियों का पक्ष रखा जा सके। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से ठीक पहले आयोजित इस बैठक के कई मायने निकाले जा रहे हैं।

जैसा कि आपको ज्ञात है कि भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने आज सुबह 11 बजे जस्टिस मजीठिया वेजबोर्ड मामले में प्रगति रिपोर्ट जानने के लिए सभी राज्यों के कामगार आयुक्तों के साथ एक बैठक आयोजित की थी।

बैठक से ठीक पहले अखबार कर्मियों के एक प्रतिधिनिमंडल ने श्रम शक्ति भवन पहुंच कर श्रम मंत्री और श्रम सचिव के नाम लिखा एक ज्ञापन सौंपा। बताया जा रहा है कि यह ज्ञापन उसी समय बैठक कक्ष में भेज दिया गया। ज्ञापन में अखबारों मालिकानों द्वारा चलाये जा रहे दमन चक्र का जिक्र करते हुए अखबार कर्मियों के प्रतिधिनिमंडल को वार्ता में शामिल करने का अनुरोध किया गया। जिससे उत्‍पड़ित कर्मियों के पक्ष को भी सामने लाया जा सके और उनको न्‍याय मिल सकें।

ज्ञापन में मजीठिया वेजबोर्ड को लागू न किए जाने का जिक्र करते हुए पत्रकारों की आर्थिक दुर्दशा का बयान किया गया है। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर कर्मचारियों को बर्खास्‍त करने का जिक्र करते हुए उनकी बहाली की भी मांग की गई है। साथ ही कर्मियों के वकील की तरफ से श्रम आयुक्‍तों की जांच रिपोर्ट की ओर उंगली उठाती सुप्रीम कोर्ट में जमा रिपोर्ट की कापी भी सौंपी गई। ज्ञापन सौंपने वालों में दैनिक भास्‍कर से अलक्षेन्‍द्र सिंह नेगी, हिंदुस्‍तान टाइम्‍स से पुरुषोत्‍तम सिंह, राष्‍ट्रीय सहारा से गीता रावत व अजय नैथानी, दैनिक जागरण से विवेक त्‍यागी, त्रिलोकीनाथ उपाध्‍याय और राजेश निरंजन शामिल थे।

(ज्ञापन सौंपने वाले साथियों से प्राप्‍त तथ्‍यों पर आधारित)

हवा टाइट करने वाली खबर

नई दिल्‍ली।

मजीठिया अवमानना मामले पर कोर्ट नंबर-2 में 19 जून को 3 बजे फैसला सुनाएगा सुप्रीम कोर्ट। अखबार मालिकों के लिए कत्‍ल का दिन और कत्‍ल की रात शुरू। कई के भूमिगत होने की सूचना।

सुप्रीम कोर्ट की एक फाइट, अखबार मालिकों की हवा टाइट

श्रीकांत सिंह।

मजीठिया अवमानना मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। देश भर के विभिन्‍न अखबारों के पत्रकार और गैरपत्रकार कर्मचारी फैसला सुनाए जाने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं तो अखबार मालिकों की हवा खराब है। जैसे-जैसे अदालत की छुट्टियां समापन की ओर बढ़ रही हैं वैसे-वैसे अखबार मालिकों धैर्य समाप्‍त हो रहा है। वे हड़बड़ी में कुछ ऐसे फैसले कर रहे हैं, जो उन्‍हें कानूनी तौर पर गर्त में धकेलने वाला साबित होने जा रहा है।

दैनिक जागरण की बात करें तो वहां तमाम कर्मचारियों का इंक्रीमेंट रोक लिया गया है। इस उम्‍मीद में कि शायद कुछ लोग धैर्य खो दें और नौकरी छोड़ कर चले जाएं। लेकिन कर्मचारी नेक टू नेक फाइट के लिए तैयार हैं। उनका धैर्य तो जागरण प्रबंधन ने ही मजबूत किया है। वे मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार एरियर और अन्‍य भुगतान लिए बगैर कहीं टसकने वाले नहीं हैं। भले ही दैनिक भास्‍कर ने उम्‍मीदों का महल खड़ा कर दिया है।

बता दें कि दैनिक जागरण की नई भर्ती योजना की हवा निकल गई है। इस योजना के तहत निकाली गई रिक्तियों के बाद जो रेस्‍पांस आए, उनमें 90 फीसद लोगों ने दैनिक जागरण की ओर ऑफर की गई सेवा शर्तों को ठुकरा दिया है। अब मुसीबत बढ़ती देख जागरण प्रबंधन ने एक नई योजना पीआईपी की शुरुआत की है, जिसके तहत यह पता लगाने का नाटक किया जा रहा है कि इंक्रीमेंट रोके जाने का क्‍या कारण रहा है। कुछ कर्मचारियों ने तो एक ही कारण बताया है कि प्रणामी अखाड़े के सदस्‍यों को ही इंक्रीमेंट दिया जाता है। यानी जो लोग विष्‍णु त्रिपाठी का चरण वंदन करते हैं, उन्‍हीं को इंक्रीमेंट दिया जाता है।

मार्केट की हालत यह है कि आज भी काम धाम करने लायक कर्मचारियों की संख्‍या बहुत सीमित है। डॉट कॉम के बाजार ने इस किल्‍लत को और बढ़ा दिया है, जहां तमाम नाकारा लोग भी ऐडजेस्‍ट हो रहे हैं। तो अखबार किस प्रकार निकलेगा, यह टेंशन विष्‍णु त्रिपाठी की है, मैनेजमेंट की नहीं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है कि पुराने कर्मचारियों को वापस लेना दैनिक जागरण की मजबूरी बन जाए। व्‍यावसायिक भी और कानूनी भी।

आप उस स्थिति की कल्‍पना करें, जब मजीठिया वेजबोर्ड के अनुसार वेतन और सुख सुविधाओं के साथ पुराने कर्मचारियों की वापसी होगी तो नौकरी जाने के भय के वशीभूत होकर नौकरी कर रहे कर्मचारियों के दिल पर क्‍या बीतेगी। उनके अंदर उबल रहा लावा नहीं फूटेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। कुछ कर्मचारी तो हथियार चलाने के अभ्‍यास में लग गए हैं।

दरअसल, विष्‍णु त्रिपाठी ने वरिष्‍ठ पत्रकार विनोद शुक्‍ला (अब दिवंगत) से पत्रकारिता छोड़कर बाकी सबकुछ सीख लिया था, जिसके दम पर वह अपनी नौकरी बचाए रखने में सफल रहे हैं। अब वह सीधे कर्मचारियों के निशाने पर आने वाले हैं। उन्‍होंने एक बात और नहीं सीखी और वह है सभी कर्मचारियों को साथ लेकर चलने की कला। उन्‍होंने ‘कोई ऐसा सगा नहीं जिसको जमकर ठगा नहीं’ के सहारे दैनिक जागरण जैसे टाइटैनिक को डुबोने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

अब संजय गुप्‍ता की समस्‍या यह है कि वह उंगली पकड़ कर चलने की आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। कभी निशीकांत ठाकुर की उंगली पकड़ कर चले तो अब विष्‍णु त्रिपाठी की उंगली पकड़ कर चले चल रहे हैं। उनके अंदर रिस्‍क लेकर आगे बढ़ने वाले बिजनेसमैन को कभी अंकुरित ही नहीं होने दिया गया। वह आगे बढ़ कर समस्‍या का समाधान नहीं करते हैं तो अब उनका भगवान ही मालिक है, क्‍योंकि उन्‍होंने कभी मालिक बनकर काम करने का अभ्‍यास ही नहीं किया। (चर्चा जारी रहेगी)

 

पत्रकारिता है कहां…

श्रीकांत सिंह।

पत्रकारिता पर हमले हो रहे हैं। ऐसा हमने सुना है। यह भी सुना है कि उससे प्रेस क्‍लब वाले पत्रकार काफी खफा हैं। क्‍यों, एनडीटीवी के मालिक प्रणय राय पर संकट आन पडा है। यह भी ताना मारा जा रहा है प्रणय राय ने मजीठिया वेतनमान के बारे में सुना तक नहीं है। हालांकि एनडीटीवी पर रवीश कुमार ने मजीठिया वेतनमान पर काफी कुछ चर्चा की है। और यह भी कहा जा रहा है कि प्रेस की आजादी के लिए हमें एकजुट होना चाहिए खासकर एनडीटीवी के मामले में क्‍योंकि उसने सरकार की गलत नीतियों पर काफी कुछ उंगली उठाई है। ये सारी बातें अपनी जगह ठीक हैं पर पत्रकारिता है कहां।

पहले पत्रकारिता का मतलब समझने की कोशिश करें। पत्रकारिता का सीधा सा मतलब है सरकार की जवाबदेही को सामने लाना। सरकार के फैसलों पर उठने वाले सवाल मंत्रियों के सामने लाना और उनके जवाब को जनता के सामने लाना। लेकिन सरकार के मंत्री जवाब देने के लिए तैयार कहां होते हैं। मध्‍य प्रदेश के मंदसौर मामले पर केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह सवालों के जवाब देने के बजाय किस प्रकार बाबा रामदेव के साथ योग की टांग तोडते नजर आए, यह किसी से छिपा नहीं है।

मुझे याद है, जब मैंने नरेंद्र मोदी को पहली बार टीवी पर बकैती करते देखा था। उनसे गोधरा पर सवाल पूछे जा रहे थे, जिसके जवाब में वह गुजरात के किसानों की बात कर रहे थे। खैर। आज तो यह प्रचलित है कि मोदी जी से मिलने का मतलब है मंगल ग्रह पर जाने जैसा मुश्किल काम। यह अलग बात है कि विदेश मंत्री सुषमा स्‍वराज कहती हैं कि यदि कोई मंगल ग्रह पर फंसा है तो उसे भी वह बचा लेंगी।

कुल मिलाकर एक आम पत्रकार और सरकार के बीच संवाद समाप्‍त हो चुका है। ऐसे में हमारा मन यह मानने को तैयार ही नहीं है कि पत्रकारिता समाप्‍त हो चुकी है। इस पर कुछ लोग बडे गर्व से कहते पाए जाते हैं कि पत्रकारिता थी ही कब। मतलब यह कि पत्रकारिता शुरू से ही पिकनिक मनाने का स्‍थल मात्र रही है, जिसके आयोजन प्रयोजन का संबंध संपादक नामक संस्‍था से हुआ करता रहा है। अब तो इस व्‍यवस्‍था से संपादक भी विदा हो गया है।

तो यह मान लिया जाए कि एस निहाल सिंह, कुलदीप नैयर, एचके दुआ और टीएन नाइन कभी पत्रकारिता के बडे नाम भले ही रहे हों, लेकिन वे पत्रकारिता की दुकान के काउंटर पर बैठकर ग्राहकों को निपटाते रहे हैं। इन लेागों ने पत्रकारिता में अर्णब गोस्वामी, सुधीर चौधरी, बरखा दत्त, राजदीप सारदेसाई, तरुण तेजपाल, सुभाष गोयल, संजय गुप्ता, शोभना भरतिया जैसे कई लोगों और यहां तक कि प्रणय जेम्स रॉय जैसे लोगों को पत्रकारिता का उपयोग और उपभोग करने पर कभी नहीं टोका और तेजी से पत्रकारिता की गिरती साख और वहां काम कर रहे लोगों की खराब हालत पर कभी चिंता जताने की जरूरत महसूस नहीं की।

इसलिए प्रेस की आजादी क्या है, इस पर साफ-साफ बात होनी चाहिए। अगर ट्वीटर से ज्ञान प्राप्‍त कर उसे परोसना ही पत्रकारिता है, उस पर कोई सवाल-जवाब न किया जाना ही पत्रकारिता है तो पत्रकारिता पर संकट कहां है। कोई भी ट्वीटर की एक झलक देखकर सोशल मीडिया के जरिये पत्रकारिता के झंडे गाड सकता है और नामी गिरामी पत्रकार बन सकता है। सवाल वहीं पर जग रहा है, जहां जवाब नींद में है। नींद में और कब तक रहोगे सुबह। बोझ पर बोझ कब तक सहोगे सुबह। लोक के तंत्र के मंत्र ही की तरह। बाज को हंस कब तक कहोगे सुबह।