बहरी और गूंगी संसद के गठन की तैयारी

चरण सिंह राजपूत

पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा मुखिया मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, फारुख अब्दुल्ला जैसे पार्टियों के मुख्य नेताओं तक सिमट कर रह गया है। जो प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनने वाले हैं उनके नाम बस सूचियों में हैं। कितने प्रत्याशी तो ऐसे हैं जिनके दर्शन होना संवाद होना तो दूर उनको क्षेत्र के लोग पहचानते भी नहीं हैं।

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यह राजनीति का गिरता स्तर ही है कि राजनीतिक दलों के पास न तो विचार हैं और न ही नैतिकता। संसद में धनबल और बाहुबल के भरोसे धंधेबाज तो बहुत समय से पहुंच रहे हैं। इस बार बहरे और गूंगे भी पहुंच जाएंगे। अब तक तो सरकार को ही बहरी और गूंगी कहा जाता था। अब संसद को भी बहरी और गूंगी कहा जाने लगेगा। लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार से तो ऐसा ही लग रहा है।

देश में यह पहला चुनाव देखने को मिल रहा है जिसमें लगभग सभी दलों के प्रत्याशी बहरे और गूंगे बने हुए हैं। न नुकड़ सभाओं में प्रत्याशियों की आवाज सुनने को मिल रही है और न ही रैलियों में। जनता से रूबरू होने के बजाय छुटभैये नेताओं से मिलकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ले रहे हैं। चुनाव एक ड्रामा बनकर रह गया है। पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा मुखिया मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, फारुख अब्दुल्ला जैसे पार्टियों के मुख्य नेताओं तक सिमट कर रह गया है। जो प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनने वाले हैं उनके नाम बस सूचियों में हैं। कितने प्रत्याशी तो ऐसे हैं जिनके दर्शन होना संवाद होना तो दूर उनको क्षेत्र के लोग पहचानते भी नहीं हैं।

मीडिया में भी पार्टियों के बड़े नेताओं के बयान और भाषण ही सुनने को मिल रहे हैं। मतलब साफ है लगभग सभी पार्टियों ने नेता से ज्यादा पैसे को तवज्जो दी है। इसका बड़ा कारण यह है कि पैसे के बल पर चुनाव लड़ रहे धंधेबाज जनता को फेस करने का साहस नहीं बटोर पा रहे हैं। जातीय आंकड़ों या फिर भावनात्मक मुद्दों के सहारे संसद में पहुंचने की जुगत भिड़ा रहे हैं। अधिकतर प्रत्याशी बड़े नेताओं के रिश्तेदार या फिर जेब के हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब ये प्रत्याशी चुनाव में भी जनता से नहीं मिल पा रहे हैं तो फिर चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र की समस्याएं क्या उठाएंगे।

विचारहीन,  नैतिकताहीन हो चुकी राजनीति में पैसा सर्वोपरि हो गया है। जनप्रतिनिधियों का मकसद जनता की आवाज न बनकर अपने धंधे को चमकाना रह गया है। हो भी क्यों न। करोड़ों में टिकट जो खरीद रहे हैं। उदाहरण के तौर पर गौतमबुद्धनगर का चुनाव सबसे महंगा माना जा रहा था। इस क्षेत्र में भी बड़े स्तर पर लोग प्रत्याशियों की आवाज तक को तरस गए। पूरे का पूरा चुनाव सोशल मीडिया पर लड़ने का प्रयास हो रहा है। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि गांव देहात के इस देश में आखिर कितने मतदाता सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।

भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह, कांग्रेस में प्रियंका गांधी, सपा में अखिलेश यादव, बसपा में मायावती, रालोद में अजित सिंह और जयंत सिंह, तृमूकां में ममता बनर्जी की ही आवाज सुनने को मिल रही है। देश में गिने चुने परिवार राजनीति कर रहे हैं। यह जमीनी हकीकत है कि ये परिवार या फिर इनके रिश्तेदार ही चुनाव लड़ते हैं। वह बात दूसरी है कि इन्हें बोलना आता हो या नहीं। इनको लोगों की समस्याओं की जानकारी है या नहीं। इन्हें राजनीति की जानकारी है या नहीं। इनको तो संसद में भी चुप बैठकर अपना धंधा चमकाना है। यही सब वजह है कि गैर राजनीतिक रूप से लोगों के संसद में पहुंचने से ही जमीनी मुद्दे संसद में नहीं उठ पाते हैं। स्तरहीन बहस होती है। लोहिया जी कहते थे कि जब सड़कें सुनसान हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। आज स्थिति यह है कि कायर,  नौतिक रूप से कमजोर विपक्ष और धंधेबाज लोगों के जनप्रतिनिधि बनने से सड़क सुनसान और संसद बहरी और गूंगी हो जा रही है।

जब संसद में बहरे और गूंगे लोग पहुंचेंगे तो संसद में जनता की आवाज उठने की उम्मीद करना बेमानी है। सभी पार्टियों के समर्थक अपने अपने प्रत्याशियों को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि ये लोग सांसद बनने लायक हैं भी या नहीं। संसद में जाकर ये लोग जनप्रतिनिधि के रूप में काम करेंगे या कारपोरेट प्रतिनिधि के रूप में या फिर पार्टी प्रतिनिधि के रूप में। लगभग सभी पार्टियों में ऐसे प्रत्याशियों की भरमार है, जिनका जनहित की राजनीति से कोई लेना देना नहीं है।

पार्टियां किसी भी तरह से बस सत्ता हथियाना चाहती हैं। इससे उन्हें कोई मतलव नहीं कि इनके सांसद संसद में बोलने लायक हैं या नहीं। वैसे तो पार्टी मुखिया ही नहीं चाहते कि उनकी पार्टी का कोई सांसद बोलने वाला हो। इसका कारण उनमें पद को लेकर असुरक्षा होना है।

(लेखक फाइट फॉर राइट के फाउंडर हैं)

धोखातंत्र पर्व के रूप में तब्दील हो रहा लोकतंत्र का महापर्व


चरण सिंह राजपूत

आम चुनाव का बिगुल बज चुका है। सभी दल चुनावी समर में उतर चुके हैं। टिकट बंटवारे में ही धनबल का पूरा इस्तेमाल हो रहा है। यदि बात संविधान की करें तो आम चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है। जिस तरह से सभी नियम कानून को ताक पर रखकर चुनाव में स्तरहीन बयानबाजी और धन का इस्तेमाल होता है क्या इससे लोकतंत्र की रक्षा हो पा रही है?
जिस तरह से राजनीति पर विशेष परिवारों और पूंजीपतियों का कब्जा होता जा रहा है। यह न केवल राजतंत्र को बढ़ावा दे रहा बल्कि यह पर्व पूंजीवाद महापर्व के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है।
सत्तारूढ़ भाजपा तो पूंजीपतियों की पार्टी मानी ही जाती है। कांग्रेस के साथ ही क्षेत्रीय दल भी इस मामले में पीछे नहीं हैं।
चुनाव लड़ने के लिए कितनी मारामारी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 11 अप्रैल से लोकसभा चुनाव हैं और अभी तक पार्टियां टिकट ही घोषित नहीं कर पाई हैं। यह हाल तो तब है जब हर पार्टी में टिकट के लिए पैसों के लेनदेन की खबरें आ रही हैं। बसपा इस मामले में सबसे आगे बताई जा रही है। जब टिकट बंटवारे में ही पैसों की इतनी मारामारी है तो चुनाव प्रचार में क्या हाल होगा बताने की जरूरत नहीं है। मतदाताओं के साथ ही मीडिया को खरीद कर संसद में पहुंचने के लिए पूंजीपति बेताब हैं।
बात पूंजीपतियों की चल रही है तो मैं यह भी क्लियर कर दूं कि राजनीतिक भाषा के साथ ही हम लोग व्यवसायियों को ही पूंजीपति मानकर चलते हैं। राजा महाराजाओं की जिंदगी बिता रहे अथाह सम्पत्ति के मालिक ये राजनेता नेता भी आज के पूंजीपति ही हैं। जो व्यक्ति अपने पर पूंजीपतियों के बराबर खर्च करता है वह भी पूंजीपति की श्रेणी में ही आता है।
बात देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही करते हैं। वह अपने को एक फ़क़ीर बताते हैं। उनके रहन सहन खान पीन और जीवन शैली से क्या फ़क़ीर की जिंदगी लगती है ? जो लोग आजादी की लड़ाई से न केवल कोसों दूर रहे बल्कि स्वार्थ के वशीभूत अंग्रेजों से सटे रहे। धंधेबाजी में सबसे आगे हैं। क्या उनसे राष्ट्रवाद की उम्मीद की जा सकती है ? जिनकी सोच ही समाज को बांटने की हो। क्या वे देशभक्त हो सकते हैं ?
अपने को दलित की बेटी बताने वाली मायावती हो। रामविलास पासवान हो। उदित राज हो। रामदास अठावले हो या फिर नए नेता के रूप में उभर रहे चंद्रशेखर। इनके रुतबे से कहीं लगता है कि ये लोग दलित नेता हैं। यही हाल अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव हों अजित सिंह और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का है कहीं से ये नेता पिछड़े लगते हैं ? अब तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का साधारण पहनावा भी ढकोसला लगने लगा है। चुनाव में अरबो खरबो खर्च करने वाले राजनेताओं को देश और समाज के भले की उम्मीद नहीं की जा सकती है। यह कॉमन सेंस की बात है कि जो प्रत्याशी चुनाव में करोड़ों रुपये खर्च करेंगे। क्या उनसे देश और समाज के भले की उम्मीद की जा सकती है। जो पार्टियां पैसे लेकर टिकट दे रही हैं। क्या वे जनता के लिए काम करेंगी ?
धंधे के रूप में तब्दील हो रही राजनीति में किसी भी तरह से पैसा कमाकर चुनाव लड़ना और संसद में पहुंचकर अपने धंधे को चमकाना बस यही मकसद रह गया है चुनाव लड़ने का। क्या इसे हम लोकतंत्र के महापर्व की संज्ञा दे सकते हैं ? देश के एक विशेष तबके ने देश की सत्ता और व्यवस्था कब्जा रखी है। बस पार्टी ओर चेहरे बदलते हैं। लोग वे ही रहते हैं। कुछ नेता तो ऐसे हैं जो हर सरकार में शामिल रहते हैं। विशुद्ध रूप से लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। दलित पिछड़े और गरीब के नाम पर पूंजीपति नेता जनता को ठग रहे हैं। यदि ऐसा नहीं है तो लगातार गरीबी और अमीरी की दूरी क्यों बढ़ रही है ?
देश की सत्ता और व्यवस्था पूंजीपतियों के हाथों में जाने का कारण जनता भी है। गुलामी के चलते लोग अपना वोट की जाति धर्म और स्वार्थ के चलते पूंजीपतियों को दे देते हैं। ये जानने की जहमत नहीं उठाते कि उनका हक मारकर ही तो ये लोग पूंजीपति बने हैं। जो लोग हक मारने की प्रवत्ति अपनाए हुए हैं क्या वे उनके हक के लिए लड़ेंगे। एक तरफ खोखले राष्ट्रवाद के नाम पर जनता को बरगलाने का खेल चल रहा है तो दूसरी और दलित, पिछड़े और मुस्लिमों के हक की लड़ाई को लेकर। दोनों ओर पूंजीपतियों की लाबी है। बस किसी भी तरह से सीट और सत्ता हासिल कर ली जाए और फिर शुरू हो जनता की कमाई पर अय्याशी का खेल। हर चुनाव में अधिकतर वे ही चेहरे होते हैं। क्या बदला है और क्या बदल जायेगा ? मोदी सरकार तो देश बर्बाद करने पर तुली ही हुई है पर पांच साल तक विपक्ष क्या करता रहा ? और अब क्या कर रहा है?
जो लोग सच्चे मन से देश और समाज के लिए चिंतित हैं या बदलाव बदलाव के लिए काम कर रहे हैं। वे इन राजनीतिक दलों की नजरों में बेवकूफ हैं। ज्यों ज्यों चुनाव आ रहे हैं त्यों त्यों मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ खड़े होने वाले लोग गायब होते जा रहे हैं। न किसी दल के पास कोई विचारधारा है और न ही जमीनी संघर्ष। बस पैसों के बल पर किसी तरह से सत्ता हथिया ली जाए।
लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में जाने जाना वाला मीडिया पूंजीपतियों की रखैल की भूमिका में है। तो क्या ऐसी राजनीति को समाजसेवा और ऐसे चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जा सकता है ? जिन चुनाव में जनता के साथ हर स्तर पर धोखा किया जाता हो वह लोकतंत्र नहीं धोखातंत्र महापर्व है।

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बज गया चुनावी बिगुल, लाेकसभा चुनाव 11 अप्रैल से, 23 मर्इ काे अाएंगे नतीजे

फाेर्थपिलर टीम।

चुनाव आयोग ने लोकसभा और चार राज्यों आंध्र, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए 10 मार्च को तारीखों का ऐलान कर दिया। इस बार लोकसभा चुनाव 7 चरणों में होंगे। 11 अप्रैल, 18 अप्रैल, 23 अप्रैल, 29 अप्रैल, 6 मई, 12 मई और 19 मई को वोटिंग होगी। 23 मई को नतीजे आएंगे। तीन जून तक नई लोकसभा का गठन हो जाएगा।


मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने बताया कि इस बार लोकसभा चुनाव में कुल 90 करोड़ वोटर होंगे। इनमें 8.4 करोड़ नए मतदाता शामिल हैं। कुल वोटर में से 99.3 के पास वोटर आईडी है। 1.5 करोड़ वोटर 18-19 साल की उम्र के हैं। लोकसभा चुनाव के लिए आज से देशभर में आचार संहिता लागू हो गई है।

चुनाव आयुक्त ने बताया, पिछली बार 9 लाख मतदान केंद्र थे, इस बार 10 लाख पोलिंग बूथ होंगे। पहली बार पूरे देश के सभी बूथों पर वीवीपैट मशीन का इस्तेमाल होगा। लोकसभा चुनाव के लिए हेल्पलाइन नंबर-1950 होगा। सभी चुनाव अधिकारियों की गाड़ी में जीपीएस होगा। मोबाइल पर ऐप के जरिए भी आयोग को आचार संहिता के उल्लंघन की जानकारी दी जा सकती है और 100 मिनट के भीतर हमारे अधिकारी को इस पर एक्शन लेना ही होगा। शिकायतकर्ता की निजता का ख्याल रखा जाएगा।

अरोड़ा ने बताया, अगर प्रत्याशी अगर फॉर्म 26 में सभी जानकारियां नहीं भरता तो उसका नामांकन रद्द हो जाएगा। साथ ही बिना पैनकार्ड वाले उम्मीदवारों का नामांकन रद्द होगा। इस बार चुनाव में सोशल मीडिया एक्सपर्ट मीडिया सर्टिफिकेशन और मॉनिटरिंग कमेटी का हिस्सा होंगे। प्रत्याशियों को सोशल मीडिया अकाउंट और उसपर होने वाले प्रचार में खर्च राशि की जानकारी देनी होगी। चुनावी खर्च में सोशल मीडिया पर होने वाली राशि को भी जोड़ा जाएगा। वोटरों को नाम को लेकर भ्रम न हो इसलिए इस बार ईवीएम में प्रत्याशियों की फोटो भी दिखेगी।

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किन राज्यों में कितने चरण में होगी वोटिंग?

  • एक चरण में: आंध्र, अरुणाचल, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, केरल, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, पंजाब, सिक्किम, तेलंगाना, तमिलनाडु, उत्तराखंड, अंडमान-निकोबार, दादरा नगर हवेली, दमन एंड दीव, लक्षद्वीप, दिल्ली, पुडुचेरी, चंडीगढ़।
  • दो चरण में : कर्नाटक, मणिपुर, राजस्थान, त्रिपुरा।
  • तीन चरण में : असम, छत्तीसगढ़।
  • चार चरण में : झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा।
  • पांच चरण में : जम्मू-कश्मीर।
  • सात चरण में : बिहार, उत्तर प्रदेश, प. बंगाल।
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जम्मू-कश्मीर में अभी विधानसभा चुनाव नहीं

चुनाव आयोग ने जम्मू-कश्मीर में मौजूदा स्थिति को देखते हुए अभी विधानसभा चुनाव न कराने का फैसला किया। वहां आयोग ने 3 पर्यवेक्षक नियुक्त किए हैं। इसके अलावा आंध्र, सिक्किम और अरुणाचल में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव के लिए एक चरण में 11 अप्रैल को मतदान होगा। वहीं, ओडिशा में चार चरणों 11, 18, 23 और 29 अप्रैल को वोटिंग होगी।

चार राज्यों में विधानसभा चुनाव

राज्यसीटेंवोटिंग2014 में किसकी सरकार बनी
आंध्रप्रदेश17511 अप्रैलतेदेपा
अरुणाचल6011 अप्रैलकांग्रेस
सिक्किम3211 अप्रैलएसडीएफ
ओडिशा14711, 18, 23 और 29 अप्रैलबीजद

मोदी ने कहा- लोकतंत्र का उत्सव शुरू, फर्स्ट टाइम वोटर्स रिकॉर्ड वोटिंग करें

मोदी ने ट्वीट किया, ”लोकतंत्र का त्योहार चुनाव आ गए। मैं अपने साथी हिंदुस्तानियों से अपील करता हूं कि 2019 के लोकसभा चुनाव को अपनी सक्रिय सहभागिता से सफल बनाएं। मैं उम्मीद करता हूं कि ये चुनाव ऐतिहासिक नतीजे देंगे। मैं पहली बार वोट डालने वालों से रिकॉर्ड संख्या में मतदान की अपील करता हूं।”

छह बड़े चेहरे 


नरेंद्र मोदी : भाजपा ने 2013 में माेदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था, तब से लोकसभा चुनाव समेत 32 चुनाव हो चुके हैं। हर चुनाव में मोदी ही भाजपा के लिए प्रचार का प्रमुख चेहरा रहे हैं। 

अमित शाह : पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे अमित शाह ने राज्य में एनडीए को 80 में से 73 सीटें दिलवाई थीं। जुलाई 2014 में उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। शाह के अध्यक्ष बनने के बाद अब तक 27 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। इनमें से 14 चुनावों में भाजपा को जीत और 13 में हार मिली। 

राहुल गांधी : दिसंबर 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी को 2018 के आखिर में कामयाबी मिली जब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया। 20 साल में यह पहला मौका है, जब लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी कांग्रेस का नेतृत्व नहीं करेंगी। राहुल के नेतृत्व में पार्टी का यह पहला लोकसभा चुनाव होगा।

प्रियंका गांधी : राहुल गांधी ने प्रियंका को इसी साल 23 जनवरी को कांग्रेस महासचिव बनाया और पूर्वी उत्तर प्रदेश की 41 लाेकसभा सीटों की जिम्मेदारी सौंपी। नेहरू-गांधी परिवार से कांग्रेस में यह 11वीं एंट्री है। इससे पहले प्रियंका सिर्फ अमेठी-रायबरेली में ही प्रचार करती थीं। 

ममता बनर्जी : मोदी विरोधी महागठबंधन को आकार देने की कोशिशों में ममता बनर्जी सबसे प्रमुख चेहरा हैं। 2014 में मोदी लहर के बावजूद बंगाल में ममता की तृणमूल कांग्रेस ने 42 में से 34 सीटें जीती थीं। ममता ने हाल ही में कोलकाता में विपक्ष की बड़ी रैली की थी। इसमें 15 से ज्यादा दलों के नेता शामिल हुए थे। हालांकि, ममता बंगाल में कांग्रेस के साथ गठबंधन से इनकार कर चुकी हैं।

मायावती-अखिलेश : 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा सिर्फ 5 सीटों पर जीत पाई थी। वहीं, बसपा का खाता भी नहीं खुला था। लेकिन दोनों पार्टियों का उत्तर प्रदेश में वोट शेयर 20% के आसपास था। 25 साल बाद दोनों दल भाजपा को रोकने के लिए साथ आए हैं। 2014 में भाजपा का उत्तर प्रदेश में वोट शेयर 43% था। ऐसे में मायावती-अखिलेश का साथ आना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकता है।
                
इन 4 राज्यों के नतीजे चौंका सकते हैं


आंध्र प्रदेश : पिछली बार तेदेपा ने यहां भाजपा के साथ गठबंधन किया था। दोनों दलों ने राज्य की 25 में से 17 सीटें जीती थीं। तेदेपा अब एनडीए से बाहर हो चुकी है। वहीं, जगनमोहन रेड्डी पिछले पांच साल से राज्य में लगातार यात्राएं कर राज्य में अपनी पार्टी वाईएसआरसीपी की पकड़ मजबूत करने की कोशिश में हैं। 

केरल : सबरीमाला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला राज्य में सबसे ज्यादा चर्चा में रहा। कोर्ट के आदेशानुसार सत्ताधारी वाम दल हर उम्र की महिला को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश देने के पक्ष में था, वहीं भाजपा-कांग्रेस ने फैसले का खुलकर विरोध किया था। राज्य में बड़े स्तर पर विरोध-प्रदर्शन भी हुए। ऐसे में माना जा रहा है कि 20 लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में भाजपा पहली बार मुकाबले में दिख रही है। 

तमिलनाडु : राज्य की राजनीति के दो सबसे बड़े चेहरों एम करुणानिधि और जे. जयललिता के निधन के बाद यह पहला लोकसभा चुनाव है। द्रमुक ने इस बार कांग्रेस और अन्नाद्रमुक ने भाजपा-पीएमके के साथ गठबंधन किया है। पिछली बार राज्य की 39 में से 37 लोकसभा सीटें जीतने वाली अन्नाद्रमुक इस बार सिर्फ 27 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। वहीं, द्रमुक ने भी 9 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी हैं।

ओडिशा : 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद यहां भाजपा सिर्फ एक सीट जीत पाई थी। तीन बार से मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजद ने 21 में से 20 सीटें जीती थीं। मोदी ने यहां दिसंबर और जनवरी में कई दौरे किए हैं। 

पांच बड़े मुद्दे 

  1. राष्ट्रवाद : पुलवामा हमले के बाद भाजपा ने राष्ट्रवाद को मुख्य मुद्दा बनाया है।
  2. पाकिस्तान : वायुसेना ने पुलवामा हमले के बाद पाक में आतंकी शिविर पर हमला किया। इस हमले के सबूतों को लेकर भाजपा और विपक्ष आमने-सामने हैं।
  3. राफेल : कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार यह आरोप लगा रहे हैं कि राफेल डील में मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार किया है। वहीं, सरकार राफेल को देश की जरूरत बता रही है।
  4. किसान : केंद्र सरकार ने अंतरिम बजट में छोटे किसानों के खाते में हर साल 6000 रुपए ट्रांसफर करने का ऐलान किया था। मोदी अपनी रैलियों में इसे क्रांतिकारी कदम बता रहे हैं। वहीं, कांग्रेस मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में किसानों की कर्ज माफी का मॉडल देशभर में लागू करने का वादा कर रही है।
  5. राम मंदिर : भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस के अड़ंगों की वजह से अयोध्या विवाद पर जल्द फैसला नहीं आ पा रहा। वहीं, कांग्रेस का कहना है कि भाजपा सिर्फ चुनाव के समय यह मुद्दा उठाती है।
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2014 में 5 राज्यों में विधानसभा की स्थिति

आंध्रप्रदेश (तेलंगाना समेत)

पार्टी                                        सीटें                             
तेदेपा102
वाईएसआर कांग्रेस67
भाजपा4
एनपीटी1
निर्दलीय1
कुल175

जम्मू-कश्मीर

पार्टी                                                       सीटें                          
पीडीपी28
भाजपा25
नेशनल कॉन्फ्रेंस15
कांग्रेस12
अन्य7
कुल87


सिक्किम

पार्टी                                                       सीटें                         
एसडीएफ                      22         
एसकेएम10
कुल32


अरुणाचल प्रदेश

पार्टी                                                  सीटें                             
कांग्रेस42
भाजपा11
पीपीए5
निर्दलीय2
कुल 60


ओडिशा

पार्टी                                                   सीटें                            
बीजद117
कांग्रेस16
भाजपा10
एसकेडी1
अन्य3
कुल147

एक्जिट पोल और इक्‍जैक्‍ट पोल का दर्शन

श्रीकांत सिंह।

गुजरात विधानसभा चुनाव आज यानी 17 दिसंबर 2017 को एक्जिट पोल और इक्‍जैक्‍ट पोल के बीच त्रिशंकु की भांति लटका हुआ है। चुनावी भविष्‍यवाणी करने में कुछ पत्रकारों को छोड़ दें तो ज्‍यादातर भाजपा के पक्ष में ईवीएम की तरह विनम्र, अतिविनम्र और विनम्राधिराज बने हैं। जयशंकर प्रसाद के एक नाटक का संदर्भ लें तो उसमें लिखा है-‘सीधे तने पर्वत के चरणों में कमजोर और लचकदार लताओं को लोटना ही चाहिए।’ ये कमजोर और लचकदार लताएं आज की पत्रकारिता की ओर संकेत करती हैं जिसकी वजह से कभी कभी एक्जिट पोल और इक्‍जैक्‍ट पोल में उत्‍तरी और दक्षिणी ध्रुव का अंतर सामने आता है। भारत में केजरीवाल के मुख्‍यमंत्री बनने और अमेरिका में डोनाल्‍ड ट्रंप के राष्‍ट्रपति बनने में एक्जिट पोल धोखा खा गए थे। शायद यही वजह रही होगी कि ट्रंप ने अमेरिका के पत्रकारों को फेकू पत्रकार करार दिया था।

दरअसल, एक्जिट पोल के दर्शन की बात करें तो यह उस दशा को दर्शाता है जो हमारे मन की हालत होती है। हमारा मन सत्‍तारूढ़ पार्टी का इतना गुलाम हो चुका होता है कि उसके विरोध में कुछ सोचता ही नहीं। जैसे वैशाख नंदन को वैशाख में सबकुछ हरा-हरा दिखता है वैसे ही आज तमाम पत्रकारों को भाजपा में कोई दोष नजर नहीं आ रहा है। हर कोई अपने आंकड़े में भाजपा को जिताता नजर आता है। किसी को भी इस बात का अनुमान नहीं है कि त्रिशंकु विधानसभा भी हो सकती है। अनुमान लगाने में आखिर इतना बड़ा जोखिम कौन उठाए। इसीलिए मैंने भी न तो त्रिशंकु का अनुमान लगाया है और न ही किसी पार्टी विशेष के सत्‍ता में आने का। मैंने साफ-साफ कह दिया है-‘मेरे पास डेढ़ सौ सीटें हैं, जिन्‍हें किसी पार्टी को देना नहीं चाहता। भाजपा को इसलिए नहीं कि उसने उस लायक काम नहीं किया है और विपक्ष को इसलिए नहीं कि वह उतना सक्षम नहीं बन पाया है। ये है एक्जिट पोल का दर्शन।’

हमारे पत्रकारों से कहीं ज्‍यादा सटीक दर्शन जनता यानी मतदाताओं के पास होता है। इसीलिए वे समय समय पर पत्रकारों को चौंकाते रहते हैं। अपने अंदर का हाल किसी पत्रकार को नहीं बताते। बताते वही हैं जो पत्रकार सुनना चाहते हैं और सत्‍ता के समर्थन में भविष्‍यवाणी करना चाहते हैं। मुझे उन पत्रकारों के चिंतन पर कोफ्त होती है जो जनता तो दूर, पत्रकारों के ही हक मजीठिया को दिलाने में नखरे दिखा रही भाजपा को दूध की धुली बताते नहीं थकते और ऊपर से महान होने का आडंबर ओढ़ लेते हैं कि वे इतने महान हैं कि अपने हक की चर्चा भी नहीं करना चाहते। लेकिन सैलरी दस दिन लेट हो जाए तो घोर निराशा में डूबने लगते हैं। ऐसे पत्रकारों की भविष्‍यवाणियां हमेशा सच होंगी, इसमें संदेह की गुंजाइश बनी रहेगी। क्‍योंकि परिवर्तन का पहिया कब घूम जाएगा, कहा नहीं जा सकता। हर युग चाहे वह इंदिरा गांधी का रहा हो या राजीव गांधी का, या वर्तमान प्रात: स्‍मरणीय अथवा निंदनीय नरेंद्र मोदी का, भक्‍त पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी कुकुरमुत्‍ते की तरह उगती रही है। यह कुकुरमुत्‍ता युग अजर और अमर है। जब जब चुनावी बारिश होगी, इसे उगने से कोई रोक नहीं सकेगा। बजाय इस पर भरोसा करने के, आप अपने अंदर की आवाज सुनने का प्रयास करेंगे तो कभी गच्‍चा नहीं खाएंगे।