यूं पहुंचा राष्ट्रीय सहारा और बन गया पत्रकार

बात 1993 की है। कृषक भारती स्कूल में की राजनीति झेलने के बाद दिल्ली पहुंच गया। वहां मुझे कंप्यूटर कोर्स करना था और पानी थी नौकरी भी। मेरे ताऊजी के लड़के दिनेश राजपूत और नरेश राजपूत नोएडा के सेक्टर 40 में रहते थे। रेलवे ड्राइवर नरेश उस समय फरीदाबाद की एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। दिनेश राजपूत के प्रयास से मैं नई दिल्ली स्थित नेहरू प्लेस में कम्प्यूटर कोर्स करने लगा।

…अधिक पढ़ने के लिए लिंक पर जाएं।

journalism: यूं पहुंचा राष्ट्रीय सहारा और बन गया पत्रकार

जब लोकप्रियता ही बन गई थी दुश्मन

बात उन दिनों की है जब मैं स्नातक कर रहा था। हमारे समाज के लोगों ने बड़े प्रयास के बाद भोजपुर गांव में कृषक भारती स्कूल के नाम से इंटर एक कालेज की स्थापना की थी। इस स्कूल में वैसे तो क्षेत्र के सभी वर्ग के बच्चे पढ़ते थे पर सबसे अधिक फायदा क्षेत्र की लड़कियों को हुआ था। जो लड़कियां करीब 5 किलोमीटर दूर किरतपुर पढ़ने के लिए नहीं जा पाती थीं उन्हें भी पढ़ने का एक अच्छा अवसर इस स्कूल में मिल गया था। क्षेत्र के लोगों के आपसी सहयेाग से स्कूल अच्छा चलने लगा था। To read more click the link below.

जब लोकप्रियता ही बन गई थी दुश्मन

भाजपा और संघ की अवसरवादी राजनीति

बात उन दिनों की है जब वीपी सिंह के बाद चंद्रशेखर सिंह की सरकार गिरने पर देश में मध्यावधि चुनावों के साथ ही उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे। उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत से कल्याण सिंह की सरकार बनी थी। उस समय मैं बीए द्वितीय वर्ष का विद्यार्थी था। क्षेत्र में अच्छी खासी लोकप्रियता होने की वजह से जोश और उत्साह दोनों चरम पर थे। राम मंदिर निर्माण आंदोलन ने फिर से जोर पकड़ा था। प्रदेश में भाजपा की सरकार थी तो आरएसएस और भाजपा कार्यकर्ता पूरे जोश में थे। राम मंदिर निर्माण के नाम पर उत्तर भारत में हिन्दुत्व का माहौल बन चुका था। To read more click the link below.

politics: भाजपा और संघ की अवसरवादी राजनीति

राम मंदिर का रास्ता साफ, किसी को पूरी खुशी किसी को हाफ

चरण सिंह राजपूत

राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में रामलला को विवादित जमीन देकर अयोध्या में राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ कर दिया है। सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए 5 एकड़ जमीन देने का आदेश देकर देश की धर्मनिपरेक्ष छवि को बरकरार रखा है। इसकी जिम्मेदारी भी कोर्ट ने केंद्र सरकार को दी है। हालात के हिसाब लगभग पूरा देश इस फैसले का स्वागत कर रहा है। स्वागत करने का बहुत बड़ा कारण विवादित मुद्दे का खत्म होना माना जा रहा है। 500 साल से ऊपर से चला आ रहा यह विवादित मुद्दा लगभग खत्म हो चुका है। इस मुद्दे पर न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस, सपा के अलावा कई पार्टियों ने सियासत की रोटियां सेंकी हैं। आंदोलन में कितने लोगों की बलि चढ़ी है।

राम मंदिर का रास्ता साफ, किसी को पूरी खुशी किसी को हाफ

ननिहाल के झगड़े में था नाबालिग, जाना पड़ा जेल

जूनियर हाई स्कूल में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाकर जब मैं किरतपुर हिन्दू इंटर कॉलेज पहुंचा तो दूसरे बच्चों की तरह मुझे भी फिल्में देखने की शौक लग गया। मतलब यह बच्चों की भटकने की उम्र होती है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। हम कई छात्र मिलकर फिल्में देखते थे। हमारी टीम को हर फिल्म का पहला शो देखने की जिज्ञासा होती थी। हां। किसी तरह से पैसे जुटाकर पहली पंक्ति में बैठकर फिल्में देखनी पड़ती थी। पढ़ाई में मैं लगातार अच्छा करता रहा। क्योंकि घर पर काफी अध्ययन करता था। यह सिललिसा नौवीं क्लास से लेकर हाईस्कूल तक चला।

हाईस्कूल में फिल्में बहुत कम हो गईं क्योंकि मुझे हर हालत में फर्स्ट डिवीजन में पास होना था। वजह जो भी रही हो, मैं प्रथम श्रेणी में पास न हो सका। हाईस्कूल में सेकेंड डिवीजन आने पर मेरे अलावा मेरे घर और मेरे मामाओं को बहुत निराशा हुई। उस समय मुझे अपने मामाओं का मार्गदर्शन प्राप्त था। एक मामा पीतम सिंह तो परिणाम आने वाले दिन परिणाम का अखबार लेकर हमारे घर ही आ धमके थे। 11वीं क्लास में मेरे साथ मेरे जीवन का बहुत बड़ा हादसा हुआ। दरअसल, ननिहाल के लगाव की वजह से मेरा वहां आना बहुत लगा रहता था। उस समय मेरे मामाओं का भूमि विवाद को लेकर अपने पड़ौसियों से काफी झगड़ा-फसाद रहता था। उसकी चपेट में मैं भी आ गया। भूमि विवाद के झगड़े मेरा नाम भी लिखवा दिया गया। मामला 1989 का है। मतलब 11वीं क्लास में नाबालिग था। मुझ पर धारा 307 में मामला दर्ज किया गया।

तमाम प्रयास के बावजूद जब जमानत न हो पाई तो जेल जाना पड़ा। पहली बार 19 दिन जेल में रहकर साइंस में प्रक्टिकल के नाम पर 2 महीने की पैरोल कराई। दो महीने बाद भी जब जमानत न मिली तो 9 दिन के लिए फिर से जेल में जाना पड़ा। फिर से एक महीने की पैरोल कराई गई। इस एक महीने की पैराल में इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिल गई। मेरा स्वभाव रहा है कि जहां भी मैं जाता हूं अपने को साबित करता हूं। जेल में भी मैंने यही किया। दरअसल, 10 अप्रैल को जेल दिवस पर खेल प्रतियोगिता हुई। उस समय खेलकूद में मैं अव्वल था। तो जिस गेम में भी भाग लिया फर्स्ट आया। कुश्ती, कुर्सी दौड़ और 400 मीटर की दौड़ में मैंने भाग लिया और फर्स्ट आया। तीन गेम में फर्स्ट आने के बाद जेल प्रशासन ने मुझे अन्य गेम में नहीं लिया। उस समय मुझे जेल ब्वाय का पुरस्कार मिला था।

जेल में भी मिला इनाम

मतलब इनाम में कुश्ती में जांगिया, कुर्सी दौड़ में एक तौलिया और 400 मीटर दौड़ में एक तौलिया इनाम के रूप में मिला था। वह दृश्य देखने लायक था जब पैरोल पर मैं जेल के इनाम जांगियां और तौलिया के साथ अपने घर पहुंचा। घरवाले परेशान होने के बावजूद मेरी उपलब्धि पर हंस रहे थे। जेल में मैं बच्चा बैरेक में रुका था। सभी साथी बहुत मिलनसार थे। सभी ने मुझे कह दिया था कि मैं अपनी किताबें पढ़ता रहूं और परेशान न रहूं।

उस समय मैंने देखा था कि गांव-देहात के आपसी झगड़े का एक बच्चे के जीवन पर कितना असर पड़ता है। 11वीं क्लास में मैंने साइंस ले रखी थी तो अध्ययन भी ऐसा ही करना पड़ता। लगभग 4 महीने मेरे झगड़े की वजह से जमानत और भागदौड़ में बीत गए तो सभी का कहना था कि इस साल की परीक्षा छोड़ दी जाए पर चुनौतियां स्वीकार करना मुझे अच्छा लगता है। तब भी मैंने चुनौती स्वीकार की और 11वीं क्लास में अच्छे नंबरों से पास हुआ। हां उस केस ने मेरे जीवन में एक अलग तरह का बदलाव ला दिया।

मेरा स्कूल से लेकर दूसरे अन्य युवाओं के बीच में बैठना गप्पे लड़ाना जैसे मेरा शौक हो गया हो। यह मेरी एक तरह से मजबूरी भी थी क्योंकि गांव-देहात की रंजिश बहुत बुरी होती है। कहना गलत न होगा कि 12वीं क्लास में मैं पढ़ाई से ज्यादा समय यारों-दौस्तों के बीच में देता था। उस समय मेरा फ्रैंड सर्किल भी काफी हो गया था। उसमें अच्छे छात्र भी थे और बुरे भी। हां उस समय मैंने यह जरूर देख लिया था कि जब आप किसी मामले में फंस जाओ तो मजा लेने वाले बहुत होते हैं। वह आपके लिए एक चक्रव्यहू की तरह होता है।

धारा 307 लगी थी

मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। मुझे और मेरे परिवार वालों को भी परिचितों के साथ ही रिश्तेदारों के भी काफी ताने सुनने पड़ते थे। मेरे जीवन का यह बहुत बड़ा बदलाव था कि जो जिस बच्चे की चर्चा पढ़ने-लिखने के मामले में होती थी उसकी अब दबंगता में होने लगी थी। क्योंकि मेरे ऊपर धारा 307 लगी थी। लोग भी उसी नजरिये से देखते और सजा होने की पूरी आशंका थी। लोग तरह-तरह की बातें किया करते थे। एक ओर भविष्य के साथ परिवार की जिम्मेदारी और दूसरी ओर सजा होने की आशंका। इस परिस्थिति को भली भांति समझा जा सकता है।

मलतब वह समय मेरे लिए बहुत कठिन था। मानसिक और शारीरिक रूप से अपने को दुरुस्त करने के लिए मैं खेलने-कूदने और व्यायाम में ज्यादा समय देने लगा। उस समय हम लोग कबड्डी खेलने दूर-दूर तक जाया करते थे। मेरे क्षेत्र में मेरा नाम काफी चर्चित था। यह मेरा व्यवहार था कि हर वर्ग के लोग मुझे जानते थे। हां इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मैं पढ़ाई-लिखाई में ठीक-ठाक ही रहा।

जीवन में लड़की भी आई

उस समय मेरे जीवन में एक लड़की भी आई। यह मामला भी काफी चर्चित रहा। कुल मिलाकर मेरा व्यवहार, संघर्ष और जिम्मेदारियों के चलते समाज के कुछ लोगों ने केस में समझौता कराने का प्रयास किया और तमाम उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार मैं उस केस में बाइज्जत बरी हुआ। यह मेरा व्यवहार ही था कि मेरा केस देखने वाले जज महोदय ने मुझसे खुद मामले में सुलह कराने की बात कही थी। मतलब वह भी जानते थे कि यदि सुलह न हुई तो सजा देना उनकी मजबूरी बन जाएगी। उस केस और उन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करके मैंने अपने को बहुत मजबूत कर लिया था। यही वजह रही कि मैं विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल ढाल लेता हूं। यही मेरी ताकत है और मेरे विरोधियों की हताशा का सबब भी।

आत्मविश्वास ने पैदा किया नेतृत्व का जूनून

गंभीर बच्चे के साथ यह अक्सर होता है कि ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है त्यों-त्यों वह समाज को बखूबी समझने लगता है। उसे समाज में कैसे स्थापित करना है, यह उसे भली भांति समझ में आने लगता है। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। कक्षा पांच में अव्वल आने के बाद जब मैं पास के गांव खेड़ी में छठी कक्षा में एडमीशन लेने पहुंचा तो अध्यापक ने दो मिनट बात की और मेरा एडमीशन हो गया। उस समय सरकारी स्कूलों में नाममात्र की फीस हुआ करती थी। वह मेरे जीवन का वह दौर था जिसमें मुझे पहली बार व्यायाम का शौक चढ़ा।

व्यायाम का शौक

सातवीं क्लास से ही मैं काफी व्यायाम करने लगा था, क्योंकि अच्छा शरीर मुझे विरासत में मिला था। उस समय मैं कड़ा पहनता था। कड़ा दिखाने के लिए आस्तीन चढ़ा लेता था। आस्तीन चढ़ाने की मेरी आदत तभी से है। मेरे अच्छे स्वास्थ्य की वजह से मेरी उम्र से बड़े बच्चे भी मुझसे कम उम्र के नजर आते थे। सातवीं क्लास में वैसे तो लगभग सभी चीजें सामान्य रहीं पर एक प्रकरण ऐसा हुआ जिसकी चर्चा क्षेत्र में भी हुई। दरअसल मेरे पटदारी में ताऊजी की लड़का मुकेश जो आठवीं कक्षा में पढ़ता था, उसे मेरी बुआ के गांव के एक लड़के बीरबल ने कुश्ती में हरा दिया था। इंटरवल के समय वे दोनों कुश्ती के बाद काफी बच्चों के साथ स्कूल में लौट रहे थे। मेरे भाई के चेहरे पर घोर उदासी थी। हमारे गांव के लड़के भी काफी सहमे-सहमे थे। जब मैंने यह नजरिया देखा तो मुझसे रहा न गया। तभी मैंने जीतने वाले लड़के को कुश्ती का चैलेंज दे दिया, जबकि वह उम्र में मुझसे बड़ा था।

कुश्ती जीतने से बढ़ा रुतबा

अगले दिन खेड़ी गांव में कुश्ती रखी गई। उस समय व्यायाम करने की वजह से मुझ पर लंगोट था तो अगले दिन मैंने लंगोट अपने थेले में डाला और स्कूल आ गया। पूरे स्कूल को कुश्ती का इंतजार था। इंटरवल में कुश्ती हुई और मैंने दो मिनट में ही बीरबल को चित्त कर दिया। उसे तब तक नहीं छोड़ा जब तक उसने अपनी हार नहीं मान ली। हमारे गांव के लड़कों ने मुझे कंधे पर उठा लिया। उससे हमारे गांव का रुतबा स्कूल में और बढ़ गया। अक्सर यह कहते सुना जाता है कि पढ़ने वाले बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। मैं इस बात को नहीं मानता। मैं शारीरिक रूप से भी काफी मजबूत रहा और पढ़ने में भी ठीक था। हमारे गांव के ही बलवंत सिंह इसका बड़ा उदाहरण है। वह गढ़वाल विश्वविद्यालय और कुमायूं विश्वविद्यालय के कुलपति रहे हैं। उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी टॉप की थी। वह बचपन में पहलवानी भी करते थे साथ ही खेती का काम भी करते थे। जिंदगी भर शरीर से मजबूत रहे। आज भी 90 साल की उम्र में वह काफी स्वस्थ हैं।

फैसले को मिली क्लीन चिट

आठवीं कक्षा में हम कई छात्रों ने स्कूल में वह मुकाम हासिल कर लिया था कि छमाही परीक्षा में छठी व सातवीं कक्षा की कॉपी हम कई छात्रों ने ही जांची थी। ऊपर वाले मुझे बचपन से ही बड़े दिल का बनाया है। ऐसा ही एक वाक्या मेरे साथ आठवीं कक्षा में भी हुआ। मैंने संस्कृत में छठी क्लास के एक छात्र को 50 में से 50 नंबर दे दिए। मेरे विरोधी छात्रों ने इसकी शिकायत संबंधित अध्यापक कुंदन सिंह से कर दी। उन्होंने मुझे बुलाया और 50 में से 50 अंक देने का कारण पूछा। मैंने कहा कि उस छात्र की कॉपी में कहीं पर भी मुझे एक नंबर काटने की गुंजाइश नहीं मिली तो कैसे काटता। बाद में उन्होंने भी कॉपी चेक की तो वह कहीं पर कोई नंबर नहीं काट पाए। उन्होंने मुझे शाबाशी दी।

रस्साकशी में प्रथम

इस दौर में एक और प्रकरण हमारे गांव के छात्रों के साथ हुआ। भोजपुर गांव में खेल प्रतियोगिता हुई। रस्साकशी में हम लोग प्रथम आए। रस्साकशी में मैं, मुकेश, टिमले का झल्लू मुख्य रूप से थे। रात में नाटक प्रतियोगिता थी। हम लोगों ने रामलीला में मेघनाद-लक्ष्मण युद्ध नाटक के रूप में तैयार किया। इस नाटक में मेरे अलावा अरविंद, सुरेश, मुकेश मुख्य रूप से थे। गांव-देहात में कैसी-कैसी राजनीति होती है, यह मैंने उस उम्र में ही देख लिया था। हमें नाटक स्कूल खेड़ी के नाम से खेलना था पर हम लोगों ने अपने गांव के लोगों के प्रभाव में आकर अपने गांव लच्छीरामपुर के नाम से खेल दिया।

पिछलग्गू रहना नहीं सीखा

आयोजकों ने एक षड्यंत्र के तहत हमारा नाटक दूसरे नाटक के समय में खेलना बताकर उसे कैंसिल कर दिया। जबकि हमारे नाटक की लोगों ने काफी प्रशंसा की थी। उस दौर में हमें क्रिकेट का भी शौक चढ़ा था। हमारे दूसरे मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेलने में अच्छे थे। मैंने भी उनके साथ ही क्रिकेट सीखा था। मैंने अपने मोहल्ले के साथ बगल के कुचने मोहल्ले के बच्चों के साथ एक क्रिकेट टीम बनाई और उस मोहल्ले से मैच रखा। हम लोग पहला ही मैच जीत गए। हालांकि बाद में उन्होंने हमें कई मैच हराए। मेरे जीवन का यह उसूल रहा है कि पिछलग्गू रहना मैंने नहीं सीखा। जहां भी रहता हूं मेरा प्रयास होता है कि वहां नेतृत्व करूं और मुझे सफलता भी मिलती रहे। यह जुनून मुझमें बचपन से ही पैदा हो गया था। आज इतना ही।

अभावों से संघर्ष, प्रतिभा का संबल

संघर्ष—चरण सिंह राजपूत—2

मेरे बड़ों ने बताया कि जब मैंने जन्म लिया तो उस समय हमारा घर सुख सुविधाओं से सपन्न था। मेरे दादा जी का क्षेत्र में एक अच्छा खासा रुतबा था। उनके रुतबे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे मोहल्ले की गोवर्धन पूजा हमारे ही घर में होती थी, मलतब 100 के आसपास महिलाएं, बच्चे व पुरुष हमारे घर में पूजा के लिए जुटते थे। क्योंकि मेरा जन्म एक किसान परिवार में हुआ है, इसलिए खेतीबाड़ी के मामले में परिवार काफी अग्रणी था। मेरे पापा एक स्वाभिमानी और खुद्दार व्यक्ति रहे हैं तो उनके सामने चुनौतियां भी ऐसी ही थीं। क्योंकि उन्हें किसी के सामने झुकना गवारा नहीं था तो रिश्तेदारों से लेकर पटदारी के लोग भी हमेशा उन्हें सबक सिखाने की फिराक में रहते थे। मेरी मां ने बताया कि मेरी बाल्यावस्था में ही हमारे घर का बंटवारा हो गया। हमारे हिस्से में जो जमीन आई थी उसमें पापा कर्जा लेकर जबर्दस्त फसल उगाई। मुझे बताया गया कि जब फसल काटने का समय आया तो परिवार पर पुराने सरकारी कर्जे का हवाला देते हुए तैयार फसल काट ली गई। कर्जा लेकर तैयार की गई फसल कटने के बाद हमारे दुर्दिन शुरू हो गए।

वह दौर ऐसा था कि मौके की तलाश में बैठे लोग मेरे पापा को सबक सिखाने में लग गए। क्योंकि मेरे पापा जिद्दी स्वभाव के हैं। झुकना उन्हें गवारा नहीं तो ऐसे में घर में अभाव का दौर शुरू हो गया। हां, विपरीत परिस्थितियों में भी न झुकते हुए उन्होंने जीवटता के साथ हमारे लिए पूरा संघर्ष किया। परिवार में तीन बहनें और हम तीन भाइयों की बड़ी जिम्मेदारी मेरे पापा के कंधे पर थी। उस संघर्ष में मेरी मां ने मेरे पापा को भरपूर सहयोग दिया। मैं बचपन से स्वस्थ होने के साथ-साथ बहुत प्रतिभाशाली था। नेतृत्व की क्षमता ऊपर वाले ने मुझे जन्मजात दी है। बचपन से ही मैं दूसरे बच्चों पर हावी रहता था। अभाव की कमजोरी को अपनी वाकपटुता, ताकत के बल पर दूसरे बच्चों से बड़े काम करके पूरी कर लेता था। यही वजह थी कि दूसरे बच्चे भी मेरे नेतृत्व का लोहा मानते थे।


अभाव में भी मैं बच्चों के साथ ही उनके माता-पिता पर अपना प्रभाव छोड़ देता था। हां, अभाव में रिश्तेदारों के साथ परिचितों का क्या रवैया होता है, यह मैंने बहुत करीब से देखा है। हर कोई आपसे बिगार कराने का प्रयास करता है। बचपन से ही नेतृत्व की क्षमता के चलते मैंने कभी अपना कंधा किसी को इस्तेमाल नहीं करने दिया। इसलिए मेरे करीबी मुझे भी सबक सिखाने की फिराक में रहते थे। बच्चों में तो लोकप्रियता मैंने कक्षा पांच में ही हासिल कर ली थी। उस दौर में रामायण की अधिकतर चौपाइयों के कंठस्थ होने की वजह से अंताक्षरी में मैं हमेशा अव्वल रहा। यही वजह थी कि कक्षा चार में ही मुझे स्कूल मॉनिटर बनाए जाने बनने की मांग उठने लगी थी।


कक्षा पांच में जब हम लोग पास के ही गांव खेड़ी में स्पोर्ट्स मीट में गए तो अंताक्षरी में मैंने अपने बलबूते पर सभी टीमों को हरा दिया। इस स्पोर्ट्स मीट में क्षेत्र के लगभग सभी स्कूलों के बच्चे आए थे। अंताक्षरी ही नहीं बल्कि अधिकतर खेलों में मेरा प्रदर्शन बहुत बढ़िया रहा। छोटी सी उम्र में मैंने क्षेत्र में अच्छी खासी लोकप्रियता हासिल कर ली। जब मैं इनाम जीतकर घर लाया तो स्कूलों के अलावा गांव व रिश्तेदारों में एक अलग पहचान बन गई। मेरे घरवालों को तभी से लगने लगा था कि एक दिन मैं अपने माता-पिता व गांव का नाम रोशन करूंगा। मुझे बताया गया कि मेरा नाम भी तत्कालीन लोकप्रिय नेता चरण सिंह के नाम पर मेरे फूफा जी ने चरण सिंह रखा था। कक्षा पांच से ही मैंने विपरीत परिस्थितियों को अपने हिसाब से ढालना सीख लिया था। हां मेरी ननिहाल का सहयोग मुझे हमेशा मिला। मैं अपने सभी मामाओं का चहेता रहता था। यही वह दौर था जबसे मेरे व्यक्तित्व में निखार आना शुरू हो गया था। अभी इतना ही। आगे का संघर्ष अगले लेख में

हर बाधा को पार करने का एकमात्र रास्ता संघर्ष

संघर्ष—चरण सिंह राजपूत—1

चरण सिंह राजपूत


जब आप किसी निजी संस्थान में नौकरी करने जाते हैं, तो शुरू से ही चुनौतियों का सिलसिला शुरू हो जाता है। बेरोजगारी के दौर में ज्यादातर युवा अपनी नौकरी जाने के भय से अपने ही साथ हो रही ज्यादतियों का विरोध नहीं कर पाते। यही वजह है कि उन्हें उनके हक से वंचित कर दिया जाता है। चरण सिंह राजपूत उन विरले युवाओं में एक हैं, जिन्होंने न केवल ज्यादतियों का विरोध किया, अपितु जीत भी हासिल की। आइए, जानते हैं उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी।

परिस्थितियों से जूझते-जूझते आज मैंने अपने आप को शाारीरिक व मानसिक रूप से इतना मजबूत कर लिया है कि अब किसी गलत व्यक्ति या फिर गलत काम के आगे झुकना मुझे कुबूल नहीं है। मीडिया से लेकर सामाजिक और राजनीति के क्षेत्र में मैंने लोगों को बहुत करीब से समझा और जाना। अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि देश में अच्छे और प्रतिभाशाली युवाओंं को आगे बढ़ाने वाले लोग बहुत कम हैं। युवाओं को बढ़ाने की बात तो हर कोई करता है पर वर्चस्व में रहने वाले लोग किसी होनहार युवा को बढ़ते नहीं देख सकते। हां, हर कोई अपने बेटे-बेटियों या फिर करीबियों को स्थापित करने में लगा है। यही कारण है कि आज तमाम अराजकताओं के बावजूद देश में विरोध करने वाले लोगों का घोर अभाव है। प्रभावशाली लोग अपने निजी स्वार्थों के चलते जाति-धर्म, आरक्षण और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को भुनाने में लगे हैं। युवाओं को भी जाति और धर्म के आधार पर भटका दिया गया है। आज जरूरत है कि देश के निस्वार्थ होकर आजादी की लड़ाई की तरह देश और समाज के भले के लिए खड़े हों।

जमीनी हकीकत यह है कि हमारे समाज में गरीबी को एक अभिशाप के रूप में जाना जाता है। यह बात शहीदे आजम भगत सिंह ने भी कही थी। गरीब व्यक्ति यदि उच्च जाति से हो तो उसकी जिंदगी और नरक बन जाती है। आज देश में जिस तरह से समझौतावादी प्रवृत्ति के चलते व्यक्ति आंतरिक रूप से कमजोर होता जा रहा है। मट्ठी भर लोग देश की बड़ी आबादी का हक मारकर संसाधनों का दोहन करने में लगे हैं। आम आदमी समस्याओं से जूझते-जूझते बेबस हो जा रहा है। दम तोड़ दे रहा है। परिस्थितियों ने देश के युवाओं को भटका दिया है। उनमें समाज की दमनात्मक नीति से लड़ने की क्षमता कमजोर होती जा रही है।

ऐसे में मुझे अपने बचपन से लेकर अब तक कदम पर आने वाली बाधाओं से निपटने में संघर्ष का माद्दा और समाज से लड़ने की इच्छाशक्ति एक संबल बनी रही है। मुझे लगता है कि आज के हालात में युवाओं के लिए मेरा संघर्ष भी काफी हद तक मजबूती प्रदान कर सकता है। लोग एक किताब में अपनी आत्मकथा लिखकर अपने जीवन को समेटने रहे हैं। मैं सीमित शब्दों में किस्त दर किस्त लेखों से अपने जीवन के संघर्ष, समस्याओं और समाज के अलग-अलग आदमी के प्रति अपना नजरिया सामने लाने का प्रयास करूंगा। मेरा प्रयास होगा कि ईमानदारी के साथ अपने अब तक संघर्ष को अपने ही शब्दों में बयान कर दूं। मेरे संघर्ष की दास्तां निश्चित रूप से आपको प्रेरित करेगी। नए नए अनुभवों के साथ मिलते हैं अगले लेख में-

आगे पढ़ें संघर्षमय जीवन की शुरुआत

जलियांवाला बाग : कुर्बानी के सौ साल

तीन दशक के कड़े संघर्ष और कुर्बानियों के बाद देश को आज़ादी मिली। भारत का शासक वर्ग वह आज़ादी सम्हाल नहीं पाया। उलटे उसने देश को नए साम्राज्यवाद की गुलामी में धकेल दिया है। ‘आज़ाद भारत’ के नाम पर केवल सम्प्रदायवाद, जातिवाद, परिवारवाद, व्यक्तिवाद और अंग्रेज़ीवाद बचा है। इसी शासक वर्ग के नेतृत्व में भारत के लोग नवसाम्राज्यवादी लूट में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने के लिए एक-दूसरे से छीना-झपटी कर रहे हैं। कहा जा रहा है यही ‘नया इंडिया’ है, इसे ही परवान चढ़ाना है।

————————————————-

प्रेम सिंह

आज 13 अप्रैल 2019 को जलियांवाला बाग नरसंहार का सौवां साल है। वह बैसाखी के त्यौहार का दिन था। आस-पास के गावों-कस्बों से हजारों नर-नारी-बच्चे अमृतसर आये हुए थे। उनमें से बहुत-से लोग खुला मैदान देख कर जलियांवाला बाग में डेरा जमाए थे। रौलेट एक्ट के विरोध के चलते पंजाब में तनाव का माहौल था। तीन दिन पहले अमृतसर में जनता और पुलिस बलों की भिड़ंत हो चुकी थी। पुलिस दमन के विरोध में 10 अप्रैल को 5 अंग्रेजों की हत्या और मिस शेरवूड के साथ बदसलूकी की घटना हुई थी। कांग्रेस के नेता डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू गिरफ्तार किये जा चुके थे। शाम को जलियांवाला बाग में एक जनसभा का आयोजन था जिसमें गिरफ्तार नेताओं को रिहा करने और रौलेट एक्ट को वापस लेने की मांग के प्रस्ताव रखे जाने थे। इसी सभा पर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर (जिन्हें पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर माइकेल फ्रांसिस ओ’ड्वायर ने अमृतसर बुलाया था) ने बिना पूर्व चेतावनी के सेना को सीधे गोली चलाने के आदेश दिए। सभा में 15 से 20 हजार भारतीय मौजूद थे। उनमें से 500 से 1000 लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। फायरिंग के बाद जनरल डायर ने घायलों को अस्पताल पहुँचाने से यह कह कर मना कर दिया कि यह उनकी ड्यूटी नहीं है। 13 अप्रैल को अमृतसर में मार्शल लॉ लागू नहीं था। मार्शल लॉ नरसंहार के तीन दिन बाद लागू किया गया जिसमें ब्रिटिश हुकूमत ने जनता पर भारी जुल्म किए।

जनरल डायर ने जो ‘ड्यूटी’ निभायी उस पर चश्मदीदों, इतिहासकारों और प्रशासनिक अधिकारियों ने, नस्ली घृणा से लेकर डायर के मनोरोगी होने तक, कई नज़रियों से विचार किया है। ब्रिटिश हुकूमत ने जांच के लिए हंटर कमीशन बैठाया और कांग्रेस ने भी अपनी जांच समिति बैठाई। इंग्लैंड में भी जनरल डायर की भूमिका की जांच को लेकर आर्मी कमीशन बैठाया गया। इंग्लैंड के निचले और उंचले सदनों में भी डायर द्वारा की गई फायरिंग पर चर्चा हुई। हालांकि निचले सदन में बहुमत ने डायर की फायरिंग को गलत ठहराया लेकिन उंचले सदन में बहुमत डायर के पक्ष में था। इंग्लैंड के एक अखबार ने डायर की सहायता के लिए कोष की स्थापना की जिसमें करीब 30 हज़ार पौंड की राशि इकठ्ठा हुई। भारत में रहने वाले अंग्रेजों और ब्रिटेन वासियों ने डायर को ‘राज’ की रक्षा करने वाला स्वीकार किया।

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ट्रेन से लाहौर से दिल्ली लौटते हुए उन्होंने खुद जनरल डायर को अपने सैन्य सहयोगियों को यह कहते हुए सुना कि 13 अप्रैल 1919 को उन्होंने जो किया बिलकुल ठीक किया। जनरल डायर उसी डिब्बे में हंटर कमीशन के सामने गवाही देकर लौट रहे थे। जनरल डायर ने अपनी हर गवाही और बातचीत में फायरिंग को, बिना थोड़ा भी खेद जताए, पूरी तरह उचित ठहराया। ऐसे संकेत भी मिलते हैं कि उन्होंने स्वीकार किया था कि उनके पास ज्यादा असला और सैनिक होते तो वे और ज्यादा सख्ती से कार्रवाई करते। इससे लगता है कि अगर वे दो आर्मर्ड कारें, जिन्हें रास्ता तंग होने के कारण डायर जलियांवाला बाग के अंदर नहीं ले जा पाए, उनके साथ होती तो नरसंहार का पैमाना बहुत बढ़ सकता था।

हंटर कमीशन की रिपोर्ट और अन्य साक्ष्यों के आधार पर जनरल डायर को उनके सैन्य पद से हटा दिया गया। डायर भारत में ही जन्मे थे, लेकिन वे इंग्लैंड लौट गए और 24 जुलाई 1927 को बीमारी से वहीँ उनकी मृत्यु हुई। क्रांतिकारी ऊधम सिंह ने अपने प्रण के मुताबिक 13 मार्च 1940 को माइकेल ओ’ड्वायर की लंदन के काक्सटन हॉल में गोली मार कर हत्या कर दी। ऊधम सिंह वहां से भागे नहीं। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 31 जुलाई  1940 को फांसी दे दी गई। ऊधम सिंह का पालन अनाथालय में हुआ था। वे भगत सिंह के प्रशंसक और हिंदू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे। बताया जाता है कि अनाथालय में रहते हुए उन्होंने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया था।    

जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोरे ने ‘नाईटहुड’ और गाँधी ने ‘केसरेहिंद’ की उपाधियां वापस कर दीं। इस घटना के बाद भारत के स्वतंत्रता आंदोलन ने नए चरण में प्रवेश किया। करीब तीन दशक के कड़े संघर्ष और कुर्बानियों के बाद देश को आज़ादी मिली। भारत का शासक वर्ग वह आज़ादी सम्हाल नहीं पाया। उलटे उसने देश को नए साम्राज्यवाद की गुलामी में धकेल दिया है। ‘आज़ाद भारत’ के नाम पर केवल सम्प्रदायवाद, जातिवाद, परिवारवाद, व्यक्तिवाद और अंग्रेज़ीवाद बचा है। इसी शासक वर्ग के नेतृत्व में भारत के लोग नवसाम्राज्यवादी लूट में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने के लिए एक-दूसरे से छीना-झपटी कर रहे हैं। कहा जा रहा है यही ‘नया इंडिया’ है, इसे ही परवान चढ़ाना है।

जलियांवाला बाग की कुर्बानी के सौ साल का जश्न नहीं मनाना है। साम्राज्यवाद विरोध की चेतना को सलीके से बटोरना और सुलगाना है, ताकि शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ नहीं चली जाए। इस दिशा में सोशलिस्ट पार्टी आज से साल भर तक कुछ कार्यक्रमों का आयोजन करेगी। उनमें साथियों की सहभागिता और सहयोग की अपेक्षा रहेगी। जलियांवाला बाग के शहीदों को सलाम!

फरीदाबाद के खदान मजदूराें के लिए चरन सिंह का इन्कलाब, डूबते काे मिला सहारा

फाेर्थपिलर टीम।

फाइट फार राइट संगठन के संस्थापक चरन सिंह राजपूत

चरन सिंह राजपूत जुझारू श्रमिक नेता हैं। उन्हाेंने मजीठिया वेजबाेर्ड लागू कराने के लिए जितनी बड़ी बड़ी लड़ाइयां लड़ने की हिम्मत दिखार्इ है, वैसी हिम्मत अाज कल के बहुत कम पत्रकाराें में पार्इ जाती है। उन्हाेंने इस कहावत काे चरितार्थ किया है-मर्द मरे मर्दानगी काे निमर्द मरे राेटी काे।’फाइट फार राइट’नाम से वह एक संगठन चला रहे हैं, जाे श्रमिक हिताें काे समर्पित है। अाजकल वह हरियाणा के फरीदाबाद जिले में कार्यरत खदान मजदूराें की लड़ार्इ लड़ रहे हैं। उनके संघर्ष, चुनाैतियाें अाैर सफलताअाें की कहानी सुनिए उन्हीं की जुबानी।

फरीदाबाद सेक्टर 43 ए में पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूरों को पुनर्वासित कर दयानंद कालोनी बसाई गई है। 6 एकड़ जमीन पर बसी यह कालोनी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनी है। कालोनी के बनवाने के लिए हुए आंदोलन की अगुआई सोशल एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश ने की थी। इस कालोनी में 97 मकान ऐसे बचे हैं, जिनका एलाटमेंट अभी होना है। ये मकान 2014 में बनकर तैयार हो गए थे। बताया जाता है कि बंधुआ मुक्ति मोर्चा संगठन ने विभिन्न डेरों में सर्वे कर 250 मजदूरों से 500-500 रुपये का चंदा मकानों के एलाटमेंट कराने के लिए लिया था। स्वामी अग्निवेश बंधुआ मुक्ति मोर्चा के सर्वेसर्वा बताये जाते हैं।
इन मकानों के एलाटमेंट के लिए मजदूर पिछले 5 साल से स्वामी अग्निवेश से लेकर राज्य सरकार के चक्कर लगा रहे हैं पर इन्हें मकान नहीं मिले। अंत में परेशान होकर मजदूरों ने अब खुद ताले तोड़कर इनमें रहना शुरू कर दिया है।

फरीदाबाद के खदान मजदूर, जिन्हें तरह तरह की बातें कर डराया जा रहा है।

मुझे बताया गया कि तरह-तरह की बातें कर इन मजदूरों को डराया जा रहा है। कुछ भी हो मैं तो मजदूरों के इस निर्णय का स्वागत करता हूं। जब उनकी कोई सुनने को तैयार ही नहीं तो वे क्या करते ? यह मजदूरों का इंकलाब है। मैं कालोनी और विभिन्न डेरों में रह रहे मजदूरों से कह देना चाहता हूं कि मैंने पहली ही बैठक में लोगों को आश्वस्त किया था कि चाहे परिस्थिति कितनी भी विपरीत रहे, मैं आप लोगों की लड़ाई संगठन से ऊपर उठकर भी लड़ूंगा। जब राज्य सरकार आपकी नहीं सुन रही है, स्वामी अग्निवेश कुछ नहीं कर रहे हैं तो निर्णय तो खुद ही लेना पड़ता और आप लोगों ने लिया। इसे ही तो इंकलाब कहा जाता है। स्वामी जी कहते हैं कि वह सब जगह लिखकर थक चुके हैं पर कोई कुछ सुन ही नहीं रहा है। ऐसे में मुझे प्रसन्नता होती कि यदि स्वामी अग्निवेश जी मजदूरों की अस्थाई रूप से वहां रहने की व्यवस्था करते। मजदूरों के पक्ष में खड़े होकर कहते कि मैं खड़ा हूँ। आप लोग रहें इन मकानों में।
जो परिस्थिति वहां उभरकर सामने आई है। उसके हिसाब से अब आपसी सहमति से कमरों को बांटकर उनमें रहना बनता है। मैं साथ में यह भी कहना चाहूंगा कि स्वामी जी भले ही आज की तारीख में मजदूरों की परेशानी न समझ रहे हों पर उन्होंने आप लोगों की लड़ाई बड़े स्तर पर लड़ी है। उनका मान रखा जाए। जो 250 लोगों से उनके संगठन बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने चंदा लिया है, उसके हिसाब से ही जरूरतमंद मजदूरों को प्राथमिकता के आधार पर मकान खुलवाए जाएं। मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि जब कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं है तो सभी डेरों के साथ ही रेजिडेंस एसोसिएशन के पदाधिकारी बैठकर एक प्रस्ताव पारित कर इन कमरों के अस्थाई रूप से खोलने की व्यवस्था करें। जब समाज की समस्या सरकार हल नहीं कराती है तो फिर पंचायत ही निर्णय करती है। वहां की पंचायत वहां के डेरों और कालोनी के सम्मानित लोग हैं।

मजदूराें काे उनका हक दिलाने पहुंचे चरन सिंह राजपूत।

मुझे ऐसी जानकारी भी मिली है कि डेरों और कालोनी के प्रधानों ने आपसी सहमति से इन मकानों को बांटने की व्यवस्था कर भी ली है तो फिर देर किस बात की हो रही है। मैं जब इस कालोनी में जाता हूं तो कई बुजुर्ग महिलाएं मकानों के लिए गिड़गिड़ाने लगती हैं। उनमें कई विधवा भी हैं, जिनके पति आंदोलन की भेंट चढ़ गए। मुझे बड़ी पीड़ा होती है उनकी दयनीय हालत देखकर। मैंने कई बार कहा है कि कम से कम इन बुजुर्ग महिलाओं को तो मकान खुलवा ही दिए जाएं।
मेरा अपना मानना है कि मानवता से बड़ा कोई तंत्र नहीं होता है। स्वामी जी ने जब संतोष और रमैया नाम की बुजुर्ग महिलाओं को मकान खुलवाए थे। तब एक सुर में उनके उस निर्णय की सराहना हुई थी। स्वामी जी आपने मुझे इन मजदूरों के मान सम्मान और अधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए भेजा था। उसे मैं लड़ रहा हूं। आपकी लड़ाई को आगे बढ़ाकर इस कालोनी को देश के मानचित्र पर उभारना मेरा सपना है।
जो मजदूर मकान खोलकर रह रहे हैं वे निश्चिंत होकर उन मकानों में रहें। जब तक इन मकानों का विधिवत रूप से एलाटमेंट नहीं हो जाता है। हम देखते हैं कि कौन निकालता है, आप लोगों को आपके ही मकानों से। साथ ही मैं यह भी क्लियर कर दूं कि जिन भी मजदूरों ने पत्थर खदानों में संघर्ष किया है, उनका मकान इस कालोनी में बनता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के हिसाब से इस कालोनी में 523 मकान बनने थे। जबकि 350 ही मकान बने हैं। हम सब लोगों को मिलकर बचे हुए 173 मकान भी सरकार से और बनवाने हैं। कालोनी में स्कूल अस्पताल बनवाने के लिए संघर्ष करना है। समुचित शौचालय और पेयजल व्यवस्था करानी है।

अावंटन के इंतजार में खदान मजदूराें की कालाेनी।

व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़कर कालोनी के विकास की सोचिये। यदि सभी लोगों ने मिलकर कालोनी के विकास के लिए प्रयास कर लिया तो समझ लीजिए कि हरियाणा ही नहीं बल्कि पूरे देश में भी यह कालोनी न. 1 बनकर उभरेगी । जो लोग कालोनी के मजदूरों को डरा रहे हैं वे अच्छी तरह से समझ लें कि इस कालोनी की एक एक ईंट और एक एक इंच जमीन पर मजदूरों का अधिकार है। मैंने वहां के मजदूरों को वचन दिया है कि आप लोगों के मान सम्मान और अधिकार की लड़ाई हर स्तर से लड़ी जाएगी। चाहे इसके लिए मुझे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। कालोनी के निर्माण में जिस तरह से अनियमितता बरती गई है, वह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है। माननीय सुप्रीम कोर्ट के सम्मान में हम लोग हर उस ताकत से टकराएंगे जो उनके आदेश की अवहेलना करेगी।

इंकलाब की मिसालः अावंटन नहीं हुअा ताे कालाेनी में रहने के लिए अा गए मजदूर।

जिन लोगों ने पत्थर खदानों में संघर्ष किया है। बंधुआ मुक्ति मोर्चा को चंदा दिया है। उनका इन मकानों में रहने का पूरा हक बनता है। मैं अक्सर सुनता हूं कि चंदा 250 लोगों से लिया गया है तो 97 मकान कैसे बंट जाएं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि चंदा लेते समय यह बात समझ में नहीं आ रही थी क्या ? वैसे भी कोई संगठन मकान दिलवाने के नाम पर चंदा कैसे ले सकता है ?
मैंने दो साल में वहां पर देखा कि कोई इस कालोनी की समस्या सुनने को कोई तैयार नहीं है। स्थिति यह है कि एनसीआर में बसी इस कालोनी में बिजली होने के बावजूद यहां रह रहे लोगों को बिजली के कनेक्शन नहीं मिले हैं, जबकि वे लोग कई बार कनेक्शन के लिए आवेदन दे चुके हैं। उल्टे उन पर बिजली चोरी की रिपोर्ट दर्ज करा दी गई।
कालोनी में पेयजल की समुचित व्यवस्था नहीं है। शौचालय को सामूहिक रूप बनाया गया है जो घरों से काफी दूर है। रात में महिलाओं के साथ किसी अनहोनी की आशंका बनी रहती है। सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे गंभीर बीमारियों के फैलने का अंदेशा हमेशा बना रहता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के हिसाब से यहां अस्पताल और स्कूल भी बनना है, जिसके बारे में कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं। यह स्थिति तब है जब कालोनी की समस्याओं के बारे में फरीदाबाद के डीसी के साथ ही सभी जनप्रतिनिधियों अवगत कराने के अलावा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक को पत्र भेजा जा चुका है।

मजदूरों का आरोपः बंधुआ मुक्ति मोर्चा समस्याएं तो हल कराता नहीं, उल्टे मनमानी कर चंदा वसूलता है।

देखने की बात यह भी है कि जब मैं 2 साल पहले बंधुआ मुक्ति मोर्चा की ओर से इस कालोनी में पहुंचा तो मजदूरों का आरोप था कि बंधुआ मुक्ति मोर्चा उनकी कुछ समस्याएं तो हल कराता नहीं, उल्टे उन पर अपनी मनमानी थोप देता है, जिसमें चंदा लेना भी था। मतलब मजदूरों में स्वामी अग्निवेश और उनके सिपहसालारों के प्रति बहुत नाराजगी थी। मैंने मजदूरों से उनके हिसाब से ही लड़ाई लड़ने का आश्वासन दिया था। उसी के अंतर्गत उन्होंने कालोनी में रेजिडेंस एसोसिएशन भी बनाई। वहां की समस्याओं को देखते हुए कालोनी के लोग ही निर्णय लेते हैं। मैं तो बस उनकी लड़ाई को गति देता हूं।

——————————————–