बहरी और गूंगी संसद के गठन की तैयारी

चरण सिंह राजपूत

पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा मुखिया मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, फारुख अब्दुल्ला जैसे पार्टियों के मुख्य नेताओं तक सिमट कर रह गया है। जो प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनने वाले हैं उनके नाम बस सूचियों में हैं। कितने प्रत्याशी तो ऐसे हैं जिनके दर्शन होना संवाद होना तो दूर उनको क्षेत्र के लोग पहचानते भी नहीं हैं।

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यह राजनीति का गिरता स्तर ही है कि राजनीतिक दलों के पास न तो विचार हैं और न ही नैतिकता। संसद में धनबल और बाहुबल के भरोसे धंधेबाज तो बहुत समय से पहुंच रहे हैं। इस बार बहरे और गूंगे भी पहुंच जाएंगे। अब तक तो सरकार को ही बहरी और गूंगी कहा जाता था। अब संसद को भी बहरी और गूंगी कहा जाने लगेगा। लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार से तो ऐसा ही लग रहा है।

देश में यह पहला चुनाव देखने को मिल रहा है जिसमें लगभग सभी दलों के प्रत्याशी बहरे और गूंगे बने हुए हैं। न नुकड़ सभाओं में प्रत्याशियों की आवाज सुनने को मिल रही है और न ही रैलियों में। जनता से रूबरू होने के बजाय छुटभैये नेताओं से मिलकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ले रहे हैं। चुनाव एक ड्रामा बनकर रह गया है। पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा मुखिया मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, फारुख अब्दुल्ला जैसे पार्टियों के मुख्य नेताओं तक सिमट कर रह गया है। जो प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनने वाले हैं उनके नाम बस सूचियों में हैं। कितने प्रत्याशी तो ऐसे हैं जिनके दर्शन होना संवाद होना तो दूर उनको क्षेत्र के लोग पहचानते भी नहीं हैं।

मीडिया में भी पार्टियों के बड़े नेताओं के बयान और भाषण ही सुनने को मिल रहे हैं। मतलब साफ है लगभग सभी पार्टियों ने नेता से ज्यादा पैसे को तवज्जो दी है। इसका बड़ा कारण यह है कि पैसे के बल पर चुनाव लड़ रहे धंधेबाज जनता को फेस करने का साहस नहीं बटोर पा रहे हैं। जातीय आंकड़ों या फिर भावनात्मक मुद्दों के सहारे संसद में पहुंचने की जुगत भिड़ा रहे हैं। अधिकतर प्रत्याशी बड़े नेताओं के रिश्तेदार या फिर जेब के हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब ये प्रत्याशी चुनाव में भी जनता से नहीं मिल पा रहे हैं तो फिर चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र की समस्याएं क्या उठाएंगे।

विचारहीन,  नैतिकताहीन हो चुकी राजनीति में पैसा सर्वोपरि हो गया है। जनप्रतिनिधियों का मकसद जनता की आवाज न बनकर अपने धंधे को चमकाना रह गया है। हो भी क्यों न। करोड़ों में टिकट जो खरीद रहे हैं। उदाहरण के तौर पर गौतमबुद्धनगर का चुनाव सबसे महंगा माना जा रहा था। इस क्षेत्र में भी बड़े स्तर पर लोग प्रत्याशियों की आवाज तक को तरस गए। पूरे का पूरा चुनाव सोशल मीडिया पर लड़ने का प्रयास हो रहा है। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि गांव देहात के इस देश में आखिर कितने मतदाता सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।

भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह, कांग्रेस में प्रियंका गांधी, सपा में अखिलेश यादव, बसपा में मायावती, रालोद में अजित सिंह और जयंत सिंह, तृमूकां में ममता बनर्जी की ही आवाज सुनने को मिल रही है। देश में गिने चुने परिवार राजनीति कर रहे हैं। यह जमीनी हकीकत है कि ये परिवार या फिर इनके रिश्तेदार ही चुनाव लड़ते हैं। वह बात दूसरी है कि इन्हें बोलना आता हो या नहीं। इनको लोगों की समस्याओं की जानकारी है या नहीं। इन्हें राजनीति की जानकारी है या नहीं। इनको तो संसद में भी चुप बैठकर अपना धंधा चमकाना है। यही सब वजह है कि गैर राजनीतिक रूप से लोगों के संसद में पहुंचने से ही जमीनी मुद्दे संसद में नहीं उठ पाते हैं। स्तरहीन बहस होती है। लोहिया जी कहते थे कि जब सड़कें सुनसान हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। आज स्थिति यह है कि कायर,  नौतिक रूप से कमजोर विपक्ष और धंधेबाज लोगों के जनप्रतिनिधि बनने से सड़क सुनसान और संसद बहरी और गूंगी हो जा रही है।

जब संसद में बहरे और गूंगे लोग पहुंचेंगे तो संसद में जनता की आवाज उठने की उम्मीद करना बेमानी है। सभी पार्टियों के समर्थक अपने अपने प्रत्याशियों को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि ये लोग सांसद बनने लायक हैं भी या नहीं। संसद में जाकर ये लोग जनप्रतिनिधि के रूप में काम करेंगे या कारपोरेट प्रतिनिधि के रूप में या फिर पार्टी प्रतिनिधि के रूप में। लगभग सभी पार्टियों में ऐसे प्रत्याशियों की भरमार है, जिनका जनहित की राजनीति से कोई लेना देना नहीं है।

पार्टियां किसी भी तरह से बस सत्ता हथियाना चाहती हैं। इससे उन्हें कोई मतलव नहीं कि इनके सांसद संसद में बोलने लायक हैं या नहीं। वैसे तो पार्टी मुखिया ही नहीं चाहते कि उनकी पार्टी का कोई सांसद बोलने वाला हो। इसका कारण उनमें पद को लेकर असुरक्षा होना है।

(लेखक फाइट फॉर राइट के फाउंडर हैं)