मायावती की बेचैनी बढ़ा रही चंदशेखर की राजनीति में एंट्री

चरण सिंह राजपूत

नई दिल्ली। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन के बल पर देश की राजनीति में उभरे चंद्रशेखर आजाद बसपा मुखिया मायावती के लिए बेचैनी बनते जा रहे हैं। यही वजह है कि मायावती कभी चंद्रशेखर के उनको बुआ कहने पर नाराज हो जाती हैं तो कभी कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के उनसे अस्पताल में मिलने पर। और अब चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा से बौखला गई हैं। मायावती का कहना है कि चंद्रशेखर भाजपा का गुप्तचर है। उसे भाजपा दलित वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए इस्तेमाल कर रही है। मायावती यह भी कह रही हैं कि पहले चंदशेखर को बसपा में घुसाने का प्रयास किया गया पर सफल न हो पाए।ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर चंदशेखर को मायावती क्यों नहीं बर्दाश्त कर पा रही हैं।चंद्रशेखर यदि मोदी के खिलाफ ताल ठोक रहे हैं तो बसपा और सपा को उनको समर्थन करना चाहिए।

चंद्रशेखर ने दलितों के मान सम्मान और अधिकार की लड़ाई लड़ी है। मायावती भी तो दलितों के हित की ही बात करती हैं। जहां तक भाजपा की बात है। मायावती तो भाजपा से मिलकर सरकार भी बना चुकी हैं।दरअसल मायावती को चंद्रशेखर के रूप में उभरता दलित नेता दिखाई दे रहा है जो आने वाले समय में मायावती के खतरा बन सकता है। वैसे भी मायावती ने बसपा से किसी दलित को नेता नहीं बनाया। चाहे धर्मवीर अशोक हो। वीर सिंह हो या फिर दूसरे दलित नेता किसी को चेहरा नहीं बनने दिया।जमीनी हकीकत यह है कि देश की राजनीति पर विशेष परिवारों का कब्जा हो गया है।

सपा में मुलायम परिवार, राजद में लालू प्रसाद का परिवार, कांग्रेस में नेहरू परिवार, एनसीपी में शरद यादव परिवार, पीडीएफ में मुफ़्ती परिवार, शिवसेना में बाल ठाकरे का परिवार। लोजपा में रामविलास पासवान का। ऐसे ही बसपा में मायावती अपने बाद अपने भाई आनंद को स्थापित करने की फिराक में हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर के रूप में उभरते दलित चेहरे को न केवल मायावती बल्कि दूसरे स्थापित राजनीतिक परिवार भी पचा नहीं पा रहे हैं।  लोकतंत्र को राजतंत्र में तब्दील करने पर आमादा ये परिवारवादी नेताओं को डर है कि यदि चंद्रशेखर देश के राजनीतिक पटल पर छा गया तो परिवारवाद और वंशवाद के बल पर स्थापित हुए नेताओं के लिए हर बिरादरी में युवा नेतृत्व खतरा होने लगेगा। यही वजह है कि वैसे तो हर नेता युवाओं को राजनीति में आने के लिए कहता है पर जमे हुए नेता युवा नेतृत्व को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। जेब का बनाकर रखना चाहते हैं।

नहीं तो इनके अयोग्य उत्तराधिकारी कैसे टिके पाएंगे।जमीनी सच्चाई यह है कि चाहे जेएनयू से कन्हैया हो या फिर गुजरात से हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी हो या फिर अल्पेश ठाकोर। ये सब नेता परवारवादियों के आंख की किरकिरी बने हुए हैं।बेगूसराय से भाकपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे कन्हैया के साथ भी चंदशेखर जैसा बर्ताव हो रहा है।मायावती का चंदशेखर के बढ़ते वजूद से परेशान होने का मतलब भी साफ है। एक तो मायावती भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही राजनीति के क्षेत्र से उभरी थी। और चंदशेखर की भीम आर्मी ने मोदी सरकार के खिलाफ बसपा से ज्यादा संघर्ष किया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलित युवाओं में चंद्रशेखर का क्रेज लगातार बढ़ रहा है।

विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया


प्रेम सिंह

मौजूदा दौर की भारतीय राजनीति में नीतियों के स्तर पर सरकार और विपक्ष के बीच अंतर नहीं रह गया है. दरअसल, राजनीतिक पार्टियों के बीच का अंतर ही लगभग समाप्त हो गया है. लोग अक्सर एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आवा-जाही करते रहते हैं. क्योंकि विचारधारा ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का आधार नहीं रह गई है. केंद्र अथवा राज्यों में कौन सरकार में है और कौन विपक्ष में – यह चुनाव में बाज़ी मारने पर निर्भर करता है. चुनाव के बाद ही या अगला चुनाव आते-आते पार्टियां अपना गठबंधन, और नेता अपनी पार्टी बदल लेते हैं. इस चलन का अब बुरा नहीं माना जाता. यह अकारण नहीं है. 1991 में जब कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं, उस समय भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कांग्रेस ने अब भाजपा का काम हाथ में ले लिया है. शायद तभी उन्होंने आकलन कर लिया था कि वे निकट भविष्य में देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं. वर्ना 80 के दशक तक यही सुनने को मिलता था कि आरएसएस/जनसंघ से जुड़े वाजपेयी अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के बावजूद कभी भी देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. वाजपेयी गठबंधन सरकार के पहले दो बार अल्पकालिक, और उसके बाद पूर्णकालिक प्रधानमंत्री बने. अब नरेंद्र मोदी अकेले भाजपा के पूर्ण बहुमत के प्रधानमंत्री हैं.

1991 के बाद से मुख्यधारा राजनीति के लगभग सभी दलों का देश के संविधान के प्रतिकूल नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में अनुकूलन होता गया है. लिहाज़ा, पिछले तीन दशकों में परवान चढ़ा निगम पूंजीवाद भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं को खुले रूप में निर्देशित करता है. जब संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की जगह निगम पूंजीवाद की वैश्विक संस्थाओं – विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि, और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों/कारपोरेट घरानों के आदेशों ने ले ली तो संविधान के समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे मूलभूत मूल्यों पर संकट आना ही था. इनमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हम लगभग गवां चुके हैं. इस क्षति का सच्चा अफसोस भी हमें नहीं है. नई पीढ़ियां इस प्रतिमान विस्थापन (पेराडाईम शिफ्ट) की प्राय: अभ्यस्त हो चुकी हैं. लोकतंत्र का कंकाल अलबत्ता अभी बचा हुआ है. यह कंकाल जब तक रहेगा, देश में चुनाव होते रहेंगे.   

किसी देश की राजनीति में यह अत्यंत नकारात्मक स्थिति मानी जायेगी कि वहां सरकार और विपक्ष का फैसला तात्कालिक रूप से चुनाव की जीत-हार पर निर्भर करता हो. स्वाभाविक तौर पर होना तो यही चाहिए कि संविधान-सम्मत नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने और संवैधानिक संस्थाओं के बेहतर उपयोग और संवृद्धि की कसौटी पर सरकार और विपक्ष दोनों को कसा जाए. लेकिन निगम पूंजीवाद से अलग विचारधारा, यहां तक कि संविधान की विचारधारा पर भी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता आस्था रखने को तैयार न हों, तो मतदाताओं के सामने विकल्प नहीं बचता. कांग्रेस और भाजपा निगम पूंजीवाद के तहत नवउदारवादी नीतियों की खुली वकालत करने वाली पार्टियां हैं. इन दोनों के अलावा जितनी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां, देश के ज्यादातर बुद्धिजीवी, नागरिक समाज संगठन तथा एक्टिविस्ट भी घुमा-फिर कर नवउदारवादी नीतियों के दायरे में ही अपनी भूमिका निभाते हैं. मुख्यधारा मीडिया इसी माहौल की उपज है और उसे ही दिन-रात लोगों के सामने परोसता है. जिसे ‘गोदी मीडिया’ का प्रतिपक्ष बताया जाता है, वह मीडिया भी ज्यादातर नवउदारवाद के दायरे में ही काम करता नज़र आता है. इस बीच एक तरफ स्वतंत्रता संघर्ष के दौर के प्रतीक-पुरुषों को नेताओं द्वारा नवउदारवाद के हमाम में खींचा जाता है, दूसरी तरफ सत्ता की राजनीति में परिवारों से अलग जो नए चेहरे निकल कर आते हैं, उन पर जाति, धर्म और क्षेत्र की छाप लगी होती है.

किशन पटनायक ने 90 के दशक में इसे प्रतिक्रांति की शुरुआत कहा था. तब से पिछले 20-25 सालों में प्रतिक्रांति अच्छी तरह पक चुकी है. प्रतिक्रांति के पकने का प्रमाण है कि कुछ एनजीओबाज़, धर्म-अध्यात्म के धंधेबाज़, सरकारी आला अफसर और प्रोफेशनल हस्तियां  भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन करते हैं और देश का पूरा लेफ्ट-राईट इंटेलीजेंसिया और मीडिया उसके पक्ष और प्रचार में एकजुट हो जाता है. आंदोलन की ‘राख’ से ‘आम आदमी’ की एक नई पार्टी निकल कर आती है जो आरएसएस/भाजपा तथा सोशलिस्टों/कम्युनिस्टों को एक साथ साध लेती है. कारपोरेट पूंजीवाद की यह अपनी पार्टी है जो अब कांग्रेस को भी घुटनों पर लाने का जोर भरती है! ऐसी स्थिति में कारपोरेट पूंजीवाद, जो नवसाम्राज्यवाद का दूसरा नाम है, के विरोध की राजनीति के लिए चुनावों के रास्ते जगह बनाना लगभग असंभव है.

लेकिन इस नकारात्मक यथार्थ के बावजूद चुनाव ही वह आधार बचता है, जहां से सकारात्मक स्रोतों को तलाश की जा सकती है. इसी मकसद से मैंने पिछले साल जून में ‘लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया निबंध लिखा था. विपक्ष के चुनावी गठबंधन के मद्देनज़र काफी विस्तार से लिखा गया वह निबंध हिंदी में ‘हस्तक्षेप डॉट कॉम’ पर और अंग्रेजी में ‘मेनस्ट्रीम वीकली’, ‘काउंटर कर्रेंट’, ‘जनता वीकली’ समेत कई जगह छपा था. वर्तमान में जैसा भी हमारा लोकतंत्र है, उसमें चुनावों की बहुआयामी भूमिका रेखांकित करते हुए निबंध में मुख्यत: चार  सुझाव रखे गए थे  : भाजपा और कांग्रेस से अलग भारतीय राजनीति की तीसरी शक्ति कही जाने वाली पार्टियों और वामपंथी पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर का एक अलग गठबंधन ‘सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा’ (नेशनल फ्रंट फॉर सोशल जस्टिस) नाम से बनाया जाना चाहिए; विपक्ष के किसी एक नेता को उस मोर्चे का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना चाहिए; कांग्रेस को पांच साल तक बाहर से राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार का समर्थन करना चाहिए; और देश के बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय मोर्चे के गठन और कामयाबी की दिशा में अग्रसक्रिय (प्रोएक्टिव) भूमिका निभानी चाहिए. ये चारों बातें संभव नहीं हो पाईं. लोकसभा चुनाव घोषित हो चुके हैं और 11 अप्रैल 2019 को पहले चरण का मतदान होगा. ऐसे में लेख का दूसरा भाग लिखने का औचित्य शायद नहीं रह जाता है. लेकिन विपक्ष के पाले में बने चुनावी गठबंधनों और रणनीतियों के मद्देनज़र थोड़ी चर्चा की जा सकती है.

यह स्पष्ट है कि भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुकाबले न ‘सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा’ मैदान में है, न कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए). महागठबंधन जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं लेकिन एनडीए के मुकाबले कांग्रेस समेत विपक्ष ने राज्यवार फुटकर गठबंधन ही बनाए हैं. इन गठबंधनों की चुनावों में जो भी शक्ति और सीमाएं हों, चुनावों के बाद उनकी विश्वसनीयता और स्थायित्व को लेकर अभी से अटकलें लगाई जाने लगी हैं. माना जा रहा है कि जो भी फुटकर गठबंधन हुए हैं, उनका चरित्र विश्वसनीय और स्थायी नहीं है. उनमें शामिल कुछ पार्टियां/नेता भाजपा की बढ़त की स्थिति में एनडीए के साथ जा सकते हैं. करीब 35 पार्टियों का गठबंधन लेकर चलने वाले मोदी विपक्ष की इस सारी कवायद को ‘महामिलावट’ कहते हैं! कांग्रेस अपने से इतर गठबंधनों पर अस्थायित्व की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाती है.           

हालांकि स्थिति इससे अलग भी हो सकती थी. हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा गया था. उन चुनावों में भाजपा को हरा कर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनी थीं. ध्यान दिया जा सकता है कि कांग्रेस की यह जीत किसान आंदोलन के चलते हुई थी. 5 जून 2017 को मध्यप्रदेश के मंदसौर कस्बे में पुलिस की गोली से 6 किसानों की मौत हुई थी. उस घटना से स्वत:स्फूर्त किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ. आंदोलन के संचालन के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति का गठन हुआ. महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में चल रहे किसान आंदोलनों के साथ मंदसौर से उठा आंदोलन दिल्ली तक पहुंच गया. कांग्रेस की उस आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी. लेकिन वह तीन राज्यों में चुनाव जीत गई.

पांच राज्यों में भाजपा की पराजय के बाद स्वाभाविक रूप से यह होना चाहिए था कि किसान आंदोलन की उठान को मज़दूर आंदोलन, छात्र-युवा आंदोलन और छोटे-मझौले व्यापारियों के आंदोलन के साथ जोड़ कर लोकसभा चुनाव तक एक प्रभावी आंदोलन बनाए रखा जाता. मोदी सरकार की किसान-मजदूर-युवा-लघु उद्यमी विरोधी नीतियों का सच लगातार सामने रखा जाता. इसके साथ मोदी सरकार का अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने वाला नोटबंदी का फैसला, अभूतपूर्व महंगाई और बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था की विफलता, चहेते बिजनेस घरानों को धन लुटाना, आर्थिक अपराधियों को देश छोड़ कर भागने में मदद करना, राफेल विमान सौदे में घोटाला करना, सरकारी परिसंपत्तियों-संस्थाओं-संयंत्रो को निजी हाथों में बेचना, संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं का ध्वंस करना जैसे ठोस मुद्दों को चर्चा में बनाये रखा जाता. वैसा होने पर मोदी और भाजपा चाह कर भी भावनात्मक मुद्दों को उस तरह नहीं उछाल पाते जैसा अब कर रहे हैं. लेकिन विपक्ष अपनी पिच तैयार नहीं कर पाया. वह ज्यादातर मोदी की पिच पर ही खेलता रहा. कांग्रेस ने बाकायदा जाति और धर्म की राजनीति करने का फैसला करके आरएसएस/भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को वैधता प्रदान कर दी.     

विपक्ष ने लोकसभा चुनाव को लेकर परिपक्वता का परिचय नहीं दिया है. जबकि मोदी-शाह राज में साम्प्रदायिक फासीवाद चरम पर है; अमित शाह अगले 50 साल तक सत्ता पर काबिज रहने की घोषणा कर चुके हैं; और इस लोकसभा चुनाव के बाद देश में आगे कभी चुनाव नहीं होंगे जैसी धमकी एक भाजपा नेता की तरफ से आ चुकी है. आगे चुनाव नहीं होने की सूरत तभी बन सकती है, जब देश की जनता का चुनावों से विश्वास उठ जाए. आज की आरएसएस/भाजपा यह चाहेगी और उस दिशा में भरपूर प्रयास करेगी. लिहाज़ा, चुनावी प्रक्रिया को पवित्रता और गरिमा प्रदान करना विपक्ष की जिम्मेदारी बनती है. लेकिन कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्ष चुनाव को गंभीरता से लेने के बजाय चुनाव की ही गरिमा गिराने पर लगा है. टिकटों की खरीद-फरोख्त और अपराधियों से लेकर सेलेब्रेटियों तक को चुनाव में उतारने की कवायद चल रही है. जनता की नज़र से यह सब छुपा नहीं है. ज़ाहिर है, विपक्ष को जनता का विश्वास टूटने की कोई चिंता नहीं है.  

थोड़ा बुद्धिजीवियों की भूमिका पर भी विचार करें. ऊपर जिस निबंध का उल्लेख किया गया है वह इन पंक्तियों के साथ समाप्त होता है : ‘देश के सभी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट, जो संविधान के आधारभूत मूल्यों – समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र – और संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को लेकर चिंतित हैं, उन्हें राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और स्वीकृति की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. भारत में अक्सर नेताओं ने बुद्धिजीवियों-कलाकारों को प्रेरणा देने का काम किया है. आज की जरूरत है कि बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक समाज के सचेत नुमाइंदे नेताओं का मार्गदर्शन करें.’ फासीवाद आने की सबसे ज्यादा बात करने के बावजूद बुद्धिजीवी उसके मुकाबले के लिए विपक्षी एकता की दिशा में कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा पाए. वे भाजपेतर सरकार में पद-पुरस्कार तो पाना चाहते हैं, लेकिन समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के हक़ में नेताओं की आलोचना नहीं करना चाहते. धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल साम्प्रदायिकता कहलाती है. ऐसे बुद्धिजीवी भी सामने आए जिन्होंने राहुल गांधी की धर्म और ब्राह्मणत्व की राजनीति को आरएसएस/भाजपा से अलग और अच्छे के लिए बताया. बाकी ज्यादातर बुद्धिजीवियों ने इस विषय पर चुप रहने में भलाई समझी. यह एक उदाहरण है. दरअसल, आरएसएस/भाजपा का हिंदू-राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता के चोर बाज़ार में बनता है!

निष्कर्ष रूप में कहा सकता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में जनता के स्तर पर मोदी सरकार के प्रति पर्याप्त नाराजगी है, लेकिन विपक्ष और बौद्धिक वर्ग ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह पूरी तरह से नहीं किया है. जो भी हो, राजनीति की तरह चुनाव भी संभावनाओं का खेल है. इस चुनाव में यह देखना रोचक होगा कि कारपोरेट-साम्प्रदायिक गठजोड़ की सारी जकड़बंदी और उसमें मीडिया की सहभागिता के बावजूद मतदाता मौजूदा संविधान-विरोधी सरकार को उखाड़ फेंके. यह भी हो सकता है कि सरकार की पराजय का प्रतिफल कांग्रेस को न मिल कर तीसरी शक्ति को मिले. वैसी स्थिति में अगले पांच साल के लिए देश की सत्ता की बागडोर सम्हालने की ऐतिहासिक भूमिका के बारे में तीसरी शक्ति के नेताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए. अगर इस बार यह नहीं होता है तो 2024 के लोकसभा चुनाव में पूरी तयारी के साथ प्रयास करना चाहिए.                

यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद से सीधे टकराने वाली राजनीति का काम बंद हो जाना चाहिए. वह समस्त बाधाओं के बावजूद चलते रहना चाहिए. बल्कि वह चलेगा ही, और एक दिन सफल भी होगा. जैसे स्वाधीनता का संघर्ष उपनिवेशवादियों के समस्त दमन और कुछ देशवासियों की समस्त दगाबाजियों के बावजूद अपरिहार्य रूप से चला और सफल हुआ.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं.)  

हर मुद्दे पर विफल मोदी सरकार से फिर से ठगे जाने को तैयार लोग


चरण सिंह राजपूत

देश कहां जा रहा है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार के पूरी तरह से विफल होने के बावजूद मीडिया से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक फिर से मोदी की सरकार बनाने में लग गया है। देश का एक बड़ा तबका खोखले राष्ट्रवाद के चक्कर में देश को बर्बाद करने पर आमादा है। पांच साल तक सरकार पर चिल्लाने वाले लोग चिकनी चुपड़ी बातों में आकर फिर से ठगे जाने को तैयार बैठे हैं। खोखला राष्ट्रवाद लोगों की मानसिकता पर इतना हावी हो गया है कि देश, संविधान और लोकतंत्र के सामने उसे धर्म का दिखावा ज्यादा बड़ा दिखाई दे रहा है।
जो लोग मोदी को भ्रष्टाचार मिटाने के रूप में देख रहे हैं वे यह बात अच्छी तरह से समझ लें कि मोदी सरकार में हम भ्रष्टाचार के मामले में एशिया में न. 1 हैं। महिला सशक्तिकरण की सबसे ज्यादा बात करने वाले प्रधानमंत्री मोदी राज में महिलाओ के मामले में भारत एशिया नहीं बल्कि विश्व में सबसे असुरक्षित और खतरनाक देश बन चुका है। यह स्थिति तब है जब मोदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के स्लोगन और बेनर से पूरे विश्व में डंका पिटते घूम रहे हैं।
प्रधानमंत्री भले ही पांच साल में पूरा विश्व घूम लिए हों । ब्रांडेड कपड़े पहनते हों। महंगा खाना खाते हों। पूंजीपतियों को अरबों का फायदा करा रहे हों पर देश की एक बड़ी आबादी रात को भूखे पेट सो जाने को मजबूर है। स्थिति यह है कि मोदी सरकार में भूखमरी इंडेक्ष में विश्व में भारत को 119 में से 100 वें नंबर पर पहुंच गया है।
युवाओं को रोजगार न देना पड़े, इसके लिए मोदी सरकार ने युवाओं को जाति और धर्म के आधार पर नफरत के माहौल में झोंक दिया है। देश की युवाओं की बड़ी फ़ौज सड़कों पर भटक रही है। साल में 2 करोड़ युवाओं को रोजगार देने का दावा करने वाले मोदी सरकार में विश्व के सारे देशों को पछाड़ते हुए भारत विश्वका सब से अधिक बेरोजगार वाला देश बन चुका है।
काला धन वापस लाकर गरीबों को 15-15 लाख रुपये देने का वादा करने वाले नरेंद्र मोदी ने किसी के खाते में एक रुपया भी नहीं डाला। साथ ही नोटबन्दी कर लोगों को परेशान कर दिया। जहां तक काले धन की बात है।  एक साल में स्वीस बैंक में बाकी देशों का जहां  3% रू पैसा बढ़ा वहीं भारत का 50% बढ़ा है।
सर्जिकल स्ट्राइक के नाम पर मोदी को भले ही नायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा हो पर मोदी राज में बंटवारे के बाद अब तक के सबसे ज्यादा सीझफायर की उल्लंघन हुआ है। सबसे ज्यादा सेना के जवान शहिद हुए हैं !
निवेश कराने के नाम पर अरबों रुपये जनता के खर्च करने वाले मोदी की सरकार में भारत की मुद्रा विश्व में निचले पायदान पर पहुंच चुका है। बार बार पाकिस्तान पर हमला करने का राग अलाप रहे मोदी राज में आंतरिक सुरक्षा पूरी तरह से चरमरा गई है। पिछले सारे रेकोर्ड तोडते हुए धार्मिक दंगों में तीन साल में 41% की वृद्धि हुई है।
हर तंत्र और विभाग को अपने तरीके से काम करने की छूट की बात करने वाले मोदी की सरकार में सीबीआई, ईडी, चुनाव आयोग, न्याय पालीका जैसी सभी संस्थाओं की स्वतंत्र खत्म कर के मीडिया को अपना चाटुकार बना लिया है। विश्व में प्रेस फ्रीडम इंडेक्ष में 140 देश मे से 138वा स्थान पहुंच गया है।
भले ही सत्तारूढ़ नेता हंसते मुस्कराते नजर आते हों पर खुशहाली के मामले में हम लोग 155 देशों में से 133वें नंबर पर पहुंच चुका है। मानवता के मामले में हम लोग 180 देशों में से 133वे नंबर पर हैं। बार बार मन की बात करने बाले मोदी राज में सामाजिक प्रगति के मामले में भारत 128 देशमें से 93वें नंबर पर पहुंच चुका है । मोदी  जल, जमीन, जंगल और वायु पर काम करने ढोल पीटते थक नहीं रहे हैं। इन सबके बावजूद भारत 180 में से 177वें नम्बर पर पहुंच चुका है।
युवाओं को आगे बढ़ाने के लिए बड़े स्तर पर काम करने का दावा करने वाले मोदी की सरकार में युवा प्रतिभा के मामले में हम 100 देश में से भारत 81वें नंबर पर पहुंच चुके हैं।
महिला उद्यमियों के लिए स्टार्ट अप और मुद्रा लोन जैसे स्लोगन और नारो के बीच 57 देश में से भारत 52 वे नंबर पर आ गया है। सीधे स्वास्थ्य से जुड़े प्रदूषण के मामले में विश्वके 15 सबसे प्रदुषित शहरों में भारत के 14 शहर हैं। यह हाल तब है।  जब मोदी स्वच्छता अभियान पर इतराते नहीं थकते हैं।
लैंगिक असमानता में गत साल से 21 पायदान नीचे खिसकते हुए 144 देशों में से भारत 108 वें नंबर पर आ पहुंचा है।
हेल्थकेर  मामले में भारत श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकीस्तान से भी पीछे है। हेल्थकेर इंडेक्ष में भारत 195 देशॉ में से 154 वें स्थान पर जा पहुंचा है!आर्थिक आज़ादी के मामले में हम श्रीलंका, बांग्लादेश,पाकिस्तान और नेपाल से भी पीछे हैं। 186 देशों में से भारत को 143वां स्थान प्राप्त है।
मानव पूंजी के मामले में स्कील इंडीया के गूंजते नारे और स्लोगन के चलते मोदी ने 130 देशमें से भारत को 103वे नंबर पर लाकर खड़ा कर दिया।
बैंकों का एनपीए 3% से बढाकर 13% पहुंचा दिया है।धन्नाशेठो को ८ लाख करोड का फायदा पहुंचा कर मोदी ने गरीब विरोधी आचरण दिखाया है।
प्रदुषण से मौत के मामले में भारत पहले नंबर पे है ! एक साल में करीब 16 लाख लोग प्रदुषण से मरे हैं।
पेंशन को ऑनलाइन करने का दावा करने वाली मोदी सरकार में सीनियर सिटीज़न के प्रति संवेदनशीलता में भारत 30 देशों में से भारत का नंबर 28वां स्थान है। कार्यभार के मामले में काम के बोज से वेकेशन और छुट्टी के लीये तरस रहे लोगो में भारत का दुनिया में पांचवा स्थान है। यहां मोदीने बजाया वैश्वीक डंका समावेशी विकास के मामले में  सबका साथ, सबका विकास नारा तो बहुत गूंजा पर इन्क्लुसीव डेवलोपमेन्ट में हम 74 विकासशील देशमें से 62 वे नंबर पर है। लोकतंत्र के मामले में  कहने को तो दुनिया की सबसे  लोकशाही देश है पर इसमें  भी भारत 42 वें पायदान पे खडा है । बुद्धिजीवी मामले में एक दौर था जब दुनिया भारतीयो का लोहा मानती थी । आज की तारीख में बुद्धिजीवी सूचकांक में भारत का नंबर 44 वां है। जो थोड़े बहुत बचे हैं। उन्हे भी लेफ्टीस्ट, लिबरल, देशद्रोही जैसे नाम दिये जाते हैं।इसका कारण है कि ये लोग गाय गोबर की राजनिती से सहमत नहीं हैं। बुद्धिजीवी के बीना डंका बजा रहे है मोदी जी !
नवजात की मृत्युदर के मामले मे मोदी जी ने भारत को १२ वें सब से खराब देश की रेंक पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस साल भारत में धन्नाशेठो की संख्या में 20% का भारी उछाल आया जो अमेरिका और चीन के टोटल से भी ज्यादा है। हमारे गरीब देश में दुनिया में तीसरे सबसे ज्यादा पूंजीपति भारत में हैं। और भूखमरी भी सबसे ज्यादा ! समज रहे हो ना कीस का डंका बज रहा है। आरोग्य मामले में दुनिया में सब से ज्यादा टीबी के मरीज़ मोदी सरकार में हुए हैं। मोदी सरकार की जमीनी स्थिति यह है। इन सबके बावजूद सत्तापक्ष विपक्ष पर हावी होता दिखाई दे रहा है। यह सब सत्तापक्ष का मायाजाल और विपक्ष का कमजोर होना है। इन सब बातों पर देश को मंथन की जरूरत है।

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गहरी हुईं संघ मानसिकता की जड़ें, पानी डाल रहे धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार

चरण सिंह राजपूत

राजनीतिक पार्टियों में आरएसएस से निकली भाजपा को छोड़ दें तो लगभग सभी पार्टियां संघ सोच की खिलाफत करती रही हैं। सभी पार्टियां भाजपा पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का आरोप लगाती हैं। इन सबके बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा संघ के एजेंडे पर चलते हुए ही प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई। यही वजह रही कि हर नियम को ताक पर रखकर पांच साल तक संघ के एजेंडे को जमकर बढ़ावा दिया। इसमें दो राय नहीं कि देश भर में मोदी सरकार की जन विरोधी नीतियों का जमकर विरोध हुआ। वह बात दूसरी है कि विपक्ष का विरोध वातानुकूलित कमरों तक ही सीमित रहा।
अब जब 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी दल चुनावी समर में उतर चुके हैं तो मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर फिर से भाजपा की सरकार बनने की बात होने लगी हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस बात को विपक्ष के कई कद्दावर नेता भी मानने लगे हैं। कुछ पुराने नेता सत्ता के लिए संघ सोच के साथ हो लिए हैं तो कुछ ने हथियार डाल दिये हैं और कुछ अपनी हरकतों से सत्तापक्ष को बढ़ावा दे रहे हैं।
मोदी के मुखर विरोधी और गैर संघवाद का नारा देने वाले जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार और बिहार में मुस्लिम मुख्यमंत्री के प्रबल पैरोकार रहे लोजपा अध्यक्ष राम विलास पासवान भाजपा के साथ हैं। अपने को लोहिया का अनुयायी कहने वाले सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव संसद में विपक्ष की हार स्वीकार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की कामना कर चुके हैं। एनसीपी प्रमुख शरद पवार फिर से भाजपा की सरकार बनने की बात कर रहे हैं। हां उनके गणित में  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं रहेंगे। ये वे ही शरद पवार हैं, जिन्होंने राफेल सौदा में घोटाले से इनकार करते हुए मोदी को ईमानदार प्रधानमंत्री कहा था।
> बसपा प्रमुख मायावती किसी भी प्रदेश में कांग्रेस से गठबंधन न करने की बात कर रही हैं। यह स्थिति तब है जब बसपा का देश में एक भी सांसद नहीं है और चुनावी स्तर पर कांग्रेस भाजपा का मुकाबला कर रही है। प. बंगाल में ममता बनर्जी तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल मुस्लिम वोटबैंक के लिए कुछ भी करने को तैयार है। वामपंथी संघर्ष में तो हैं पर चुनाव में नहीं। कांग्रेस चुनाव में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तक सिमट कर रह जा रही है। बिहार में राजद नेता तेजस्वी यादव का अपना अलग ही एजेंडा है। कहां है महागठबंधन ? कहां है तीसरा मोर्चा? कहां है विपक्ष?
मोदी सरकार पर न केवल लोकतंत्र और संविधान बल्कि देश की संस्कृति ध्वस्त करने के आरोप लग रहे हैं। वह बात दूसरी है कि इन आरोपों को विपक्ष प्रभावी नहीं बना पा रहा है। यदि कुछ बुद्धिजीवी और कुछ न्यूज पोर्टलों के अलावा कुछ सामाजिक संगठनों को छोड़ दें तो मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों की खुलकर आलोचना करने से बचा जा रहा है। मतलब विपक्ष में बैठे अधिकतर नेता अपना गला बचा रहे हैं। यही हाल मीडिया और ऐशोआराम के आदी हुए बुद्धिजीवियों का भी यही हाल है। विपक्ष एनडीए से कैसे टक्कर ले रहा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है पर अभी तक विपक्ष सीटें ही नहीं बांट पाया है। यदि कांग्रेस की बात छोड़ दें तो विपक्ष की किसी भी पार्टी की अभी कोई रैली नहीं हुई है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी लगातार रैलियां कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा दोनों पार्टियों का संगठन भी कहीं नहीं दिखाई दे रहा है।
पुलवामा आतंकी हमले के बाद सेना की एयर सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भाजपा के राष्ट्रवाद के सामने विपक्ष की कमजोर रणनीति ने लोगों को कंफ्यूज कर दिया है, जिसका फायदा भाजपा लगातार उठा रही है। इन परिस्थितियों में मोदी सरकार से खुलकर मोर्चा लेने वाले लोग और संगठन अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
विश्व में अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि और संस्कृति की धाक जमाने वाले देश में जाति और धर्म के नाम पर देश और समाज को तोड़ने वाली संघ मानसिकता ने जड़ें जमा ली हैं। चिंता की बात यह है कि जिन लोगों से बदलाव की उम्मीद की जा रही है। वे इन जड़ों में पानी डाल रहे हैं। जो युवा बदलाव में अहम भूमिका निभाता रहा है, उसे जाति धर्म के नाम पर भटका दिया गया है। खोखले राष्ट्रवाद ने देशभक्ति की परिभाषा बदल कर रख दी है। देश और समाज के लिए समर्पित किसान और जवान का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। किसान को बदहाल जिंदगी जीने और जवान को मरने के लिए तैयार होना बताया जा रहा है। देश और समाज के प्रति समर्पित लोग देशद्रोही तो देश और समाज को ठगने वाले लोग देशभक्त बन जा रहे हैं।
> संघ मानसिकता ने गरीब मजदूर को कामचोर शराबी और गैरजिम्मेदार के रूप में प्रचलित कर दिया है तो लड़ने वाले को नक्सली और देशद्रोही। भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली मानसिकता से भ्रष्टाचार को मिटाने की बात की जा रही है। गरीबी और अमीरी की दूरी बढ़ाने वाली सरकार को गरीबी मिटाने वाली समझ लिया जा रहा है और लोग चुप हैं।
बेरोजगारी, भुखमरी, किसान मजदूर उत्पीड़न के साथ ही जाति और धर्म के नाम पर नफरत फैलाने का रिकार्ड तोड़ने वाली मोदी सरकार की नीतियों को देश का बड़ा तबका देश का उद्धार करने के रूप में ले रहा है। धर्मनिरपेक्ष ढांचे को तहस नहस किया जा रहा है और धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार संघ मानसिकता के सामने नतमस्तक हैं। कौन बचाएगा देश के संविधान और लोकतंत्र को ?
जब इस निकम्मे विपक्ष की लिखने और बोलने में आलोचना की जाती है तो काफी लोग यह कहते सुने जाते हैं कि इससे सत्तापक्ष को बढ़ावा मिलेगा। जब खुद विपक्ष ही सत्तापक्ष को बढ़ावा दे रहा हो तो कोई क्या कर सकता है। बात सत्ता पक्ष और विपक्ष की नहीं है। बात देश और समाज की है। आजादी की लड़ाई का जज्बा रखने वाले लोगों के मोर्चा संभालने पर ही देश के भले की उम्मीद की जा सकती है। लगता नहीं कि इतने नाजुक मोड़ पर देश कभी खड़ा रहा होगा। जनता फिर से ठगी जाने को तैयार बैठी है और और जो लोग बदलाव का ठेका लिए घूम रहे हैं वे बेबस नजर आ रहे हैं।
राजनीति को व्यापार बनाने वाले नेताओं ने कार्यकर्ता तो खत्म कर ही दिए साथ ही लोगों के अंदर से लड़ने का माद्दा भी नहीं छोड़ा है। जो लोग विषम परिस्थितियों में भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ रहे हैं, उन्हें समाज से काटने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। कैसे होगा बदलाव ? कैसे बनेगा समाज में भाईचारा ? पूंजीपतियों को देश की संपदा और संसाधन लुटवा रहे इन राजा महाराजा की जिंदगी जी रहे नेताओं से लोकतंत्र की उम्मीद करना बेमानी हैं।

संघ परिवार की रहस्यात्मक संरचना का पर्दाफाश!

अरुण माहेश्वरी।

जर्मनी के हैम्बर्ग में और लंदन के स्कूल आफ इकोनोमिक्स में राहुल गांधी के भाषणों ने भाजपाई हलके में कुछ ऐसी हड़कंप पैदा कर दी है जिसे राजनीति के साधारण मानदंडों से समझना कठिन है। वैसे ही एक अर्से से राहुल ने आत्ममुग्ध मोदी की नींद उड़ा रखी है। हाल में लोकसभा के मानसून अधिवेशन में राहुल की बार-बार की चुनौती के बावजूद मोदी उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे क्योंकि राफेल सौदे में हजारों करोड़ की दलाली का उनके पास इसके अलावा कोई जवाब नहीं था कि वे भारत के प्रधानमंत्री हैं, उन्हें इतना तो हक बनता ही है कि अपने संकट में पड़े एक मित्र को चालीस हजार करोड़ का लाभ दिला दें!

बहरहाल, जर्मनी और लंदन में राहुल के भाषण से तो लगता है कि मोदी कंपनी को और भी नागवार गुजर रहे हैं। मोदी में इतनी भी सलाहियत नहीं है कि वे देश के अंदर या बाहर, कहीं भी कायदे का एक संवाददाता सम्मेलन कर लें और कहने के लिए वे ‘विद्वान’ बनते हैं! इसके अतिरिक्त किसी भी जगह बुद्धिजीवियों से खुला संवाद तो उनके संघी प्रशिक्षण में एक असंभव चीज है। उनका प्रशिक्षण सिर्फ आम लोगों के बीच झूठी बातों को रटने, सांप्रदायिक बटवारे के लिए हुआ है,  जो वे बखूबी करते हैं। भेड़-बकरियों की तरह जुटा कर लाए गए लोगों से जयकारा लगवाते हैं!

लेकिन राहुल ने पूरी जिम्मेदारी के साथ राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मसलों पर इन दोनों जगहों पर जिस गंभीरता से भारत की राजनीति को आज के विश्व पटल पर समझने की कोशिश की, उसने उनमें एक बड़े राजनेता के उभरने के साफ संकेत दिए हैं।

सर्वप्रथम तो भाजपाई संबित पात्रा टाइप मोदी काल के कुकुरमुत्ता प्रवक्ताओं को राहुल का विदेश में मुंह खोलना ही मोदी के विशेषाधिकार के हनन की तरह लगा था। इसके अलावा वे और दो बातों पर बेजा ही उखड़ गए थे। इनमें पहली बात थी भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी की। राहुल ने इसकी विदेश में चर्चा क्यों कर दी ! कौन नहीं जानता कि बेरोजगारी कितने प्रकार की सामाजिक समस्याओं का कारण बनती है। इनमें आज की दुनिया की एक सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद भी है। सभी आतंकवादी संगठन बेरोजगार युवकों को ही आम तौर पर अपनी गतिविधियों के मोहरों के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

राहुल ने विदेश में भारत में बेरोजगारी की समस्या को उठा कर लगता है मोदी कंपनी की इस सबसे अधिक दुखती हुई रग पर हाथ रख दिया था। उस पर राहुल ने मोदी के नोटबंदी के पागलपन और जीएसटी की बदइंतजामी का जिक्र करके तो जैसे उनके जख्मों पर नमक छिड़कने के काम कर दिया। राहुल ने कहा कि मोदी ने आर्थिक विकास की दिशा में सकारात्मक तो एक भी कदम नहीं उठाया, लेकिन इन दो नकारात्मक कदमों से पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। और इसके साथ ही यह बिल्कुल सही कहा कि यही परिस्थिति तत्ववादी ताकतों के लिए जमीन तैयार करती है।

राजनीतिक-प्रशासनिक अराजकता से कैसे आतंकवादी ताकतें लाभ उठाती हैं,  इसी संदर्भ में राहुल ने अमेरिका की इराक नीति का भी जिक्र किया और कहा कि वहां सद्दाम हुसैन के शासन को खत्म करने में ज्यादा समय नहीं लगा था, लेकिन बाद में नई प्रशासनिक व्यवस्था में जिन लोगों को भी वंचित किया गया, उनसे ही आगे चल कर इराक से लेकर सीरिया तक में आइसिस की तरह के संगठन को अपनी जमीन तैयार करने की रसद मिली।

राहुल का बेरोजगारी और तत्ववाद, इन दो विषयों पर बात करना संघी तत्वों के लिए निषिद्ध विषयों पर बात करने के अपराध के समान था। इसीलिए राहुल के हैम्बर्ग के भाषण से ही उनके प्रवक्ता और चैनलों में बैठे मूर्ख ऐंकर और लगभग उसी स्तर के दूसरे भागीदारों ने चीखना चिल्लाना शुरू कर दिया। चैनलों पर राहुल को बचकाना कहने की एक होड़ शुरू हो गई। जो खुद पशुओं की तरह अपनी नाक के आगे नहीं देख पाते हैं, सोचते हैं ओसामा बिन लादेन आया और अल कायदा या आइसिस बन गया,  उनके लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद और सामाजिक विषमताओं को दुनिया में आतंकवाद के उत्स के रूप में देखने की बात एक भारी रहस्य की तरह थी। और जो उन्हें समझ में न आए, उनकी नजर में वही बचकाना होता है। लेकिन सच यही है कि इन चैनलों की बहसें पशुओं के बाड़ों के निरर्थक शोर से अधिक कोई मायने नहीं रखती हैं।

इसके बाद लंदन में राहुल ने और एक सबसे महत्वपूर्ण बात कह दी कि भारत में आरएसएस मिस्र के ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ का ही हिंदू प्रतिरूप है। आरएसएस की तुलना हम हिटलर की नाजी पार्टी से लेकर अफगानिस्तान के तालिबान तक से हमेशा करते रहे हैं, लेकिन इस संदर्भ में ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’  का जिक्र करके राहुल ने आज के संदर्भ में आरएसएस के और भी सटीक समानार्थी संगठन की शिनाख्त की है।

यह ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ क्या है?  इसकी ओर सारी दुनिया का ध्यान 2012 में खास तौर पर गया था जब 2011 की जनवरी में अरब बसंत क्रांति के बाद इसके राजनीतिक संगठन ने मिस्र का चुनाव जीत लिया था। लेकिन बहुत जल्द ही मिस्र में उसकी आतंकवादी गतिविधियां दुनिया के सामने आने लगीं और 2015 में ही उसकी सरकार को खत्म करके उसके सारे नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया और दुनिया के बहुत सारे देश उसे एक आतंकवादी संगठन मानते हैं।

‘सोसाइटी आफ द मुस्लिम ब्रदर्स’ (अल-लखवॉन अल-मुसलिमुन) के नाम से सन् 1928 में मिस्र में एक अखिल इस्लामिक संगठन के रूप में इसका निर्माण हुआ था । यह अस्पतालों और नाना प्रकार के धर्मादा कामों के जरिये पूरे इस्लामिक जगत में अपनी जड़े फैला रहा था। कुरान और सुन्ना के आदर्शों पर यह पूरे समाज, परिवार और व्यक्ति को ढालने के प्रचारमूलक काम में मुख्यतः लगा रहता था और पूरी अरब दुनिया में इसके अनेक समर्थक हो गए थे । धर्मादा कामों के जरिये अपने राजनीतिक उद्देश्यों को साधना ही इसका प्रमुख चरित्र रहा है और इसे एक समय में सऊदी अरब सहित कई इस्लामिक देशों का समर्थन मिला हुआ था। लेकिन आज सऊदी अरब में भी यह एक प्रतिबंधित संगठन है।

कहना न होगा,  तथाकथित सेवामूलक कामों के जरिये राजनीतिक उद्देश्यों को साधने वाला इस्लामिक दुनिया का यह एक ऐसा कट्टरपंथी और तत्ववादी संगठन है जिसकी भारत में सबसे उपयुक्त मिसाल हिंदू तत्ववादी आरएसएस ही हो सकती है। इसीलिये राहुल ने आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से करके बिल्कुल सही जगह पर उंगली रखी है।

जर्मनी और ब्रिटेन में राहुल के भाषणों पर भाजपाई प्रवक्ताओं के उन्माद के रूप को देख कर हम यह सोचने के लिए मजबूर हो रहे हैं कि आखिर उसमें ऐसा क्या था जिसने इन सबको इस प्रकार से आपे के बाहर कर दिया है ? सचमुच, राहुल के इस राजनीतिक विश्लेषण को हमें फ्रायडीय सिद्धांतों पर समझने की जरूरत महसूस होने लगी है जिसमें किसी भी स्वप्न का विश्लेषण (आरएसएस के मामले में उसके रहस्यमय रूप का विश्लेषण) उस स्वप्न के पीछे छिपे हुए मूल विचार के रहस्य के बजाय उसकी संरचना के पूरे स्वरूप के ही रहस्य को उजागर करके किया जाता है । लगता है, राहुल ने कुछ इसी प्रकार से, संघ संसार की पूरी स्वप्निल संरचना की रहस्यात्मकता को उन्मोचित करने का काम किया है और इसीलिए चैनलों में उनके भाषणों को लेकर इतनी भारी चीख-चिल्लाहट मची हुई है।

राहुल ने लंदन में अपने भाषण में 1984 के सिख-विरोधी दंगों और डोकलाम प्रसंग पर भी कुछ इतनी महत्वपूर्ण बातें कही है जिनसे भाजपाई और भी तिलमिला गए हैं । उन्होंने साफ कहा है कि कांग्रेस कोई कॉडर आधारित पार्टी नहीं है। उसने 1984 के दंगों में कोई बाकायदा हिस्सा नहीं लिया था। दंगों के एफआईआर में जिन लोगों के नाम हैं उनमें भाजपा के लोग भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। और, हाल के डोकलाम की सीमा पर हुए नाटक के बारे में भी उनकी टिप्पणी उतनी ही तीखी थी जिसमें उन्होंने कहा कि बिना किसी तैयारी और तयशुदा एजेंडा के राजनयिक वार्ताओं के नाटक किसी से करवाना हो तो उसमें नरेंद्र मोदी आपको सबसे आगे मिलेंगे । जब उन्होंने चीन के राष्ट्रपति के साथ झूला झूला उसके चंद रोज बाद ही डोकलाम में चीनी सेना पहुंच गई।

अराजक होती आजादी

या तो सरकार के मंत्री नाकारा हैं या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद सभी मंत्रालयों पर कुंडली मारकर बैठे रहना चाहते हैं। जिधर देखो, उधर मोदी। जिधर न देखो उधर भी मोदी। इस लफड़े में जो भी पड़ा, इससे जो भी लड़ा, सत्ता का तूफान उसे ले उड़ा। इसलिए-लड़ो मत पर दिखार्इ देते हुए सच को देखते वक़्त आंखों पर पट्टी तो न बांधो। लड़ना ही चाहते हो तो अपनी मानसिक गुलामी से लड़ो।

श्रीकांत सिंह।

देश को आजादी मिलने के 71 साल बाद भी आजादी की तलाश जारी है। कभी मीडिया को आजादी की जरूरत पड़ जाती है तो कभी हमारी अदालतें ही आजादी मांगने लग जाती हैं। कभी नेता अपनी पार्टी से आजादी मांग बैठता है तो कभी कर्मचारी अपनी पुरानी नौकरी से आजाद होने के सुख का अनुभव करने लगता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम खुद की चुनी सरकार से ही आजादी चाहने लगते हैं। कारण। सरकार हमारी इच्छा की कम, अपनी महत्वाकांक्षा की अधिक परवाह करने लगती है। वह जनहित की बातें भूलकर वोट का गणित लगाने लगती है। दरअसल, यह सब अवसर और अवसरवाद का खेल है। अवसरों के इसी मेले में हमारी निष्ठा भटकने लगी है। तभी तो हम उम्मीद निष्ठा की करते हैं और मिलती है खुदगर्जी। हम अपने आस पास की घटनाओं पर गौर करें तो यही पाएंगे कि हमारी आजादी अराजक हो उठी है।

हाल ही में पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी ने एक सवाल उठाया जिसने रिकॉर्ड लोकप्रियता हासिल की। उनके उसी सवाल को द वायर से साभार लेकर यथावत पेश किया जा रहा है। सवाल है-क्या ये संभव है कि आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम न लें। आप चाहे तो उनके मंत्रियों का नाम ले लीजिए। सरकार की नीतियों में जो भी गड़बड़ी दिखाना चाहते हैं, दिखा सकते है। मंत्रालय के हिसाब से मंत्री का नाम लीजिए, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज़िक्र कहीं न कीजिए।

लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद ही हर योजना का ऐलान करते हैं। हर मंत्रालय के कामकाज से ख़ुद को जोड़े हुए हैं और उनके मंत्री भी जब उनका ही नाम लेकर योजना या सरकारी नीतियों का ज़िक्र कर रहे हैं तो आप कैसे मोदी का नाम ही नहीं लेंगे।

अरे छोड़ दीजिए… कुछ दिनों तक देखते हैं क्या होता है। वैसे आप कर ठीक रहे हैं… पर अभी छोड़ दीजिए।

भारत के आनंद बाज़ार पत्रिका समूह के राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके साथ ये संवाद 14 जुलाई 2018 को हुआ।

यूं तो इस निर्देश को देने से पहले ख़ासी लंबी बातचीत खबरों को दिखाने,  उसके असर और चैनल को लेकर बदलती धारणाओं के साथ हो रहे लाभ पर भी हुई।

एडिटर-इन-चीफ ने माना कि ‘मास्टरस्ट्रोक’ प्रोग्राम ने चैनल की साख़ बढ़ा दी है। ख़ुद उनके शब्दों में कहें तो, ‘मास्टरस्ट्रोक में जिस तरह की रिसर्च होती है… जिस तरह खबरों को लेकर ग्राउंड ज़ीरो से रिपोर्टिंग होती है, रिपोर्ट के ज़रिये सरकार की नीतियों का पूरा खाका रखा जाता है, ग्राफिक्स और स्किप्ट जिस तरह लिखी जाती है,  वह चैनल के इतिहास में पहली बार उन्होंने भी देखा।’

तो चैनल के बदलते स्वरूप या खबरों को परोसने के अंदाज़ ने प्रोपराइटर व एडिटर-इन-चीफ को उत्साहित तो किया पर खबरों को दिखाने-बताने के अंदाज़ की तारीफ़ करते हुए भी लगातार वह ये कह भी रहे थे और बता भी रहे थे कि क्या सब कुछ चलता रहे और प्रधानमंत्री मोदी का नाम न हो तो कैसा रहेगा?

ख़ैर, एक लंबी चर्चा के बाद सामने निर्देश यही आया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम अब चैनल की स्क्रीन पर लेना ही नहीं है।

तमाम राजनीतिक ख़बरों के बीच या कहें सरकार की हर योजना के मद्देनज़र ये बेहद मुश्किल काम था कि भारत की बेरोज़गारी का ज़िक्र करते हुए कोई रिपोर्ट तैयार की जा रही हो और उसमें सरकार के रोज़गार पैदा करने के दावे जो कौशल विकास योजना या मुद्रा योजना से जुड़ी हो,  उन योजनाओं की ज़मीनी हक़ीक़त को बताने के बावजूद ये न लिख पाएं कि प्रधानमंत्री मोदी ने योजनाओं की सफलता को लेकर जो दावा किया वह है क्या?

यानी एक तरफ़ प्रधानमंत्री कहते हैं कि कौशल विकास योजना के ज़रिये जो स्किल डेवलपमेंट शुरू किया गया उसमें 2022 तक का टारगेट तो 40 करोड़ युवाओं को ट्रेनिंग देने का रखा गया है। पर 2018 में इनकी तादाद दो करोड़ भी छू नहीं पार्इ है।

और ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि जितनी जगहों पर कौशल विकास योजना के तहत केंद्र खोले गए उनमें से हर दस केंद्र में से 8 केंद्र पर कुछ नहीं होता। तो ग्राउंड रिपोर्ट दिखाते हुए क्यों प्रधानमंत्री का नाम आना ही नहीं चाहिए?

तो सवाल था मास्टरस्ट्रोक की पूरी टीम की कलम पर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शब्द ग़ायब हो जाना चाहिए पर अगला सवाल तो ये भी था कि मामला किसी अख़बार का नहीं बल्कि न्यूज़ चैनल का था।

यानी स्क्रिप्ट लिखते वक़्त कलम चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न लिखे लेकिन जब सरकार का मतलब ही बीते चार बरस में सिर्फ़ नरेंद्र मोदी है तो फिर सरकार का ज़िक्र करते हुए एडिटिंग मशीन ही नहीं बल्कि लाइब्रेरी में भी सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी के ही वीडियो होंगे।

और 26 मई 2014 से लेकर 26 जुलाई 2018 तक किसी भी एडिटिंग मशीन पर मोदी सरकार ही नहीं बल्कि मोदी सरकार की किसी भी योजना को लिखते ही जो वीडियो या तस्वीरों का कच्चा-चिट्ठा उभरता उसमें 80 फीसदी प्रधानमंत्री मोदी ही थे।

यानी किसी भी एडिटर के सामने जो तस्वीर स्क्रिप्ट के अनुरूप लगाने की ज़रूरत होती उसमें बिना मोदी के कोई वीडियो या कोई तस्वीर उभरती ही नहीं।

और हर मिनट जब काम एडिटर कर रहा है तो उसके सामने स्क्रिप्ट में लिखे, मौजूदा सरकार शब्द आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तस्वीर उभरती और आन एयर ‘मास्टरस्ट्रोक’ में चाहे कहीं भी प्रधानमंत्री मोदी शब्द बोला-सुना न जा रहा हो पर स्क्रीन पर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर आ ही जाती।

तो ‘मास्टरस्ट्रोक’ में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर भी नहीं जानी चाहिए उसका फ़रमान भी 100 घंटे बीतने से पहले आ जाएगा ये सोचा तो नहीं गया पर सामने आ ही गया। और इस बार एडिटर-इन-चीफ के साथ जो चर्चा शुरू हुई वह इस बात से हुई कि क्या वाकई सरकार का मतलब प्रधानमंत्री मोदी ही है।

यानी हम कैसे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर दिखाए बिना कोई भी रिपोर्ट दिखा सकते है। उस पर हमारा सवाल था कि मोदी सरकार ने चार बरस के कार्यकाल के दौरान 106 योजनाओं का ऐलान किया है। संयोग से हर योजना का ऐलान ख़ुद प्रधानमंत्री ने ही किया है।

हर योजना के प्रचार-प्रसार की ज़िम्मेदारी चाहे अलग-अलग मंत्रालय पर हो। अलग-अलग मंत्री पर हो। लेकिन जब हर योजना के प्रचार-प्रसार में हर तरफ़ से ज़िक्र प्रधानमंत्री मोदी का ही हो रहा है तो योजना की सफलता-असफलता पर ग्राउंड रिपोर्ट में भी ज़िक्र प्रधानमंत्री का चाहे रिपोर्टर-एंकर ना लें लेकिन योजना से प्रभावित लोगों की ज़ुबां पर नाम तो प्रधानमंत्री मोदी का ही होगा और लगातार है भी।

चाहे किसान हो या गर्भवती महिला, बेरोज़गार हो या व्यापारी। जब उनसे फसल बीमा पर पूछे या मातृत्व वंदना योजना या जीएसटी पर पूछे या मुद्रा योजना पर पूछे या तो योजनाओं के दायरे में आने वाला हर कोई प्रधानमंत्री मोदी का नाम ज़रूर लेता। कोई लाभ नहीं मिल रहा है ये कहता तो उनकी बातों को कैसे एडिट किया जाए।

तो जवाब यही मिला कि कुछ भी हो पर ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर-वीडियो भी मास्टरस्ट्रोक में दिखायी नहीं देने चाहिए।’

वैसे ये सवाल अब भी अनसुलझा सा था कि आख़िर प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर या उनका नाम भी जुबां पर ना आए तो उससे होगा क्या? क्योंकि जब 2014 में सत्ता में आई बीजेपी के लिए सरकार का मतलब नरेंद्र मोदी है। बीजेपी के स्टार प्रचारक के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ही हैं।

संघ के चेहरे के तौर पर भी प्रचारक रहे नरेंद्र मोदी हैं। दुनिया भर में भारत की विदेश नीति के ब्रांड अंबेसडर नरेंद्र मोदी हैं। देश की हर नीति के केंद्र में नरेंद्र मोदी हैं तो फिर दर्जन भर हिंदी राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की भीड़ में पांचवें-छठे नंबर के ऱाष्ट्रीय न्यूज़ चैनल एबीपी के प्राइम टाइम में सिर्फ घंटेभर के कार्यक्रम ‘मास्टरस्ट्रोक’ को लेकर सरकार के भीतर इतने सवाल क्यों हैं?

या कहें वह कौन सी मुश्किल है जिसे लेकर एबीपी न्यूज़ चैनल के मालिकों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह प्रधानमंत्री मोदी का नाम न लें या फिर तस्वीर भी न दिखाए।

दरअसल, मोदी सरकार में चार बरस तक जिस तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी को ही केंद्र में रखा गया और भारत जैसे देश में टीवी न्यूज़ चैनलों ने जिस तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनको ही दिखाया और धीरे-धीरे प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर, उनका वीडियो, उनका भाषण किसी नशे की तरह न्यूज़ चैनलों को देखने वाले के भीतर समाता गया।

उसका असर ये हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी ही चैनलों की टीआरपी की ज़रूरत बन गए और प्रधानमंत्री के चेहरे का साथ सब कुछ अच्छा है या कहें अच्छे दिन की ही दिशा में देश बढ़ रहा है, ये बताया जाने लगा तो चैनलों के लिए भी यह नशा बन गया और ये नशा न उतरे इसके लिए बाकायदा मोदी सरकार के सूचना मंत्रालय ने 200 लोगों की एक मॉनिटरिंग टीम को लगा दिया गया।

बाकायदा पूरा काम सूचना मंत्रालय के एडिशनल डायरेक्टर जनरल के मातहत होने लगा। जो सीधी रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री को देते और जो 200 लोग देश के तमाम राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की मॉनिटरिंग करते हैं वह तीन स्तर पर होता।

150 लोगों की टीम सिर्फ़ मॉनिटरिंग करती है, 25 मॉनिटरिंग की गई रिपोर्ट को सरकार के अनुकूल एक शक्ल देती है और बाकी 25 फाइनल मॉनिटरिंग के कंटेंट की समीक्षा करते हैं।

उनकी इस रिपोर्ट पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तीन डिप्टी सचिव स्तर के अधिकारी रिपोर्ट तैयार करते और फाइनल रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री के पास भेजी जाती, जिनके ज़रिये पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी सक्रिय होते और न्यूज़ चैनलों के संपादकों को दिशा निर्देश देते रहते कि क्या करना है, कैसे करना है।

और कोई संपादक जब सिर्फ़ ख़बरों के लिहाज़ से चैनल को चलाने की बात कहता तो चैनल के प्रोपराइटर से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय या पीएमओ के अधिकारी संवाद कायम करते बनाते।

दवाब बनाने के लिए मॉनिटरिंग की रिपोर्ट को नत्थी कर फाइल भेजते और फाइल में इसका ज़िक्र होता कि आख़िर कैसे प्रधानमंत्री मोदी की 2014 में किए गए चुनावी वादे से लेकर नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक या जीएसटी को लागू करते वक़्त दावों भरे बयानों को दोबारा दिखाया जा सकता है।

या फिर कैसे मौजूदा दौर की किसी योजना पर होने वाली रिपोर्ट में प्रधानमंत्री के पुराने दावे का ज़िक्र किया जा सकता है।

दरअसल, मोदी सत्ता की सफलता का नज़रिया ही हर तरीके से रखा जाता रहा है। इसके लिए ख़ासतौर से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से लेकर पीएमओ के दर्जन भर अधिकारी पहले स्तर पर काम करते हैं।

दूसरे स्तर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्री का सुझाव होता है, जो एक तरह का निर्देश होता है और तीसरे स्तर पर बीजेपी का लहज़ा, जो कई स्तर पर काम करता है। मसलन अगर कोई चैनल सिर्फ़ मोदी सत्ता की सकारात्मकता को नहीं दिखाता है या कभी-कभी नकात्मक ख़बर करता है या फिर तथ्यों के सहारे मोदी सरकार के सच को झूठ क़रार देता है तो फिर बीजेपी के प्रवक्ताओं को चैनल में भेजने पर पाबंदी लग जाती है।

यानी न्यूज़ चैनल पर होने वाली राजनीतिक चर्चा में बीजेपी के प्रवक्ता नहीं आते हैं। एबीपी पर ये शुरुआत जून के आख़री हफ्ते से ही शुरू हो गई। यानी बीजेपी प्रवक्ताओं ने चर्चा में आना बंद कर दिया।

दो दिन बाद से बीजेपी नेताओं ने चैनल को बाईट देना बंद कर दिया और जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी के मन का बात का सच मास्टरस्ट्रोक में दिखाया गया उसके बाद से बीजेपी के साथ-साथ आरएसएस से जुड़े उनके विचारकों को भी एबीपी न्यूज़ चैनल पर आने से रोक दिया गया।

तो मन की बात के सच और उसके बाद के घटनाक्रम को समझ उससे पहले ये भी जान लें कि मोदी सत्ता पर कैसे बीजेपी का पैरेंट संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी निर्भर हो चला है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण 9 जुलाई 2018 को तब नज़र आया जब शाम चार बजे की चर्चा के एक कार्यक्रम के बीच में ही संघ के विचारक के तौर पर बैठे एक प्रोफेसर का मोबाइल बजा और उधर से कहा गया कि वह तुरंत स्टुडियो से बाहर निकल आएं और वह शख़्स आन एयर कार्यक्रम के बीच ही उठ कर चल पड़ा।

फोन आने के बाद उसके चेहरे का हावभाव ऐसा था मानो उसके कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है या कहें बेहद डरे हुए शख़्स का जो चेहरा हो सकता है वह उस वक़्त में नज़र आ गया।

पर बात इससे भी बनी नहीं क्योंकि इससे पहले जो लगातार ख़बरें चैनल पर दिखायी जा रही थीं उसका असर देखने वालों पर क्या हो रहा है और बीजेपी के प्रवक्ता चाहे चैनल पर न आ रहे हों पर ख़बरों को लेकर चैनल की टीआरपी बढ़ने लगी और इस दौर में टीआरपी की जो रिपोर्ट 5 और 12 जुलाई को आई उसमें एबीपी न्यूज़ देश के दूसरे नंबर का चैनल बन गया।

और ख़ास बात तो ये भी है कि इस दौर में ‘मास्टरस्ट्रोक’ में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट झारखंड के गोड्डा में लगने वाले थर्मल पावर प्रोजेक्ट पर की गई। चूंकि ये थर्मल पावर तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखकर ही नहीं बन रहा है बल्कि ये अडानी ग्रुप का है और पहली बार उन किसानों का दर्द इस रिपोर्ट के ज़रिये उभरा कि अडानी कैसे प्रधानमंत्री मोदी के क़रीब है तो झारखंड सरकार ने नियम बदल दिए और किसानों को धमकी दी जाने लगी कि अगर उन्होंने अपनी ज़मीन थर्मल पावर के लिए नहीं दी तो उनकी हत्या कर दी जाएगी।

एक किसान ने बाकायदा कैमरे पर कहा, ‘अडानी ग्रुप के अधिकारी ने धमकी दी है ज़मीन नहीं दोगे तो ज़मीन में गाड़ देंगे। पुलिस को शिकायत किए तो पुलिस बोली बेकार है शिकायत करना। ये बड़े लोग हैं। प्रधानमंत्री के क़रीबी हैं।’

इस दिन के कार्यक्रम की टीआरपी बाकी के औसत मास्टरस्ट्रोक से पांच पॉइंट ज़्यादा थी। यानी एबीपी के प्राइम टाइम (रात 9-10 बजे) में चलने वाले मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी जो 12 थी उस अडानी वाले कार्यक्रम वाले दिन 17 हो गई।

यानी तीन अगस्त को जब संसद में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने मीडिया पर बंदिश और एबीपी न्यूज़ को धमकाने और पत्रकारों को नौकरी से निकलवाने का ज़िक्र किया तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने कह दिया, ‘चैनल की टीआरपी ही मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम से नहीं आ रही थी और उसे कोई देखना ही नहीं चाहता था तो चैनल ने उसे बंद कर दिया।’

तो असल हालात यहीं से निकलते हैं क्योंकि एबीपी की टीआरपी अगर बढ़ रही थी, उसका कार्यक्रम मास्टरस्ट्रोक लोकप्रिय भी हो रहा था और पहले की तुलना में टीआरपी भी अच्छी-ख़ासी शुरुआती चार महीनों में ही देने लगा था (मास्टरस्ट्रोक से पहले ‘जन गण मन’ कार्यक्रम चला करता था जिसकी औसत टीआरपी 7 थी, मास्ट्रस्ट्रोक की औसत टीआरपी 12 हो गई)।

यानी मास्टर स्ट्रोक की ख़बरों का मिज़ाज़ मोदी सरकार की उन योजनाओं या कहें दावों को ही परखने वाला था जो देश के अलग-अलग क्षेत्रों से निकल कर रिपोर्टरों के ज़रिये आती थी और लगातार मास्टरस्ट्रोक के ज़रिये ये भी साफ़ हो रहा था कि सरकार के दावों के भीतर कितना खोखलापन है और इसके लिए बाकायदा सरकारी आंकड़ों के अंतर्विरोध को ही आधार बनाया जाता था।

तो सरकार के सामने ये संकट भी उभरा कि जब उनके दावों को परखते हुए उनके ख़िलाफ़ हो रही रिपोर्ट को भी जनता पसंद करने लगी है और चैनल की टीआरपी भी बढ़ रही है तो फिर आने वाले वक़्त में दूसरे चैनल क्या करेंगे?

क्योंकि भारत में न्यूज़ चैनलों के बिज़नेस का सबसे बड़ा आधार विज्ञापन है और विज्ञापन को मापने के लिए संस्था बार्क की टीआरपी रिपोर्ट है और अगर टीआरपी ये दिखलाने लगे कि मोदी सरकार की सफलता को ख़ारिज करती रिपोर्ट जनता पसंद कर रही है तो फिर वह न्यूज़ चैनल जो मोदी सरकार के गुणगान में खोये हुए हैं उनके सामने साख़ और बिज़नेस यानी विज्ञापन दोनों का संकट होगा।

तो बेहद समझदारी के साथ चैनल पर दबाव बढ़ाने के लिए दो कदम सत्ताधारी बीजेपी के तरफ़ से उठे। पहला देशभर में एबीपी न्यूज़ का बायकट हुआ और दूसरा एबीपी का जो भी सालाना कार्यक्रम होता है जिससे चैनल की साख़ भी बढ़ती है और विज्ञापन के ज़रिये कमाई भी होती है, मसलन एबीपी न्यूज़ चैनल के शिखर सम्मेलन कार्यक्रम में सत्ता विपक्ष के नेता-मंत्री पहुंचते और जनता के सवालों का जवाब देते तो उस कार्यक्रम से बीजेपी और मोदी सरकार दोनों ने हाथ पीछे कर लिए। यानी कार्यक्रम में कोई मंत्री नहीं जाएगा।

ज़ाहिर है जब सत्ता ही नहीं होगी तो सिर्फ़ विपक्ष के आसरे कोई कार्यक्रम कैसे हो सकता है। यानी हर न्यूज़ चैनल को साफ़ संदेश दे दिया गया कि विरोध करेंगे तो चैनल के बिज़नेस पर प्रभाव पड़ेगा।

यानी चाहे-अनचाहे मोदी सरकार ने साफ़ संकेत दिए कि सत्ता अपने आप में बिज़नेस है और चैनल भी बिना बिज़नेस ज़्यादा चल नहीं पाएगा। पर पहली बार एबीपी न्यूज़ चैनल पर असर डालने के लिए या कहें कहीं सारे चैनल मोदी सरकार के गुणगान को छोड़कर ग्राउंड ज़ीरो से ख़बरें दिखाने की दिशा में बढ़ न जाएं, उसके लिए शायद दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र का ही गला घोंटने की कार्यवाही सत्ता ने शुरू की।

यानी इमरजेंसी थी तब मीडिया को एहसास था कि संवैधानिक अधिकार समाप्त है। पर यहां तो लोकतंत्र का राग है और 20 जून को प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये किसान लाभार्थियों से की।

उस बातचीत में सबसे आगे छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले के कन्हारपुरी गांव में रहने वाली चंद्रमणि कौशिक थीं। उनसे जब प्रधानमंत्री ने कमाई के बारे में पूछा तो बेहद सरल तरीके से चंद्रमणि ने बताया कि उसकी आय कैसे दोगुनी हो गई। आय दुगुनी हो जाने की बात सुनकर प्रधानमंत्री खुश हो गए, खिलखिलाने लगे, क्योंकि किसानों की आय दोगुनी होने का लक्ष्य प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2022 में रखा है।

पर लाइव टेलीकास्ट में कोई किसान कहे कि उसकी आय दोगुनी हो गई तो प्रधानमंत्री का खुश होना तो बनता है। पर रिपोर्टर-संपादक के दृष्टिकोण से हमें ये सच पचा नहीं क्योंकि छत्तीसगढ़ यूं भी देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है फिर कांकेर ज़िला, जिसके बारे में सरकारी रिपोर्ट ही कहती है कि जो अब भी कांकरे के बारे में सरकारी वेबसाइट पर दर्ज है कि ये दुनिया के सबसे पिछड़े इलाके यानी अफ्रीका या अफगानिस्तान की तरह है।

ऐसे में यहां की कोई महिला किसान आय दोगुनी होने की बात कह रही है तो रिपोर्टर को ख़ासकर इसी रिपोर्ट के लिए वहां भेजा गया। 14 दिन बाद 6 जुलाई को जब ये रिपोर्ट दिखायी गई कि कैसे महिला को दिल्ली से गए अधिकारियों ने ट्रेनिंग दी कि उसे प्रधानमंत्री के सामने क्या बोलना है, कैसे बोलना है और कैसे आय दुगुनी होने की बात कहनी है।

इस रिपोर्ट को दिखाये जाने के बाद छत्तीसगढ़ में ही ये सवाल होने लगे कि कैसे चुनाव जीतने के लिए छत्तीसगढ़ की महिला को ट्रेनिंग दी गई। (छत्तीसगढ़ में पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव है) यानी इस रिपोर्ट ने तीन सवालों को जन्म दे दिया।

पहला, क्या अधिकारी प्रधानमंत्री को खुश करने के लिए ये सब करते हैं। दूसरा, क्या प्रधानमंत्री चाहते हैं कि सिर्फ़ उनकी वाहवाही हो तो झूठ बोलने की ट्रेनिंग दी जाती है। तीसरा, क्या प्रचार प्रसार का यही तंत्र ही है जो चुनाव जीता सकता है।

हो जो भी पर इस रिपोर्ट से आहत मोदी सरकार ने एबीपी न्यूज़ चैनल पर सीधा हमला ये कहकर शुरू किया कि जानबूझकर ग़लत और झूठी रिपोर्ट दिखायी गई। और बाकायदा सूचना एवं प्रसारण मंत्री समेत तीन केंद्रीय मंत्रियों ने एक सरीखे ट्वीट किए और चैनल की साख़ पर ही सवाल उठा दिए। ज़ाहिर है ये दबाव था। सब समझ रहे थे।

ऐसे में तथ्यों के साथ दोबारा रिपोर्ट फाइल करने के लिए जब रिपोर्टर ज्ञानेंद्र तिवारी को भेजा गया तो गांव का नज़ारा ही कुछ अलग हो गया। मसलन, गांव में पुलिस पहुंच चुकी थी। राज्य सरकार के बड़े अधिकारी इस भरोसे के साथ भेजे गए थे कि रिपोर्टर दोबारा उस महिला तक पहुंच न सके।

पर रिपोर्टर की सक्रियता और भ्रष्टाचार को छिपाने पहुंचे अधिकारी या पुलिसकर्मियों में इतना नैतिक बल न था या वह इतने अनुशासन में रहने वाले नहीं थे कि रात तक डटे रहते. दिन के उजाले में खानापूर्ति कर लौट आए।

तो शाम ढलने से पहले ही गांव के लोगों ने और दोगुनी आय कहने वाली महिला समेत उनके साथ काम करने वाली 12 महिलाओं के समूह ने चुप्पी तोड़कर सच बता दिया कि हालत तो और खस्ता हो गई है।

9 जुलाई को इस रिपोर्ट के ‘सच’ शीर्षक के प्रसारण के बाद सत्ता-सरकार की खामोशी ने संकेत तो दिए कि वह कुछ करेगी और उसी रात सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाले न्यूज़ चैनल मॉनिटरिंग की टीम में से एक शख़्स ने फोन से जानकारी दी कि आपके मास्टरस्ट्रोक चलने के बाद से सरकार में हड़कंप मचा हुआ है।

बाकायदा एडीजी को सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने हड़काया है कि क्या आपको अंदेशा नहीं था कि एबीपी हमारे ट्वीट के बाद भी रिपोर्ट फाइल कर देता है। अगर ऐसा हो सकता है तो हम पहले ही नोटिस भेज देते जिससे रिपोर्ट के प्रसारण से पहले उन्हें हमें दिखाना पड़ता।

ज़ाहिर है जब ये सारी जानकारी नौ जुलाई को सरकारी मॉनिटरिंग करने वाले सीनियर मॉनिटरिंग का पद संभाले शख़्स ने दी तो मुझे पूछना पड़ा कि क्या आपको नौकरी का ख़तरा नहीं है जो आप हमें सारी जानकरी दे रहे हैं।

तो उस शख्स ने साफ़ तौर पर कहा कि 200 लोगों की टीम है, जिसकी भर्ती ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड करती है। छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर रखती है चाहे आपको कितने भी बरस काम करते हुए हों। छुट्टी की कोई सुविधा है नहीं। मॉनिटरिंग करने वालों को 28,635 रुपये मिलते हैं तो सीनियर मॉनिटरिंग करने वाले को 37,350 रुपये और कंटेट पर नज़र रखने वालों को 49,500 रुपये मिलते हैं। इतने वेतन की नौकरी जाए या रहे फ़र्क़ क्या पड़ता है।

पर सच तो यही है कि प्राइम टाइम के बुलेटिन पर नज़र रखने वालों को यही रिपोर्ट तैयार करनी होती है कितना वक़्त आपने प्रधानमंत्री मोदी को दिखाया। जो सबसे ज़्यादा दिखाता है उसे सबसे ज़्यादा अच्छा माना जाता है।

हम मास्टरस्ट्रोक में प्रधानमंत्री मोदी को तो ख़ूब दिखाते हैं इस पर लगभग हंसते हुए उस शख़्स ने कहा आपके कंटेंट पर अलग से एक रिपोर्ट तैयार होती है और आज जो आपने दिखाया है उसके बाद तो कुछ भी हो सकता है। बस सचेत रहिएगा।

यह कहकर उसने तो फोन काट दिया तो मैं भी इस बारे में सोचने लगा। इसकी चर्चा चैनल के भीतर हुई भी पर ये किसी ने नहीं सोचा था कि हमला तीन स्तर पर होगा और ऐसा हमला होगा कि लोकतंत्र टुकुर-टुकुर देखता रह जाएगा क्योंकि लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र का गला घोटा जाएगा।

अगले ही दिन से जैसे ही रात के नौ बजे एबीपी न्यूज़ चैनल का सैटेलाइट लिंक अटकने लगा और नौ बजे से लेकर रात दस बजे तक कुछ इस तरह से सैटेलाइट की डिस्टरबेंस रही कि कोई भी मास्टरस्ट्रोक देख ही न पाए या देखने वाला चैनल बदल ही ले और दस बजते ही चैनल फिर ठीक हो जाता।

ज़ाहिर है ये चैनल चलाने वालों के लिए किसी झटके से कम नहीं था। ऐसे में चैनल के प्रोपराइटर व एडिटर-इन-चीफ ने तमाम टेक्नीशियंस को लगाया कि ये क्यों हो रहा है। पर सेकेंड भर के लिए किसी टेलीपोर्ट से एबीपी सैटेलाइट लिंक पर फायर होता और जब तक एबीपी के टेक्नीशियन एबीपी का टेलीपोर्ट बंद कर पाते तब तक पता नहीं कहां से फायर हो रहा है तब तक उस टेलीपोर्ट के मूवमेंट होते और वह फिर चंद मिनट में सेकेंड भर के लिए दोबारा टेलीपोर्ट से फायर करता।

यानी औसतन 30 से 40 बार एबीपी के सैटेलाइट लिंक पर ही फायर कर डिस्टरबेंस पैदा की जाती और तीसरे दिन सहमति यही बनी कि दर्शकों को जानकारी दे दी जाए।

19 जुलाई को सुबह से ही चैनल पर ज़रूरी सूचना कहकर चलाना शुरू किया गया, ‘पिछले कुछ दिनों से आपने हमारे प्राइम टाइम प्रसारण के दौरान सिग्नल को लेकर कुछ रुकावटें देखी होंगी। हम अचानक आई इन दिक्कतों का पता लगा रहे हैं और उन्हें दूर करने की कोशिश में लगे हैं। तब तक आप एबीपी न्यूज़ से जुड़े रहें।’

ये सूचना प्रबंधन के मशविरे से आन एयर हुई पर इसे आन एयर करने के दो घंटे बाद ही यानी सुबह 11 बजते-बजते हटा लिया गया। हटाने का निर्णय भी प्रबंधन का ही रहा।

यानी दबाव सिर्फ़ ये नहीं कि चैनल डिस्टर्ब होगा बल्कि इसकी जानकारी भी बाहर नहीं जानी चाहिए यानी मैनेजमेंट कहीं साथ खड़ा ना हो।

और इसी के समानांतर कुछ विज्ञापनदाताओं ने विज्ञापन हटा लिए या कहें रोक लिए। मसलन सबसे बड़ा विज्ञापनदाता जो विदेशी ताकतों से स्वदेशी ब्रांड के नाम पर लड़ता है और अपने सामान को बेचता है उसका विज्ञापन झटके में चैनल के स्क्रीन से गायब हो गया।

फिर अगली जानकारी ये भी आने लगी कि विज्ञापनदाताओं को भी अदृश्य शक्तियां धमका रही हैं कि वे विज्ञापन देना बंद कर दें। यानी लगातार 15 दिन तक सैटेलेइट लिंक में दख़ल और सैटेलाइट लिंक में डिस्टरबेंस का मतलब सिर्फ़ एबीपी का राष्ट्रीय हिंदी न्यूज़ चैनल भर ही नहीं बल्कि चार क्षेत्रीय भाषा के चैनल भी डिस्टर्ब होने लगे और रात नौ से दस बजे कोई आपका चैनल न देख पाए तो मतलब है जिस वक़्त सबसे ज़्यादा लोग देखते हैं उसी वक़्त आपको कोई नहीं देखेगा।

यानी टीआरपी कम होगी ही। यानी मोदी सरकार के गुणगान करने वाले चैनलों के लिए राहत कि अगर वह सत्तानुकूल ख़बरों में खोए हुए हैं तो उनकी टीआरपी बनी रहेगी और जनता के लिए सत्ता ये मैसेज दे देगी कि लोग तो मोदी को मोदी के अंदाज़ में सफल देखना चाहते हैं।

जो सवाल खड़ा करते हैं उसे जनता देखना ही नहीं चाहती। यानी सूचना एवं प्रसारण मंत्री को भी पता है कि खेल क्या है तभी तो संसद में जवाब देते वक़्त वह टीआरपी का ज़िक्र करने से चूके पर स्क्रीन ब्लैक होने से पहले टीआरपी क्यों बढ़ रही थी इस पर कुछ नहीं बोले।

ख़ैर ये पूरी प्रक्रिया है जो चलती रही और इस दौर में कई बार ये सवाल भी उठे कि एबीपी को ये तमाम मुद्दे उठाने चाहिए। मास्टरस्ट्रोक के वक़्त अगर सैटेलाइट लिंक ख़राब किया जाता है तो कार्यक्रम को सुबह या रात में ही रिपीट टेलीकास्ट करना चाहिए।

पर हर रास्ता उसी दिशा में जा रहा था जहां सत्ता से टकराना है या नहीं और खामोशी हर सवाल का जवाब ख़ुद-ब-खुद दे रही थी। तो पूरी लंबी प्रक्रिया का अंत भी कम दिलचस्प नहीं है क्योंकि एडिटर-इन-चीफ यानी प्रोपराइटर या कहें प्रबंधन जब आपके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए कि बताइए करें क्या?

इन हालात में आप ख़ुद क्या कर सकते हैं… छुट्टी पर जा सकते हैं… इस्तीफ़ा दे सकते हैं। और कमाल तो ये है कि इस्तीफ़ा देकर निकले नहीं कि पतजंलि का विज्ञापन लौट आया।

मास्टरस्ट्रोक में भी विज्ञापन बढ़ गया। 15 मिनट का विज्ञापन जो घटते-घटते तीन मिनट पर आ गया था वह बढ़कर 20 मिनट हो गया। दो अगस्त को इस्तीफ़ा हुआ और दो अगस्त की रात सैटेलाइट भी संभल गया। और काम करने के दौर में जिस दिन संसद के सेंट्रल हाल में कुछ पत्रकारों के बीच एबीपी चैनल को मज़ा सिखाने की धमकी देते हुए पुण्य प्रसून ख़ुद को क्या समझता है कहा गया।

उससे दो दिन पहले का सच और एक दिन बाद का सच ये भी है कि रांची और पटना में बीजेपी का सोशल मीडिया संभालने वालों को बीजेपी अध्यक्ष निर्देश देकर आए थे कि पुण्य प्रसून को बख्शना नहीं है। सोशल मीडिया से निशाने पर रखे और यही बात जयपुर में भी सोशल मीडिया संभालने वालों को कही गई।

पर सत्ता की मुश्किल यह है कि धमकी, पैसे और ताक़त की बदौलत सत्ता से लोग जुड़ तो जाते है पर सत्ताधारी के इस अंदाज़ में ख़ुद को ढाल नहीं पाते तो रांची-पटना-जयपुर से बीजेपी के सोशल मीडिया वाले जानकारी देते रहे आपके ख़िलाफ़ अभी और ज़ोऱ-शोर से हमला होगा।

तो फिर आख़िरी सवाल जब खुले तौर पर सत्ता का खेल हो रहा है तो फिर किस एडिटर गिल्ड को लिखकर दें या किस पत्रकार संगठन से कहें संभल जाओ। सत्तानुकूल होकर मत कहो शिकायत तो करो फिर लड़ेंगे। जैसे एडिटर गिल्ड नहीं बल्कि सचिवालय है और संभालने वाले पत्रकार नहीं सरकारी बाबू हैं।

तो गुहार यही है, लड़ो मत पर दिखायी देते हुए सच को देखते वक़्त आंखों पर पट्टी तो न बांधो।

बागी नेता यशवंत सिन्‍हा का कारवां ‘राष्‍ट्रीय मंच’

फोर्थपिलर टीम।  

भाजपा के विरोध में ‘राष्‍ट्रीय मंच’ नाम से बागी नेता यशवंत सिन्‍हा का कारवां निकल पड़ा है। इसमें अभी शत्रुघ्न सिन्हा, दिनेश त्रिवेदी(टीएमसी), माजिद मेमन, संजय सिंह (आप), सुरेश मेहता (पूर्व मुख्यमंत्री गुजरात), हरमोहन धवन (पूर्व केंद्रीय मंत्री), सोमपाल शास्त्री (कृषि अर्थशास्त्र), पवन वर्मा (जेडीयू), शाहिद सिद्दीक़ी, मोहम्मद अदीब, जयंत चैधरी (आरएलडी), उदय नारायण चौधरी (बिहार), नरेंद्र सिंह (बिहार), प्रवीण सिंह (गुजरात के पूर्व मंत्री), आशुतोष (आप) और घनश्याम तिवारी (सपा) शामिल हुए हैं।

बीजेपी के बागी नेता यशवंत सिन्हा ने कहा, ‘मैं घोषणा करता हूं कि राष्ट्रमंच का सबसे बड़ा मुद्दा किसानों का होगा। एनपीएस को ही देख लीजिए। नोटबंदी को मैं आर्थिक सुधार मानता हूं, फिर बुरी तरह लागू की गई जीएसटी। उससे छोटे उद्योग मर गए। बेरोज़गारी का क्या हाल है, भूख और कुपोषण के चलते बच्चों का भविष्य ख़तरे में है। आंतरिक सुरक्षा को देख लीजिए-ऐसे लगता है कि भीड़ ही न्याय करेगी और जब जाति और धर्म पर भीड़ तंत्र भारी पड़ता है तो उसे संभालना मुश्किल हो जाता है।

बता दें कि किसानों के मुद्दों को लेकर बीजेपी के बागी नेता यशवंत सिन्हा ने 30 जनवरी 2018 को राष्‍ट्रीय मंच की घोषणा की। कार्यक्रम में कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी भी शामिल हुईं। उन्‍होंने कहा कि बताया जाता है कि हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि विदेश नीति है, पर डोकलाम को ही देख लीजिए। जो चीन 10% था वो 90 % हो गया है। अब कोई 56 इंच की छाती को नहीं पूछता।

यशवंत सिन्‍हा ने दिल्‍ली में प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर कहा कि हम सब अचानक साथ नहीं आए हैं। हम सब कई महीनों से संपर्क में थे और हम सभी देश की वर्तमान स्थिति पर चिंतित हैं। उन्‍होंने कहा कि हमें लगा कि देश की जनता के लिए एक आंदोलन करने की ज़रूरत है और हम वैचारिक रूप से एक दूसरे से जुड़े हैं।

उन्‍होंने कहा कि हम बापू की समाधि पर गए तो लगा कि बापू का सरकारीकरण हो गया है। हमें अंदर नहीं जाने दिया गया। फिर काफी मानमुनव्‍वल के बाद हमें और मीडिया को अंदर जाने दिया गया। उन्‍होंने कहा कि 70 साल पहले आज के दिन उस महामानव ने देश के लिए अपना बलिदान दिया था। वर्तमान स्थिति में भी देश उन्हीं समस्याओं से ग्रस्त है। अगर आज हम नहीं खड़े हुए तो बापू का बलिदान व्यर्थ जाएगा।

यशवंत सिन्‍हा ने कहा कि न्यायालय में क्या हो रहा है-अब लीपापोती की जा रही है। आरोप क्या था कि कुछ केस को प्रफ़र्ड बेंच पर भेजा जा रहा था। क्या देश की जनता को जानने का हक़ नहीं है ? मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, उसका हाल आप देख ही रहे हैं। जो जांच एजेंसियां हैं सीबीआई, इनकम टैक्स आदि को किसलिए इस्तेमाल किया जा रहा है। औद्योगिक विकास कम है और हमें देश के 60 करोड़ किसानों की फिक्र है। राज्य और केंद्र सरकारों ने किसान को भिखमंगा बना दिया है। किसान को एमएसपी नहीं मिल रही है। ये कभी मुद्दा नहीं बनता है।

सीएम नीतीश के काफिले पर क्‍यों हुआ हमला

बक्सर।

विकास कार्यों में भेदभाव का आरोप लगाकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के काफिले पर ग्रामीणों ने हमला कर दिया। पथराव में कई गाड़ियों के शीशे टूट गए और सीएम को किसी तरह वहां से सुरक्षित निकाला जा सका। वह विकास समीक्षा यात्रा के लिए बक्सर जिले के नंदन गांव पहुंचे थे। पिछली बार भी सीएम नीतीश की विकास समीक्षा यात्रा के दौरान चौसा में कुछ ऐसा ही हुआ था।

कुछ असामाजिक तत्वों ने सीएम के कारकेड पर हमला कर दिया और जमकर पत्थरबाजी की, जिससे काफिले में कई गाड़ियों के शीशे टूट गए। सुरक्षाकर्मियों ने किसी तरह अपनी जान बचाई और गाड़ी लेकर भाग खड़े हुए। इस घटना में कई सुरक्षाकर्मी घायल हो गए।

गांव के ही चमटोली के लोगों का कहना था कि विकास केवल मुख्यमंत्री को दिखाने के लिए हुए, गांव के ही दूसरे इलाकों में कुछ नहीं हुआ। विरोध दायरे में था,  अचानक काफिले पर कुछ असामाजिक तत्व पत्थर चलाने लगे। आधा साइज के ईंट चलने से कई गाड़ियों के शीशे टूट गए। काफिले में भगदड़ की स्थिति मच गई।

ग्रामीणों का आरोप है कि सात निश्चय कार्यक्रम के तहत गांव में कोई काम नहीं हुआ। इसी को लेकर ग्रामीण विरोध जता रहे थे और सीएम को गांव लाने की मांग कर रहे थे। घटना के बाद सीएम नीतीश कुमार को गांव से सुरक्षित निकालकर वहां से दो किलोमीटर दूर एक फॉर्म पर ले जाया गया, जहां उन्‍होंने सभा को संबोधित किया।

सीएम को अहिनौरा में गार्ड ऑफ आनर दिया गया, जिसके बाद सीएम ने अपना भाषण पढ़ना शुरू किया और कहा कि जिस शादी में दहेज लिया जाता हो उस शादी में ना जाएं। उन्होंने दहेज और बाल विवाह को समाज से खत्म करने की बात कही।

उन्होंने लोगों से वादा किया कि जो भी वादा किया है वो पूरा करेंगे। इतना कहना था कि लोगों ने उन्हें काला झंडा दिखाया और अपना विरोध प्रकट किया। वहीं इससे पहले महादलित महिलाओं ने सीएम के काफिले को रोकने की भी कोशिश की थी।

क्या हैं पैराडाइज़ पेपर्स?

पैराडाइज़ पेपर्स जनता ते सामने आने वाले वो वित्तीय दस्तावेज़ हैं जो दुनिया भर के अमीर और ताक़तवर लोगों के टैक्स हेवन देशों में बड़े निवेशों पर रोशनी डालते हैं. तकनीकी भाषा में इसे ऑफ़शोर फिनांस कहा जा रहा है.
इस पूरे हफ्ते सैकड़ों लोगों और कंपनियों की कर और वित्तीय जानकारियां साझा की जा रही हैं. तमाम जानकारियां इस बात पर केंद्रित हैं कि कैसे राजनेताओं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, सेलेब्रिटी और हाई प्रोफ़ाइल लोगों ने ट्रस्ट, फाउंडेशन, काग़ज़ी कंपनियों के ज़रिए टैक्स अधिकारियों से अपने कैश और सौदों को छुपाए रखा.

पिछले साल के पनामा पेपर्स की ही तरह ये दस्तावेज़ जर्मन अख़बार ज़्यूड डॉयचे त्साइटुंग ने हासिल किए थे. दस्तावेज़ों की जांच इंटरनेशनल कंसोर्शियम ऑफ़ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) ने की है.
बीबीसी पैनोरमा और गार्डियन दुनिया के उन 100 मीडिया समूहों में से हैं जो इन दस्तावेज़ों की जांच कर रही हैं.

पैराडाइज़ पेपर्स नाम इसलिए चुना गया क्योंकि जिन देशों के नाम इसमें आए हैं, उन्हें दुनिया की ख़ूबसूरत जगहों में गिना जाता है. इसमें बरमूडा भी शामिल है जहां मुख्य कंपनी ‘ऐपलबी’ का हेडक्वॉर्टर है. इन देशों में टैक्स हेवन यानी कर चोरी का स्वर्ग कहे जाने की तमाम खूबियां हैं. इसके बाद नाम आता है ‘आयल ऑफ़ मैन’ जिसका भी एक बड़ा रोल रहा है.

किनका पर्दाफ़ाश किया जा रहा है?
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सैकड़ों राजनेताओं, मल्टीनेशनल्स, सिलेब्रिटीज़ और रईस लोगों के टैक्स हेवन देशों में निवेश से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक हुई है. इनमें से कुछ घरेलू लोग भी हैं. इस सेक्टर में काम कर रहे लीगल फर्म्स, वित्तीय संस्थानों और एकाउंटेंट्स के कामकाज पर ये पेपर्स रोशनी डालते हैं. अभी तक जो कहानियां सामने आई हैं.
द पैराडाइज़ पेपर्स में दावा किया गया है कि ब्रितानी महारानी के निजी धन में से क़रीब एक करोड़ पाउंड विदेश में निवेश किए गए. इन पैसों को डची ऑफ़ लेंकास्टर ने कैमन आइलैंड्स और बरमुडा के फंड में निवेश किया था. ये महारानी को आय देते हैं और उनके क़रीब 50 करोड़ पाउंड की निजी जागीर के निवेशों को संभालते हैं.
दस्तावेज़ों में ये भी दावा किया गया है कि डोनल्ड ट्रंप के क़रीबी सहयोगी रॉस ने एक जहाजरानी कंपनी में निवेश बरक़रार रखा जो रूस की एक ऊर्जा कंपनी के लिए गैस और तेल का परिवहन करके सालाना करोड़ों डॉलर कमाती है. रूस की एनर्जी फर्म में व्लादिमीर पुतिन के दामाद और अमरीका के प्रतिबंधों का सामना कर रहे दो लोगों का भी निवेश है.
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रडो के क़रीबी सहयोगी ऐसी विदेशी स्कीम से जुड़े हैं, जिससे संभव है कि देश को करोड़ों डॉलर का नुक़सान पहुंचा हो. टैक्स हेवन देशों को बंद करने के लिए अभियान चलाने वाले ट्रुडो के लिए इससे हालात शर्मनाक हो सकते हैं.
कंज़र्वेटिव पार्टी के पूर्व डिप्टी चेयरमैन और बड़े दानदाता, लॉर्ड एश्क्रॉफ्ट ने अपने विदेशी निवेश के प्रबंधन में नियमों की अनदेखी की हो सकती है. अन्य दस्तावेज़ों से पता चलता है कि उन्होंने हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में अपना नॉन-डोम (ग़ैर रिहायशी) दर्ज़ा बरकरार रखा जबकि ऐसी रिपोर्टें आईं थी कि वो ब्रिटेन के स्थायी नागरिक बन गए हैं.

कैसे होती है टैक्स चोरी?
पैराडाइज़ पेपर्स के स्रोत?
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इनमें 1400 जीबी से भी ज़्यादा डेटा हैं और तकरीबन 1.34 करोड़ दस्तावेज़. इनमें 68 लाख दस्तावेज़ क़ानूनी सेवाएं मुहैया कराने वाली कंपनी ऐपलबी और कॉर्पोरेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनी एस्टेरा से मिले हैं. दोनों कंपनियां 2016 तक ऐपलबी के नाम से काम करती रही थीं. इसी साल एस्टेरा स्वतंत्र रूप से वजूद में आई.
अन्य साठ लाख दस्तावेज़ 19 देशों से मिले हैं. इनमें ज्यादातर कैरिबियाई इलाके हैं. दस्तावेज़ों का एक छोटा हिस्सा सिंगापुर से काम करने वाली इंटरनेशनल ट्रस्ट और कॉर्पोरेट सेवा मुहैया कराने वाली कंपनी एशियासिटी ट्रस्ट है. सार्वजनिक हुए दस्तावेज़ सात दशकों के समय (1950 से 2016) को समेटे हुए हैं.

ऐपलबी क्या है?
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ज़्यादातर दस्तावेज़ ऐपलबी कंपनी के हैं. बरमुडा स्थित ये कंपनी क़ानूनी सेवाए देती है. ये अपने ग्राहकों को शून्य या बेहद कम कर वाले देशों में कंपनियां स्थापित करने में मदद करती है. इस कंपनी का इतिहास साल 1890 से शुरू होता है. अपने क्षेत्र की दुनिया की दस बड़ी कंपनियों में इसका नाम लिया जाता है.
सार्वजनिक हुई जानकारी से ये पता चलता है कि ऐपलबी की क्लाइंट लिस्ट में अमरीकियों का बोलबाला है. 31,000 अमरीकी पते इस लिस्ट में हैं. 14 हज़ार पते ब्रिटेन के हैं और 12 हज़ार बरमुडा के.
पैराडाइज़ पेपर्स किसने लीक किए?
साल 2016 के पनामा पेपर्स की ही तरह ये दस्तावेज़ जर्मन अख़बार ज़्यूड डॉयचे त्साइटुंग ने हासिल किए थे. दस्तावेज़ों की जांच इंटरनेशनल कंसोर्शियम ऑफ़ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) ने की है. अख़बार ने अपने सूत्र सार्वजनिक नहीं किए हैं.
दस्तावेज़ों पर कौन काम कर रहा है?
दस्तावेज़ों की जांच इंटरनेशनल कंसोर्शियम ऑफ़ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) ने की है. बीबीसी पैनोरमा और गार्डियन 67 देशों के उन 100 मीडिया समूहों में से हैं जो इन दस्तावेज़ों की जांच कर रही हैं. आईसीआईजे दुनिया के खोजी पत्रकारों का ग्लोबल नेटवर्क है.

इसमें जनहित क्या है?
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दस्तावेज़ों की जांच करने वाले मीडिया संस्थानों का कहना है कि ये जांच जनहित में हैं, क्योंकि टैक्स हेवन देशों से लीक हुए दस्तावेज़ों से बार-बार ग़लत काम सामने आए हैं. सार्वजनिक हुए इन दस्तावेज़ों की वजह से दुनिया भर में कई देशों में सैंकड़ों जांच शुरू हुए हैं और नतीज़तन राजनेताओं, मंत्रियों और यहां तक कि प्रधानमंत्रियों का अपना पद छोड़ना पड़ा है.

पनामा लीक्स से कैसे अलग?
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पिछले चार सालों में ये पांचवी बड़ी लीक है. हालांकि पनामा पेपर्स आकार के लिहाज से ज़्यादा बड़े थे लेकिन पैराडाइज पेपर्स में जानकारियों और सूचना का पैमाना कहीं बड़ा है. इन्हें पनामा पेपर्स के दस्तावेज़ों से ज़्यादा सख्त माना जा रहा है.

टैक्स हेवन क्या है?
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ऐसे संस्थानों को आम भाषा में टैक्स हेवन जहाँ आसानी से कर बचाया जा सकता है. इंडस्ट्री की भाषा में इन्हें ऑफ़शोर फ़ाइनेंसियल सेंटर्स (ओएफ़सी) कहा जाता है. ये आमतौर पर स्थिर, भरोसेमंद और गुप्त होते हैं और अक्सर छोटे द्वीप होते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ़ द्वीप ही होते हैं, और इनमें ग़लत कार्यों को रोकने के लिए क्या उपाय हैं इसे लेकर भिन्नताएं हो सकती हैं.

माल्टा में पनामा गेट खोलने वाली पत्रकार की हत्या
क्या हैं पैराडाइज पेपर्स- ये बड़ी संख्या में लीक दस्तावेज़ हैं, जिनमें ज़्यादातर दस्तावेज़ आफ़शोर क़ानूनी फर्म ऐपलबी से संबंधित हैं. इनमें 19 तरह के टैक्स क्षेत्र के कारपोरेट पंजीयन के पेपर भी शामिल हैं. इन दस्तावेज़ों से राजनेताओं, सेलिब्रेटी, कारपोरेट जाइंट्स और कारोबारियों के वित्तीय लेनदेन का पता चलता है.
1.34 करोड़ दस्तावेज़ों को जर्मन अख़बार ने हासिल किया है और इसे इंटरनेशनल कंसोर्शियम ऑफ़ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) से शेयर किया है. 67 देशों के क़रीब 100 मीडिया संस्था से इसमें शामिल हैं, जिसमें गार्डियन भी शामिल है. बीबीसी की ओर से पैनोरमा की टीम इस अभियान से जुड़ी है. बीबीसी इन दस्तावेज़ों को मुहैया कराने वाले स्रोत के बारे में नहीं जानती.

[साभार- बी बी सी ]

डरावना डेरा या राजनीति

डेरा सच्‍चा सौदा, गुरमीत राम रहीम, कार्रवाई, मीडिया, राजनीति, हिंसा, धर्म और सेवा आदि अनेक मुद्दों पर सोशल मीडिया पर विचारों की भरमार है। लेकिन कुछ विचार लोगों की आंखें खोल देते हैं। यहां हम उन्‍हीं कुछ चुने हुए विचारों को प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

प्रमोद शुक्‍ला लिखते हैं-मित्रों, साथी विजय राज सिंह का यह विचार भी महत्वपूर्ण है, आप इससे सहमत या असहमत होने के लिए स्वतंत्र हैं, पर पहले इस विचार की गहराई को समझने की जरूरत है।

“धर्मो रक्षति रक्षितः”

रामरहीम ने रेप और हत्या समेत जितने अपराध किये/करवाए, चाहे अब ज़ाहिर या अभी भी गुप्त, सब गलत हैं।

न्यायालय ने जो फैसला दिया, उसका समर्थन करते हैं। पर साथ ही, उनका डेरा हर कहीं खुलना चाहिए, खासकर बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, केरल आदि, ताकि धर्म बना रहे। हिन्दू “दलितों” गरीबों, और पिछड़ों का जितना कल्याण इनका डेरा करता आया है, मिशनरी या वक्फ क्या, कोई नहीं करता। सरकार तक उनको सिर्फ वोटबैंक मानती है, सरकार बना पाने के सौदे के तौर पर आरक्षण बना रहने देती है, थोड़ा बढ़ा भी देती है। बिलकुल घपलेबाज़ी है उस सौदे में।

सच्चा सौदा इन (“दलितों” आदि) का सिर्फ डेरा के साथ है। वह इनको पालते हैं, यह धर्म को। इसी को “धर्मो रक्षति रक्षितः” कहा गया है। हमारी दृष्टि में, हिंदुत्व में डेरा का यह अमूल्य योगदान है। न सिर्फ वह हिन्दुओं को कन्वर्ट होने से रोकने में अच्छा काम कर रहे हैं, बल्कि सिखों और हिन्दुओं को वैसे ही एक मानते हैं जैसे बिलकुल शुरुआत में था। साथ ही, यह जहां एक तरफ “सर्व धर्म सम भाव” के जरिये “सहिष्णुता” ले कर चलते हैं, वहीं उस अधूरे श्लोक को “धर्म हिंसा तथैव च” से पूरा कर सनातन का पूरा स्वरूप प्रकट करते हैं।

फैसला आने पर जो हिंसा डेरा ने किया, वह सरासर गलत है, और अगर नुकसान की भरपाई सम्पत्ति के जाब्ते से होना तय हुआ है, तो प्रार्थना है कि बिलकुल वैसा ही हो, उस आदेश के खिलाफ डेरा हर अपील पर हारे। मगर मूल उद्देश्य का बना रहना जरूरी है। यह डेरा न सही, कोई और सही। भांगड़ा, ढाबे और तंदूरी की ही तरह यह पंजाबी चीज भी उतनी ही अखिल-भारतीय हो।

दिलीप सी मंडल की यह प्रस्‍तुति लाजवाब है- क्या अजीब संयोग है। राम रहीम को जिस हेलीकॉप्टर में जेल ले जाया गया, वह वही हेलीकॉप्टर था, जिस पर बैठकर नरेंद्र मोदी ने 2014 में चुनाव प्रचार किया था। यानी ऑगुस्टा वेस्टलैंड AW139 हेलीकॉप्टर। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी अब एयरफोर्स के हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल करते हैं।

राजेश चंद्रा लिखते हैं- ये आरएसएस भाजपा के बलात्कार सेनानी हैं। हिन्दू साध्वियों का बलात्कार करने वाले गुरमीत राम रहीम को न्याय दिलाने के लिये भारतीय सेना से लड़ रहे हैं।

आलोक नंदन लिखते हैं- अंधा और बेतरतीब नेतृत्व विध्वंस के सिवा आपको कुछ नहीं दे सकता…व्यवस्था स्थापित करने की न्यूनतम क्रूरता सीमा क्या है ? और इसको तय करने का अधिकार किसे है ? ………

पुष्‍परंजन लिखते हैं- लम्बी ज़ुबान वाले साक्षी महाराज से सोच समझ कर बयान दिलवाया गया! बदज़ुबानी में पीएचडी कर चुके साक्षी महाराज के ज़रिये दो काम हुआ है। एक, न्यायपालिका को धमकाना। दूसरा, डेरा समर्थक वोट बैंक को यह बताना कि बीजेपी की इच्छा के विरुद्ध यह निर्णय हुआ है।

कोर्ट चाहे तो मानहानि ही नहीं, अदालत को धमकाने के मामले में महाराज जी को एक बार फिर तिहाड़ भेज सकती है। यों,  बलात्कार के आरोप वाले मामले आते हैं तो साक्षी महाराज का अगस्त 2000 वाला पुराना दर्द उखड आता है। बलात्कार के मामले में तिहाड़ रिटर्न हैं साक्षी महाराज।

सवाल यह है कि क्या इस देश में सभी अपराधियों को सरकार गेस्ट हाउस उपलब्ध कराती है? तो फिर इस बलात्कारी बाबा को अम्बाला जेल के बदले, गेस्ट हाउस देकर दामाद जैसा ट्रीटमेंट किस बिना पर? सीबीआई कोर्ट से निकला तो पुलिस गार्ड ऑफ़ ओनर के अंदाज़ में खड़ी थी। अपराधी घोषित होने के बाद भी बाबा वीवीआईपी है। हेलीकॉप्टर से गेस्ट हाउस पधारे।

मोदी-खट्टर सरकार को 30 लोगों के मरने 300 के घायल होने से अधिक चिंता बलात्कारी बाबा को आरामदेह सुविधाएँ देने की है ! ऐसा लचर और लिजलिजा मुख्यमंत्री पूरे जीवन में मैंने नहीं देखा। इस शख्स ने एक बार भी हिंसा फ़ैलाने वाले गुरमीत के गुंडों का नाम नहीं लिया। पूरे बयान में यह थकेला मुख्यमंत्री “कुछ लोग”-” कुछ लोग ” करता रहा !