तीन तलाक: अमित शाह के बयानों का मतलब

नई दिल्‍ली।

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट ने ठीक उसी प्रकार जलेबी छानी है, जैसे कि मजीठिया मामले में किया था। आखिर जिन्‍होंने इतनी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी है, भला उनके लिए सुप्रीम कोर्ट ने क्‍या किया है ? यह अलग बात है कि मोदी और शाह उसकी वाहवाही लूटने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। इन्‍हीं मुद्दों पर हमने फेसबुक के कुछ मित्रों की राय एकत्र की है।

इन्हें कौन देगा न्याय?

जो मुस्लिम ट्रिपल-तलाक पर आज आये फैसले का स्वागत है, पर इस फैसले से उत्साहित होकर जो हिन्दू नाच एवं इतरा रहे हैं उन्हें हिन्दुओं में पत्नी को छोड़ने के बढ़ रहे रिवाज पर भी अदालत में बहस करानी चाहिए। मैं अनगिनत बेबस हिन्दू युवतियों को देख रहा हूं कि वे बिना तलाक पति से अलग रहने को विवश हैं। और अदालत और पुलिस उनकी कोई मदद नहीं कर पा रही है। (राय तपन भारती की फेसबुक वाल से साभार)

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क्या सचमुच मुस्लिम महिलाओं को “मुक्ति” मिल गई?

अभी सरकार को बहुत कुछ करना है। अगले सत्र में देखिए, संसद के ज़रिये कैसा क़ानून बनता है। सरकार से ज़्यादा इस देश के मुस्लिम समाज को सुधार “Reforms” के लिए आगे आना होगा। क्या दारुल क़ज़ा ( इस्लामिक कोर्ट ) को बंद कराना अगले अभियान का हिस्सा होगा?  चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति केहर और जस्टिस अब्दुल नज़ीर क्यों तीन तलाक़ के समर्थन में थे?  उनके तर्कों को समझने की आवश्यकता है।

पाकिस्तान समेत दुनिया के 22 मुसलमान देश हैं,  जहां ट्रिपल तलाक प्रतिबंधित है। पाकिस्तान ने भारत से अलग होने के नौ साल बाद, 1956 में ट्रिपल तलाक को खत्म कर दिया था। मगर,  इस इस्लामिक देश में औरतों पर ज़ुल्म रुका नहीं। क्योंकि पाकिस्तान का मुस्लिम समाज औरतों पर सितम को मूकदर्शक होकर देखता रहा।

इस बार सुप्रीम कोर्ट ने बहुत दूर की सोचकर हिदायत दी है कि इसे राजनीतिक उपलब्धि और प्रोपेगंडा का हिस्सा न बनाए। मगर, जोश में इसे कोई मान रहा है क्या? जश्न और पटाख़े के शोर में वैसे लोग निशाने पर हैं, जो इसके पक्ष में नहीं थे। अमित शाह के ताज़ा बयान को ही देख लीजिए। बीजेपी अध्यक्ष को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की कोई परवाह नहीं। “प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी की वजह से ऐसा हुआ”,  अमित शाह के बयानों से यही बात निकल रही है! (पुष्‍परंजन की फेसबुक वाल से साभार)

अभिशेक रंजन लिखते हैं-तीन तलाक़ पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफ़्ती मोकर्रम से बात हुई। उनके मुताबिक़ मुस्लिम औरतों को दीन का इल्म नहीं है,  इसलिए वे अदालत के फ़ैसले से खुश हैं, जबकि यह फैसला शरीयत के ख़िलाफ़ है।

सत्‍यप्रकाश चौधरी लिखते हैं- अब सरकार को एक कलमबंद मुसलिम विवाह कानून की ओर बढ़ना चाहिए। समान नागरिक संहिता सिर्फ मसले बढ़ाएगी। समान नागरिक संहिता की पहली बाधा होगी कि किसके साथ शादी जायज है। एक हिंदू बोलेगा एक गोत्र में भी नहीं,  दूसरा बोलेगा मामा-भांजी में भी सही।